Saturday, September 21, 2013

राजपूत और भविष्य : वास्तविक नेतृत्व - भाग-3

भाग दो से आगे ...........

योग्य कार्यकर्ताओं और साथियों का चुनाव करते समय नेता को एक बात से सदैव सतर्क रहना चाहिए । बहुत से अवसरवादी और स्वार्थी तत्व जन-सेवा का व्रत लेकर कार्य-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं । जब तक उनका किसी भी प्रकार से स्वार्थ-सिद्ध होता रहता है तब तक वे लगन-पूर्वक कार्य करते रहते हैं पर ज्योहीं समाज के साथ विश्वासघात कर व्यक्तिगत स्वार्थ-सिद्धि का कोई अवसर आता है त्योहीं ऐसे तत्व पंचमार्गी बन कर समाज की पीठ में छुरा भोंकने का कार्य करते हैं अथवा अवसर से भयभीत होकर सामाजिक क्षेत्र से एकदम पृथक और उदासीन हो जाते हैं । अपनी इस पृथकता और उदासीनता के लिए वे कोई सैद्धांतिक अथवा व्यवहारिक बहाना ढूंढ निकालते हैं । यह वास्तव में ही उनके अंतःकरण की ही कोई कमजोरी होती है जो उन्हें सामाजिक क्षेत्र से हटा कर कुतर्क का सहारा लेने के लिए विवश करती है । राजपूत समाज में ऐसी घटनाओं की निरंतर पुनरावृत्ति होने के कारण ही ईमानदार और सच्चे कार्यकर्ताओं को भी संदेह की दृष्टी से देखा जा सकता है । इन परिस्थितियों में सच्चे कार्यकर्ताओं को भी समाज का विश्वास संचय करने में काफी समय लग जाता है और आवश्यक कार्यों अनावश्यक रूप से रुकावट और देरी होती है । इस प्रकार के छद्मवेशी, स्वार्थी और पंचमार्गी तत्व किसी भी सांस्कारिक और व्यवस्थित प्रणाली में तो नहीं पनप सकते, पर जहाँ नेतृत्व 'बड़े लोगों' के हाथ में रहता हैं वहाँ इस प्रकार के तत्त्वों के उत्पन्न और पोषित होने की बड़ी संभावना रहती है । इन बड़े कहे जाने वाले नेताओं में एक मनोवैज्ञानिक कमजोरी होती है । वे अधिकांशतः चापलूसी और स्व-स्तुति पसंद करने वाले होते हैं । अवसरवादियों की ऐसे नेताओं के सामने दाल गल जाति है और वे उनकी इसी एक कमजोरी का अनुचित लाभ उठा कर उनके कृपा और विश्वासपात्र बन जाते हैं । उचित समय आने पर ऐसे ही लोग नेता और समाज दोनों को धोखा देकर स्वार्थ-सिद्ध कर लेते हैं । अतएव मनुष्य की पहचान करने का नेता में स्वाभाविक गुण होना चाहिए ।

अब तक राजपूत समाज का नेतृत्व ऐसे व्यक्तियों के हाथों में रहा है जिनके लिए दूसरे की आँखे देखने का, दूसरे के कान सुनने का, दूसरे का मस्तिष्क सोचने का और दूसरों के हाथ-पैर आवश्यकताओं की पूर्ति का काम करते रहे हैं । यही कारण था कि राजपूत जाति का अब तक का नेतृत्व एक प्रदर्शन और तमाशा की वस्तु मात्र बना हुआ था । पर अब समय आ गया है कि नेता को स्वयं को प्रत्येक दृष्टि से स्वावलंबी, पूर्ण और समर्थ होने की आवश्यकता है ।

अब तक राजपूत जाति के सामने वार्षिक अधिवेशन करने, स्वामिभक्ति के प्रस्ताव पास करने, किसी विद्वान् द्वारा कर्ताव्याकर्तव्य पर भाषण दिलाने और अपने निहित स्वार्थों की रक्षा के लिए कानूनी सलाहकारों की नियुक्ति करने के अतिरिक्त और कोई कार्यक्रम शेष नहीं रहा है । पर अब राजपूत जाति को एक निश्चित ध्येय की पूर्ति के लिए अविरल संघर्ष में उतरना है । उसे अब एक मायावी, धूर्त और बलिष्ठ प्रतिद्वन्दी का सामना करना है, अतएव राजपूत जाति का नेतृत्व बहुत ही दृढ़ और कर्मठ हाथों में होना चाहिए । भयंकर तूफ़ान में फंसी हुई उस नाव के दुर्भाग्य की कल्पना सरलता से की जा सकती है, जिसका नाविक स्वयं ही अयोग्य और परिस्थितियों के समक्ष पराजय स्वीकार कर आत्मघात करने पर उतारू हो गया हो । आज राजपूत जाति के नेतृत्व की ठीक ऐसी ही दशा हो रही है । आज की इन परिस्थितियों में राजपूत जाति का नेतृत्व करना कोई हंसी-खेल नहीं है । एक पतनोन्मुखी जाति में नव-जीवन, नव-स्फुरण, नवोन्मेष और नव-जागृती उत्पन्न कर, उसे राष्ट्र और शेष समाज के जीवन के लिए उपयोगी अंग बनाना तथा अनेकों भीषण और अनेकों प्रतिकूल परिस्थितियों के होते हुए उसे उद्देश्य तक पहुँचाना किसी भी साधारण योग्यता वाले व्यक्ति की बात नहीं है । आज भी राजपूत उस चंचल और बलिष्ठ पर उस अनाड़ी अश्व के सामान है जिस पर कोई भी नेता रुपी सवार अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता । यही कारण है कि समाज में प्रतिवर्ष नए नेताओं के दर्शन होते हैं । समाज में उसी का नेतृत्व चिरस्थायी रह सकता है जिसे समाज की आवश्यकताओं, परिस्थितियों, वास्तविकताओं, शक्ति आदि का प्रथम श्रेणी का ज्ञान हो तथा जिसमे समाज के स्वाभाविक, त्यागमय, कर्ममय और ज्ञानमय संस्कारों को पहिचानने की शक्ति हो । उसे समाज-मनोविज्ञान का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है । साथ के साथ उसमें इतनी क्षमता भी हो कि वह प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति में समाज के नैतिक, राजनैतिक, और आर्थिक संतुलन को स्थिर रखता हुआ उसका अपने लक्ष्य के प्रति मार्ग-दर्शन कर सके । अब हवाई किले बनाने का समय नहीं रहा है ।

जिस प्रकार योग्य सेनापति में एक योग्य सिपाही के गुण स्वतः अन्तर्निहित रहते हैं उसी प्रकार एक नेता में भी एक योग्य कार्यकर्ता के गुण स्वतः होने चाहिए। एक योग्य कार्यकर्ता का प्रथम गुण ध्येयनिष्ठा है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के इस युग में, जहाँ करोड़ों रूपये प्रतिवर्ष उन विचारधाराओं के प्रचार में खर्च किये जाते हैं, अपने ध्येय के प्रति निष्ठावान और सच्चा रहना किसी सुसंस्कृत और परिपक्व विचारवान व्यक्ति का ही कार्य हो सकता है। अपने ध्येय के प्रति दृढ़ निष्ठा नहीं होती वे सदैव समझौतावादी और अवसरवादी सिद्ध होते हैं । अपने ध्येय के प्रति दृढ़, अटूट और अखंड निश्चय लेकर चलने वाले नेता से टकरा कर विरोधी शक्तियां उसी भाँती नष्ट हो जाति है जिस प्रकार समुद्र से टकरा कर समुद्र की फेनिल लहरें। विरोधी परिस्थितियाँ, प्रतिकूल वातावरण, भय, दबाव, प्रलोभन, स्तुति आदि यदि किसी भी नेता को अपने निश्चय से चलायमान कर दें तो वह व्यक्ति नेता तो क्या साधारण कार्यकर्ता बनने की योग्यता भी नहीं रखता है। जिस प्रकार अनेक चकाचौन्ध करने वाले ग्रहों और नक्षत्रों के रहते हुए भी कुतबुनुमा की सुई केवल क्षीण प्रकाशित ध्रुवतारे की और ही आकर्षित रहती है, उसी प्रकार विशालता, सुन्दरता, उच्चता और तात्कालिक सफलता को लिए हुए कई अन्य आदर्शों के होते हुए भी नेता को केवल अपने ही ध्येय पर दृढ़ रहना चाहिए। जो स्वयं दृढ़ नहीं, वह अपने अनुयायी समाज में दृढ़ता उत्पन्न कर ही नहीं सकता। अपने ध्येय के प्रति निष्ठावान और दृढ़ता के अतिरिक्त एक योग्य नेता में समाज के प्रति पीड़ा और स्वाभिमान होना आवश्यक है। सात्विक क्रोध, अनुशासनप्रियता, सामाजिक दृष्टिकोण, निरंतर क्रियाशीलता, संघर्षाप्रियता, वचनों की दृढ़ता, त्याग, ईमानदारी, क्षमा, दया, उदारता, विनय, आदि गुण प्रत्येक राजपूत के स्वाभाविक गुण हैं । इन गुणों का एक नेता में होना विशेष रूप से आवश्यक है।

क्रमशः....

Tuesday, September 10, 2013

राजपूत और भविष्य : 'वास्तविक नेतृत्व' भाग-2

भाग - 1 से आगे....
एक सफल और योग्य नेतृत्व के लिए सम्पूर्ण समाज का विश्वास प्राप्त करने के पूर्व अपने सहयोगियों और साथियों का विश्वास प्राप्त करना कहीं अधिक उपयुक्त है । वस्तुतः सहयोगियों और साथियों का क्षेत्र ही नेतृत्व की सफलता की पहली कसौटी है । जो व्यक्ति कुछ साथियों से विश्वास, प्रेम और सदभावना प्राप्त नहीं कर सकता वह समाज का विश्वास, उससे प्रेम और सदभावना भी प्राप्त नहीं कर सकता है । जिसकी आज्ञा में कुछ व्यक्ति ही चलने को तत्पर नहीं उस नेता की आज्ञा में सम्पूर्ण समाज कभी भी नहीं चल सकता है । इसी भाँती जो नेता अपने सहयोगियों और साथियों के साथ विश्वासघात कर सकता है वह समाज के साथ भी विश्वासघात कर सकता है । जिस नेता का अपने सहयोगियों और साथियों में भी आदर नहीं होता, उसका यदि समाज आदर करता भी है तो केवल अज्ञानता और रूढीवश । दुर्भाग्य से राजपूत समाज में इस प्रकार के नेता नामधारी प्राणी भी मिल जायेंगे, जिनमे किसी साथी एवं सहयोगी का तो विश्वास नहीं रहता पर समाज के कुछ अंश का विश्वास जरुर रहता है । समाज तो साधारतः किसी भी नेता के बाह्य व्यक्तित्व को देख कर ही प्रभावित होता है, उसकी स्वभावजन्य विशेषतायों और त्रुटियों को, आंतरिक कमजोरियों को और विशेषताओं को न तो वह देख सकता है और न ही समझ पाता है । यही कारण है कि आज बहुत से नेता वीरता और त्याग की खाल के नीचे कायरता और स्वार्थ के वास्तविक रूप को छिपा कर समाज का शोषण करते हैं । इन छद्दमवेशी नेताओं की पोल तो उनका निकटतम सहयोगी वर्ग ही जान सकता है । अतः किसी भी नेता की कार्य-क्षमता और गुणों का मुल्यांकन करने के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि उसके निकटतम सहयोगियों की दृष्टि में उसका वास्तविक मूल्य क्या है ?

जब कोई भी व्यक्ति समाज को अपने सिद्धांतों पर चलाने की अभिलाषा लेकर कार्यक्षेत्र में उतरता है तब पहले-पहल वह अकेला ही होता है । उस व्यक्ति का प्रथम कार्य-क्षेत्र केवल एक से दो, दो से तीन और तीन से चार होने तक सिमित रहता है । जब वह व्यक्ति दो, तीन अथवा चार व्यक्तियों का विश्वास, प्रेम अथवा अपने उद्धेश्य के प्रति उनकी अटूट निष्ठा प्राप्त कर लेता है तब इन कार्यों को उसके नेतृत्व की पूर्ण सफलता का पूर्व आभास समझ लेना चाहिए । और यदि किसी भी नेता को उसकी उद्देश्य प्राप्ति में योग देने वाले एक सौ कर्मठ त्यागी और निष्टावान सहयोगी प्राप्त हो जायें तो उसकी सफलता में किसी भी प्रकार के संदेह की गूंजाइश नहीं रहती है । समाज के सच्चे शुभचिंतक और वास्तविक नेता को सदैव व्यक्तियों के निर्माण की और ध्यान देना चाहिए । वह नेता ही क्या जिसे सदैव अपने ही साथियों से पददलित होने का खतरा बना रहता है । इस प्रकार क्षीण और अयोग्य नेतृत्व सदैव अपने ही साथियों को अन्धकार में रख कर, उनके सर्वांगीण विकास का उचित अवसर आने नहीं देता । वास्तव में योग्य नेता तो वह है जो अपने जीवनकाल में ही अपने जैसे हजारों व्यक्तियों का निर्माण कर दे । इस विषय में 'मेरी साधना' के इन वाक्यों को सदैव याद रखना चाहिए ।

"बीज के लघु आकार में छाया, शीतलता और मधुर फलदायी विशाल वृक्ष समाहित है इसलिए उसका महत्व नहीं है और इसलिए भी नहीं कि वह वृक्ष की उत्पत्ति का कारण है, वरन उसका महत्व इस बात में है कि उसमें अपने जैसे सैंकड़ों बीजों के निर्माण की शक्ति भरी पड़ी है।"

नेता के उद्देश्य और कार्य-प्रणाली के प्रति निष्ठावान होकर आने वालों की अपेक्षा पहले-पहल अधिक संख्या उन भावुक नवयुवकों की होती है जो केवल उनके बाह्य व्यक्तित्व से प्रभावित होकर ही सामाजिक-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं । जब इस प्रकार के नवयुवक पहले-पहल कार्य-क्षेत्र में आते हैं तब उनकी अपनी मनोभावनाएं, काल्पनिक सफलतायें और निजी और पारिवारिक समस्याएँ भी उनके साथ होती हैं । योग्य नेता वही होगा जो इन सब समस्याओं की गहराई में प्रवेश कर नवागंतुक व्यक्तियों का विश्वास संपादन कर सके । ऐसे व्यक्तियों की अन्य आवश्यकताएं तो सामाजिक ध्येय और प्रणाली के अंतर्गत आकर सामूहिक रूप से पूरी की जा सकती है पर उनकी निजी अथवा पारिवारिक समस्याओं को पृथक रूप से सुलझाने की आवश्यकता बनी रहती है ।

आज के राजपूत समाज में एक कार्यकर्ता की सबसे महत्वपूर्ण निजी पारिवारिक समस्या उदरपूर्ति की है । इस समाज में कर्मठ और योग्य व्यक्ति सदैव श्रमजीवी मध्यम-श्रेणी में से होते आये हैं । अब तक के अनुभव ने सिद्ध कर दिया है कि उदरपूर्ति की समस्या से निश्चिन्त धनवान व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र में कार्य करने में या तो सर्वथा अयोग्य सिद्ध होते हैं अथवा वास्तविक योग्यता के साथ तुलनात्मक परिक्षण के समय आत्म-लघुत्व की भावना से पराभूत होकर कार्य-क्षेत्र से हठ जाते हैं । जो मध्यमवर्गीय युवक किसी नेता के चारों और सामान्य ध्येय पूर्ति के निमित्त जीवन-दान देने के बदले ख़रीदा नहीं जा सकता । राजपूत समाज के अब तक के नेतृत्व ने सदैव यही प्रयास किया है कि इस प्रकार के लोगों की आत्मा को खरीद कर उन्हें अपना अनुयायी बनाया जाय । इसलिए ऐसे नेतृत्व के प्रति कर्मठ कार्यकर्ताओं की श्रद्धा घटती रहती है ।

यद्धपि नेता को अपने साथियों को प्रलोभन देकर या वेतनादि के बहाने अनुकूल बनाने का कभी भी प्रयत्न नहीं करना चाहिए तथापि उनकी व्यक्तिगत और पारिवारिक आवश्यकताओं का उसे सदैव ध्यान रखना चाहिए । जो व्यक्ति समाज के निमित्त अपने जीवन देने की अभिलाषा से कार्य-क्षेत्र में कूद पड़ते हैं, उनके बूढ़े माता-पिता और बाल-बच्चो के भरण-पोषण का उत्तरदायित्व नेता को स्वतः अपने ऊपर ले लेना चाहिए, जिससे से अपने साथियों में से अधिकतम व्यक्तियों के जीवन निर्वाह की समस्या पूर्ण अथवा आंशिक रूप से सुलझ सके। अपने सहयोगी कार्यकर्ताओं के स्वाभिमान और नैतिकता को अक्षुण रखते हुए नेता को उनकी आर्थिक विवशता और कठिनाइओं को दूर करना चाहिए । जो नेता यह नहीं कर सकता, उसमें और सब गुणों के होते हुए भी नेतृत्व के व्यावहारिक पक्ष का अभाव समझना चाहिए । अपने साथियों को सब प्रकार के उचित अभावों और आवश्यकताओं से मुक्त रखना योग्य नेतृत्व की व्यावहारिक कसौटी है ।

अपने सहयोगियों को आर्थिक चिंता और पारिवारिक समस्याओं से मुक्त रखने के निश्चित रूप से दो परिणाम होंगे । उनकी कार्यक्षमता बढ़ेगी, अनुशासन और उत्तरदायित्व के प्रति वे अधिक जागरूक होंगे और अनैतिक, अवसरवादी और पथ भ्रष्ट होकर उनके पतित होने का कम अवसर रहेगा । अपने साथियों को चिंता से मुक्त रखना स्वयं अपने को चिंताओं से मुक्त रखने और अपनी ही कार्य-कुशलता को बढ़ाने के समान है । निराशा और निरुत्साह, चिंतायें और समस्याएँ, असफलताएँ और पराजय उस नेता को कभी भी हतप्रभ नहीं कर सकती जिसे अनेकों चिंतामुक्त, प्रसन्न-चित्त और कर्मठ चेहरे सदैव घेरे रहते हैं ।

क्रमश :........

Monday, September 9, 2013

राजपूत और भविष्य : वास्तविक नेतृत्व - भाग-1

पांचवे अध्याय में राजपूत नेतृत्व की अयोग्यता पर कुछ प्रकाश डाल दिया गया है । राजपूत जाति के लिए नेतृत्व का प्रश्न अत्यंत ही महत्वशाली होने के कारण इस अध्याय में उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जायेगा तथा एक आदर्श और सच्चे नेतृत्व की कसौटी के रचनात्मक पहलुओं को ध्यान में रखा जायेगा ।

जब हम पतन और उत्थान के संधि स्थल पर खड़े होकर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने को पैर बढ़ाते हैं तब हमें सहसा जिस प्रथम आवश्यकता की अनुभूति होती है, वह है योग्य नेतृत्व। अन्तरावलोकन के अध्याय में बताया जा चुका है कि अब तक हमारी अधोगति का मुख्य कारण नेतृत्व रहा है। योग्य नेतृत्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध और स्वयं निर्मित्त होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रूपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती हैं। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी या रूढ़िवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। जैसा की बताया जा चुका है, राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतों का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षणभंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पालित और पोषित इस समाज के इन कुसंस्कारों को आज दूर करने की बड़ी आवश्यकता है।

कोई भी व्यक्ति तभी तक महान है जब तक वह महान सिद्धांतों को क्रियान्वित करने वाला, उन पर आचरण करने वाला रहता है । पर ज्यों ही व्यक्ति सिद्धांतों से पतित होकर अवसरवादी बन जाता है। जीवात्मा रहित मानव शरीर केवल मात्र एक शव रहता है, और सिद्धांत रहित मानव भी केवल एक तुच्छ मानव मात्र रह जाता है। हमें किसी का अनुकरण करने से पहले यह जान लेना और समझ लेना आवश्यक है कि हम अनुकरण किन्ही सिद्धांतों का कर रहे हैं या व्यक्ति का। सिद्धान्तहीन व्यक्ति का अनुकरण हमें न मालूम किस गर्त में गिराकर समाप्त कर सकता है, और न मालूम किन परिस्थितियों में डालकर हमसे दूषित और लज्जास्पद कार्य करा सकता है। अतएव योग्य नेतृत्व की प्रथम कसौटी है- नेता का स्वयं का सिद्धांतवादी होना । उसका स्वयं का एक निश्चित सैद्धांतिक ध्येय होना आवश्यक है। उसका प्रत्येक कार्य उन्ही सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए | ऐसी दशा में जब हम नेता के प्रति श्रद्धा और सम्मान दर्शाते हैं तब वह श्रद्धा और सम्मान उसके व्यक्तित्व के सैद्धांतिक पक्ष के प्रति ही होता है। जब कोई व्यक्ति सिद्धान्तहीन हो जाता है तब उसके जड़ व्यक्तित्व की पूजा की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। रूढ़िवादी और जड़बुद्धि समाज, ऐसी दशा में में नेता के जड़ व्यक्तित्व अर्थात उसके शारीरिक आकार-प्रकार वेश-भूषा, वंशगत कुलीनता और सामाजिक स्थिति का ही अनुकरण किया करता है, पर जागरूक और ज्ञानी समाज में इस प्रकार के नेतृत्व की सदैव के लिए मृत्यु हो जाती है। अतएव आवश्यकता इस बात की है कि हम व्यक्ति के स्थान पर सिद्धांतों की पूजा करना सीखें और उनका ही नेतृत्व स्वीकार करें। यहाँ पर हमें व्यक्ति-पूजा और वीर-पूजा के भेद को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए । जो व्यक्ति जीवनपर्यंत महान सिद्धांतानुसार आचरण करके अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देता है, अथवा अपने सिद्धांतों की रक्षा में प्राण विसर्जन करता है, वही व्यक्ति वीर की संज्ञा से आभूषित किया जा सकता है। ऐसे वीरों की पूजा करना हिन्दू संस्कृति की विशेषता है, पर जीवित व्यक्ति की पूजा करके उसका अन्धानुकरण हमें कदापि नहीं करना चाहिए ।

केवल मात्र सिद्धांतों की गठरी के भार को सिर पर ढ़ोने वाला व्यक्ति भी नेता नहीं हो सकता। आज समाज में ऐसे निष्क्रिय व्यक्तियों की कमी नहीं है जिनके छोटे से मस्तिष्क में अविरल रूप से टॉलस्टॉय, सुकरात और अरस्तु के दार्शनिक सिद्धांत चक्कर लगाया करते हैं, प्लेटो, रूसों, मार्क्स और लेनिन की राजनैतिक विचारधाराएँ जिनके बोद्धिक धरातल को मल्ल-युद्ध का अखाडा बनाये हुए हैं, शुक्र विदुर और चाणक्य नीति के श्लोक जिनकी जिव्ह्या की अग्रगणी पर सदैव नाचते रहते हैं और वेदों, उपनिषदों के सिद्धांत-वाक्य जिनकी अद्भुत स्मरण शक्ति की साक्षी देते रहते हैं । संसार भर के वादों विचारधाराओं और सामाजिक और राजनैतिक क्रांतियों की पृष्ठ भूमि और इतिहासों को नेता के लिए के लिए जानना उतना आवश्यक नहीं है जितना अपने अनुयायियों के मनोवैज्ञानिक स्तर को समझ कर व्यवस्थित प्रणाली द्वारा उनके पथ-प्रदर्शन की व्यावहारिकता को जानना आवश्यक है। आज राजपूत समाज में इस प्रकार के नेताओं की कमी नहीं है जो समाज की सांस्कृतिक, रूढिगत राजनैतिक, आर्थिक और परिस्थिति जन्य विशेषताओं और आवश्यकतों को समझे बिना ही अपने-अपने नेतृत्व की भूख को शांत करना चाहते हैं। जब अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली वाले इन नेताओं के कार्यों का प्रथम प्रयास विफल हो जाता है तब समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर, उसके प्रति घृणा और क्रोध को लेकर ऐसे नेताओं के नेतृत्व का दीपक सदैव के लिए बुझ जाता है। वास्तव में समाज कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। वह महात्मा किस काम को जो केवल केवल अमृत की बातें तो करता है पर उसका आस्वादन नहीं करा सकता और वह नेता भी किस काम का जो केवल सिद्धांतों के बातें तो कहता है पर उन्हें समाज-जीवन में रूपांतरित कर सामाजिक ध्येय की पूर्ति के लिए व्यावहारिक मार्ग प्रस्तुत करने की क्षमता नहीं रखता|

क्रमश:..........

Sunday, September 8, 2013

राजपूत और भविष्य : अन्तरावलोकन भाग- 5

भाग 4 से आगे..........

राजपूत जाति में स्त्री-शिक्षा की तो और भी दुर्गति है| अनपढ़, अन्धविश्वासी और अज्ञानी माताओं द्वारा पोषित और संस्कृत संतानें समाज के लिए वरदान स्वरूप कैसे हो सकती है? आजकल कुछ संपन्न घराने की बालिकाओं को पाश्चात्य पद्धति की शिक्षा देने के लिए कई इसाई मिशनरी स्कूलों में भर्ती कराया जाता है| इस प्रकार की शिक्षा के दुष्परिणाम दिनों दिन दिखाई पड़ रहे है| इस प्रकार की कुसंस्कारजन्य शिक्षा से तो स्त्रियों को अशिक्षित रखना कहीं अधिक श्रेयष्कर होगा| स्त्री-शिक्षा इस समय समाज की बड़ी आवश्यकता और युग की प्रभावशाली मांग है| इस विषय की और गम्भीरतापूर्वक सोचना आवश्यक है| सामाजिक रुढियों में सबसे भयंकर टीका और कन्या-विक्रय की प्रथाएँ है| इन प्रथाओं के कारण अनमेल, वृद्ध आदि विवाह होते रहते अहि| विवाह बंधन विशुद्ध प्रेमतत्त्व के आधार पर न होकर आर्थिक परिस्थिति के आधार पर होता है| इससे कई प्रकार की पारिवारिक विषमतायें और व्यक्तिगत कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती है| कतिपय राजपूत परिवारों द्वारा शारीरिक कार्य के प्रति घृणा करना भी एक रूढी है| श्रम प्रधान इस युग में श्रम से घृणा करके कोई जीवित नहीं रह सकता| इस समाज-वादी युग में अब श्रम करके जीविकोपार्जन करना आवश्यक हो गया है| अतएव शारीरिक श्रम और उधम इस युग में गौरव की वस्तु अहि, लज्जा की नहीं| जिन परिवारों की स्त्रियाँ रूढीवश श्रम से घृणा करती है, आज के इस प्रतिस्पर्धा और उत्पादन के युग में उनकी दयनीय और असहाय दशा होना अवश्यम्भावी है| अनैतिक कार्यों से सदैव घृणा करनी चाहिये, शारीरिक उद्धम से नहीं|

किसी भी जाति की आंतरिक कमजोरियां तभी प्रकाश में आती है जब वह जाति प्रगति के पैर पर कदम रखती है| निंद्रितजाति की आंतरिक कमजोरियां केवल विचारकों के मनन और विवेचन आदि की वस्तुएं होती है| पर प्रश्न यह है कि जब राजपूत जाति प्रगति के मार्ग पर अग्रसर होने लगे तब उसका गंतव्य स्थान कहाँ और क्या हो? बिना लक्ष्य के प्रगति का कुछ भी तात्पर्य नहीं होता| एक जीवित और प्रगतिशील जाति के सामने अवश्य जातिय और सामाजिक लक्ष्य होना चाहिये और वह लक्ष्य ऐसा सर्वव्यापी और परिपूर्ण होना चाहिये जिसके अंतर्गत जाति का राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक लक्ष्य स्वत: ही आ जाये| राजपूत जाति का क्या लक्ष्य होना चाहिये? इस प्रश्न पर आगे प्रकाश डाला जायेगा| पर इस समय देखना यही है कि गत सैकड़ों वर्षों से समस्त राजपूत जाति लक्ष्य-भ्रष्ट और लक्ष्य-विहीन होकर अन्धकार में भटक रही है| उसका सैंकड़ों वर्षों से एक सर्वमान्य लक्ष्य कभी नहीं रहा| लक्ष्य की एकता संगठन की प्रथम और आवश्यक शर्त है, अतएव सर्वमान्य और स्वाभाविक लक्ष्य के अभाव के कारण ही राजपूत जाति अब तक छिन्न-भिन्न और असंगठित रही है|

जब हम सामाजिक उद्देश्य की कल्पना करते है तब निश्चित ही उसमें कुछ ऐसे शाश्वत गुण होने चाहिये जो देश, काल और परिस्थिति-निरपेक्ष हो| केवल सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली वस्तु सामाजिक लक्ष्य न होकर साधन-मात्र ही कही जा सकती है| लक्ष्य सदैव सत्य, सकारात्मक और महान होना चाहिये|

राजपूत इतिहास पर दृष्टिपात करें तो ज्ञात होगा कि सैंकड़ों वर्षों से इस जाति के सामने कोई भी शाश्वत, गुण-संपन्न और सकारात्मक लक्ष्य नहीं रहा है| जो कुछ भी राज्यादी उनके पास बचे थे, उनकी येनकेन प्रकारेण रक्षा करते रहने में ही राजपूतों ने अपने लक्ष्य की इतिश्री समझ ली| इस प्रकार के रक्षात्मक कार्य सदैव ही खतरों से भरे रहते है| विकासोन्मुख समाज की प्रथम पहचान सामाजिक महत्वाकांक्षा की चलायमान और क्रियान्विति करते रहने की उसकी क्षमता से होती है और पतनोन्मुख समाज की भावना अन्तर्निहित रहती है| आक्रमणात्मक नीति के स्थान पर केवल रक्षात्मक नीति अपनाने का तात्पर्य है प्रगति के स्थान पर पतन को स्वीकारना| रक्षात्मक कार्यों में उच्च कोटि के वीरत्त्व की अभिव्यंजना होती है, पर पराक्रम का उनमें नितांत अभाव रहता है और बिना पराक्रम के महान जाति और राष्ट्र के रूप में अधिक दिनों तक जीवित नहीं रहा जा सकता| गत सैकड़ों वर्षों से राजपूत इसी प्रकार के रक्षात्मक कार्यों में लगे रहे| परिणाम यह हुआ कि न तो वे अपने हितों की रक्षा ही कर सके और न ही कोई नई चीज प्राप्त कर सके| जब हम विरोधी शक्ति के प्रति प्रहारात्मक नीति नहीं अपनायेंगे तब तक साधारण रक्षात्मक कार्य भी असफल सिद्ध होते रहेंगे| रक्षात्मक कार्यों के असफल सिद्ध होने से निराशामूलक प्रवृति का जन्म होता है, पर प्रहारात्मक नीति के एक बार असफल हो जाने पर समाज की विशेष हानि नहीं होती और न निराशा मूलक स्थिति ही उत्पन्न होती है| भविष्य में हमारे कार्यक्रमों और नीति का लक्ष्य विरोधी शक्ति के सिद्धांतों और नीति पर निरंतर और भीषण प्रहार करना होना चाहिये| चारों और से विरोधियों पर प्रहार पर प्रहार करके उनको अपनी रक्षा की चिंता में रक्षात्मक स्तर पर उतर आने के लिए विवश करना बहुत अब्दी सफलता होगी|

वे तब तक हमारे ऊपर प्रहार करते हुए बंद नहीं होंगे जब तक उनकी स्वयं की स्थिति और प्रभाव को क्षति पहुँचने का भय उत्पन्न न होगा| इस प्रकार रक्षात्मक से प्रहारात्मक बनने से सुरक्षा की स्थिति ही बनी रहेगी और साथ के साथ नई सफलता-प्राप्ति से उत्साह और साहस भी बने रहेंगे| अतएव हमारे भावी कार्यक्रमों की प्रवृति और प्रकृति प्रहारात्मक होनी चाहिये|

उद्देश्य-प्राप्ति की सफलता अथवा असफलता उस उद्देश्य तक पहुँचने के ढंग पर निर्भर होती है| राजपूत जाति ने अपने ध्येय की सिद्धि के लिए जो कुछ भी अब तक किया वह योजनाबद्ध नहीं था| केवल भावुकता तथा किन्ही परिस्थितियों के वशीभूत किया गया कार्य सुनिश्चित और सुविचारित योजना का अंग नहीं कहा जा सकता| प्रत्येक कसौटी और पहलू पर गम्भीरतापूर्वक सोच-विचार कर कसा गया और किया गया कार्य नि:संदेह निश्चित फलदायी होता है| अतएव आवश्यकता इस बात की है कि इन कमियों को पूरा करके समाज के सामने एक निश्चित ध्येय रखा जाय और उस ध्येय तक पहुँचने के लिए एक वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक और निश्चित प्रणाली रखी जाय|