Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ३ (राजपूत और भविष्य)

भाग -२ से आगे
वर्ण-व्यवस्था का आधार, मनुष्य की जन्मजात प्रवर्ति और प्रकर्ति होने के कारण, इसके अनुसार कार्य का विभाजन अत्यंत ही मनोवैज्ञानिक रूप से हुआ है. वंशानुगत, परम्परागत और स्वभाव के अनुकूल होने के कारण मनुष्य शीघ्र ही अपने-अपने कार्यों में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं. न समाज में बेकारी की समस्या रहती है और न वर्ग-द्वेष ही. सबके सामने जन्म से ही धंधा रहता है. इसीलिए किसी को भी अपने पैतृक अधिकारों से च्युत करने कि आश्यकता नहीं रहती। प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ती की इसमें गारंटी रहती है। शिक्षा का आधार प्रकर्ति, स्वभाव और सहज प्रवर्तियों को मान कर मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा और काम देने के कारण प्रत्येक उन्नत राष्ट्र आज ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से वर्ण-व्यवस्था कि वैज्ञानिकता को अपना रहा है, पर आश्चर्य इस बात का है कि इस व्यवस्था का आदि स्रष्टा भारत इस व्यवस्था से दिनोदिन दूर हटता जा रहा है।

वर्ण-व्यवस्था की व्यवहारिकता, सरलता, वैज्ञानिकता और सर्वहितकारिता तब तक समझ नहीं आ सकती, जब तक हम आर्य-धर्म के अंतर्गत कर्मवाद को अच्छी प्रकार से समझ नहीं लेते। आर्य-दर्शन के अनुसार कर्म मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिया गया दायित्व है. यदि मनुष्य अपने इस दायित्व को कुशलतापूर्वक पूर्ण कर देता है, तो वह अपने अस्तित्व की सार्थकता को पूर्ण कर लेता है. मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिये गये इस दायित्व के अंतर्गत ही उसके इस लोक और परलोक सम्बन्धी सब कर्म और कर्त्तव्य आ जाते हैं. शेष उसके लिए करने को कुछ भी नहीं रहता। इस दायित्व को पूरा करने अथवा न करने, इससे त्यागने या अपनाने में मनुष्य स्वतंत्र अवश्य रहता है पर अपने कर्मो का फल वह अपनी इच्छा के अनुरूप ही प्राप्त करे, यह उसके वश की बात नहीं होती। वह फल भोगने में परतंत्र रहता है. अतएव जिस फल रुपी वस्तु पर उसका कोई अधिकार ही नहीं, उसकी चिंता किये बिना ईश्वर द्वारा सोंपे हुए कार्य को कर्त्तव्य समझ कर करते रहना ही निष्काम-कर्मयोग का सिद्धांत है। इस सिद्धांत से दो बातें प्रतिपादित होती हैं-प्रथम यह कि यह कार्य ईश्वरप्रदत्त कार्य है. अतएव इसको करना हमारा परम कर्त्तव्य है. जब एक मनुष्य किसी उच्चाधिकारी या मालिक द्वारा बताये हुए कार्य को उसे खुश करने के लिए पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करता है तब वह सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए उसका कार्य क्यों नहीं पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करेगा। नेपोलियन के वीर सिपाहियों कि यह तीर्व इच्छा रहती थी कि एक बार वह उनकी और देख ले, फिर तो वे धधकती हुई अग्नि में भी कूद पड़ेंगे - एक बार नेपोलियन उन्हें नाम से सम्बोधित करके आज्ञा दे दे, फिर तो वे काल से भीड़ जायेंगे। जब नेपोलियन के सिपाही अपने लौकिक मालिक के प्रति इतने सच्चे और कर्त्तव्यशील थे तब हम अपने सर्वशक्तिमान मालिक के प्रति क्यों नहीं सच्चे और कर्त्तव्यशील हों. इस प्रकार कर्म को ईश्वरीय आदेश समझ कर, ईश्वरीय इच्छा की पूर्ती के निमित पूर्ण करने से किसी भी प्रकार की रुकावट, अव्यवहारिकता, बेईमानी और बहानेबाजी सामने नहीं आ सकती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य द्वारा सौंपे गए दायित्व से तो छिप कर अथवा झूठ बोल कर बच सकता है पर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी ईश्वर द्वारा दिए गए दायित्व से वह कैसे बचेगा? कर्मवाद में जो दूसरी बात प्रतिपादित होती है वह है फल भोगने में परतंत्रता। जो हम कार्य करते हैं उनका फल मिलेगा तो अवश्य, पर वह फल हमारी इच्छा के अनुरूप ही होगा, यह आवश्यक नहीं है. इस सिद्धांत को हृदयंगम कर लेने से पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, छीना-झपटी और वर्ग-संघर्ष आदि कभी भी नहीं होंगे। मनुष्य जो कर्म करता है, उसके लिए जो कुछ फल उसे ईश्वरीय विधान के अंतर्गत मिलता हो, वह मिल कर रहता है. इस प्रकार कि सांसारिक धारणा बना लेने के उपरांत असंतोष नाम की कोई वास्तु नहीं रहती। असंतोष ही दुःख है.

कर्मवाद के ये ही दो पहलु वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक कार्य और प्रणाली को नियन्त्रित और परिचालित करते रहते हैं. इन सिद्धांतो को मानकर नहीं चलने से वर्ण-व्यवस्था या अन्य कोई भी व्यवस्था सफल, व्यावहारिक और स्थाई नहीं हो सकती। वर्त्तमान समाज-गठन उसके संस्कार और वातावरण इस व्यवस्था को प्रचलित करने के लिए उपर्युक्त नहीं है. इस व्यवस्था को प्रचलित करने के पूर्व वर्षों पर्यन्त अनुकूल सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना पड़ेगा। शिक्षा, संस्कारों और विधि-नियमों द्वारा मनुष्यों के नैतिक और चारित्रिक स्तर को इस धरातल तक उठाना पड़ेगा, योजनाबद्ध रूप से एक सामाजिक क्रांति का आह्वान और आयोजन करना पड़ेगा, वर्त्तमान पीढ़ी के विकृत संस्कारों और मानसिक धरातल को सुधार कर तथा विकसित करके नवीन साँचे में ढालना होगा और नई पीढ़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से नई व्यवस्था के लिए तैयार करना पड़ेगा। तभी जाकर इस व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करने की क्षमता और कौशल का प्रादुर्भाव हो सकेगा।

वर्ण-व्यवस्था और उसके द्वारा कार्य संचालन की तुलना में आज का प्रजातन्त्रवाद अत्यंत ही अभावग्रस्त एवं अपूर्ण व्यवस्था है. वास्तव में प्रजातन्त्रवाद को मूर्खवाद कहना चाहिए, क्योंकि यह बहुमत का शासन होता है और बहुमत बहुधा मूर्खों का ही हुआ करता है. भारतीय प्रजातन्त्रवाद को तो हम निश्चित रूप से मूर्खवाद कह सकते हैं. राज्यों की धारासभाओं और संसद में ऐसे व्यक्तियों का बाहुल्य है जो विधान अथवा कानूनी बारीकियों को लेशमात्र भी नहीं समझ सकते। जिन पर कानून द्वारा देश का भाग्य-निर्माण करने का दायित्व हो वे यदि कानून के प्रारंभिक ज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांतों से ही शुन्य हो तो यह देश के लिए कितने दुर्भाग्य की बात है. कुछ मनचले बुद्धिजीवी लोग इस प्रकार के अज्ञानी और स्वार्थी लोगों को आगे करके स्वार्थों की सदैव पूर्ति किया करते हैं. भारतीय जनता का अस्सी प्रतिशत अंग ऐसा है जो स्वयं राजनैतिक दृष्टि से उचितानुचित का निर्णय नहीं कर सकता। वह प्रलोभन, भय, अज्ञान और दबाव के कारण सदैव से ही पथ-भ्रस्ट होते आया है. साधन-संपन्न, प्रचार-पट्टू, पेशेवर, बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों का गिरोह इसी प्रकार की निर्धन, भोली, अज्ञानी, भावुक और कर्त्तव्या-कर्त्तव्य के प्रति अचेत जनता से अधिक मत प्राप्त कर लेते हैं और इसी बहुमत के आधार पर वे केंद्र और प्रांतों में सरकारें बनाकर देश के पूर्ण भाग्य-विधाता बन बैठते हैं.

इसी प्रकार की स्थिति से अनैतिकता और अनाचरण कि सृष्टि होती है. भारत में वर्त्तमान समय में प्रचलित चुनाव-प्रणाली अनैतिकता और भ्रस्टाचार का एक ठोस और ज्वलंत उदाहरण है. सत्तारूढ़ दल द्वारा भय, प्रलोभन, दबाव, और हथकंडों से अशिक्षित, गरीब, रूढ़िवादी और उदासीन जनता से मत प्राप्त करना सरल अवश्य है, पर इससे मतदाताओं का नैतिक स्तर जिस सीमा तक गिरता जा रहा है, वह चिन्तनीय है. एक और मतदान होने जा रहा है, दूसरी और सत्तारूढ़ दल द्वारा जलबोर्ड के रूपये बाँटे जाते हैं, पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सड़कों का काम शुरू कराया जाता है, पंचों और मुखियाओं को तकाबी के रूपये दिए जाते हैं और इसी प्रकार विकास और तरक्की के नाम पर मतदाताओं को प्रलोभन दिया जाता है. पंचवर्षीय योजना, निर्माण और विकास के कार्यों पर जितना धन आम चुनाव अथवा ज़िला बोर्ड, तहसील आदि चुनावों के कुछ महीने पहले से और उन चुनावों के समय खर्च किया जाता है उतना धन कदाचित कुछ स्थायी योजनाओं के अतिरिक्त पूरे पाँच वर्षों में भी खर्च नहीं किया जाता। देश के बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में पंचवर्षीय योजना आज चुनाव जीतने का एक हथकंडा मात्र समझी जेन लगी है. विकास और निर्माण की योजनाओं में और अन्य सभी प्रकार से खर्च होने वाला धन भारत के समस्त नागरिकों का है. उसे केवल एक संस्था विशेष को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च करना एक और जहाँ सत्ता का दुरूपयोग है दूसरी और वह भारत के समस्त करदाताओं के साथ विश्वासघात भी है. ठीक इसी समय विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले मतदाताओं और उमीदवारों पर मुकदमों और कुर्की का भूत सवार किया जाता है.

कानून में एक उमीदवार द्वारा चुनावों में खर्च की जाने वाली धन राशि सीमित है, पर संस्था द्वारा किसी एक व्यक्ति के धरा-सभा के चुनाव के लिए यदि एक लाख (या फिर करोड़ों) भी खर्च कर दिए जाते हैं तो उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। आज की सत्तारूढ़ संस्था भ्रस्टाचार और अनैतिकता का खुल्लम-खुल्ला अड्डा है. वह पूंजीपतियों, व्यवसाइयों, राजा-महाराजाओं और उन सबसे जो सत्ता का सहारा पाकर अनुचित रूप से मालामाल हो रहे हैं, लाखों रूपये चंदे के रूप में वसूल करती है. पूंजी-पतियों को चुनाव के टिकट बेचे जाते हैं. यह अतुल धन-राशि चुनावों के समय अपनी संस्था को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च की जाती है. एक-एक कांग्रेसी धारासभाई उमीदवार चुनाव के समय 10 - 15 (आज 100 -200) मोटर-गाड़ियों का प्रबंध और 50-60(आज कल करोड़ों) हज़ार तक रूपये खर्च कर देता है. बेचारे विरोधी उम्मीदवारों के पास इससे शतांश भी सुविधायें नहीं रहती। जितने रूपये एक व्यक्ति द्वारा चुनाव जीतने के लिए खर्च किये जाते हैं, उससे कई गुणा अधिक सत्तारूढ़ होने के उपरांत कमा लिये जाते हैं। यह कमाई खून-पसीने की न होकर नि:संदेह बेईमानी और भ्रस्टाचार की होती है. कांग्रेसी उम्मीदवारों द्वारा आम-चुनावों में इस प्रकार अन्धाधुन्ध खर्च करने के कारण प्रत्येक मतदाता अपने मत को बेचना चाहता है. गांवों के भोले लोग जो कुछ वर्ष पहले रिश्वत देना और लेना एक नैतिक अपराध समझते थे, वे अब प्रत्यक्षतः रिश्वत लेकर वोट देने के अतिरिक्त अब दूसरी भाषा में बोलते भी नहीं हैं. चुनाव अब इस प्रकार के मतदाताओं के लिए कमाई का एक उपाय बन गया है. इससे देशव्यापी अनैतिकता और भ्रस्टाचार को जो प्रोत्साहन मिलता है, वह अकथनीय है। जो संस्था चंदे आदि के रूप में दूसरों से रिश्वत लेकर उसे अनैतिक ढंग से खर्च करती है वह अपने सदस्यों को रिश्वत लेने और अनैतिकता से चुनाव जीतने से रोक भी कैसे सकती है. इसी भाँती सरकारी कर्मचारियों के दबाव और प्रभाव को जिस रूप में काम में लिया जाता है, वह भी कम अशोभनीय नहीं है. आज से दस वर्ष पूर्व भारत का सामान्य नागरिक यह कल्पना भी नहीं करता था कि सत्य और नैतिकता के पुजारी गाँधीजी और नेहरूजी की कांग्रेस सत्ता-प्राप्ति के लिए इतने निम्नस्तर तक उतर आवेगी। इसे प्रजातन्त्रवाद कि अपूर्णता कहा जाय अथवा उसका दुर्भाग्य?

जो व्यक्ति केवल प्रजातन्त्रवाद के आकर्षक सिद्धांतों की परिधि में ही सोचते हैं और उसके व्यावहारिक स्वरुप का चिंतन नहीं करते उनके लिए प्रजातन्त्रवाद शासन-प्रणाली सर्वश्रेष्ट हो सकती है, पर प्रजातंत्र के लुभावने सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरुप को देख लेने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि प्रजातंत्र के सिद्धांत या तो व्यावहारिक सत्य का बाना पहन ही नहीं सकते या व्यावहारिक सत्य तक पहुँचते-पहुँचते वे अपना मौलिक स्वरुप स्थिर न रख सकने के कारण अत्यंत ही विकृत और दूषित हो जाते हैं. सिद्धांतत: यह शासन-प्रणाली उत्तम कही जा सकती है पर व्यवहारत:इसमें कई दोषों का पनप जाना अवश्यम्भावी है.

क्रमश :........

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