Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- २ (राजपूत और भविष्य)

भाग-१ से आगे....
क्षात्र-धर्म अपने को राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं में आबद्ध नहीं रखता। भलाई, सत्य, न्याय, धर्म आदि कहीं भी, किसी भी राष्ट्र में क्यों न हो, वे रक्षणीय हैं और बुराई, अन्याय, असत्य, अधर्म आदि कहीं भी क्यों न हों वे सब ताड़नीय और दण्डनीय हैं। बुराई आदि असाधु प्रवर्तियाँ चाहे स्वराष्ट्र में हों अथवा पर-राष्ट्र में, चाहे स्वजाति में हों अथवा पर-जाति में, उनके विनाश के लिए क्षात्र-वृति को सदैव तत्पर रहना चाहिए और इसी भांति भलाई और साधू-वृत्तियाँ चाहे जिस राष्ट्र अथवा जाति में हों, क्षात्र-वृत्ति द्वारा वे रक्षणीय है। आज हम राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता के रूप में न सोच कर सत्य अथवा भलाई की स्थापना और उन्नती के रूप में सोचने लग जाएँ तो संसार का राग-द्वेष और तनाव बहुत कुछ मात्रा में कम हो सकता है. इस प्प्रकार कि राष्ट्र-निरपेक्ष भावना से जहाँ एक और राष्ट्रीयता के दुर्गुणो से बचाव होता है, वहाँ दूसरी और युद्ध के समय केवल असत्य और बुराई के पक्ष-पोषक लोगों का ही विनाश होता है. तब न सर्व-विनाशकारी आणविक अस्त्रों के निर्माण की आवश्यकता रहती है और न ही उनके प्रयोग और नियंत्रण की ही। यही राष्ट्र, जाति संप्रदाय-निरपेक्ष-परम्परा क्षात्र-परंपरा है। अतः क्षात्र-परंपरा के उत्थान की आज के इस अशांति और अविश्वास के युग में संसार-कल्याण के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है. पर उन्नती कि व्यवहारिक उपलब्धि के लिए राष्ट्र का अस्तित्व आज आवश्यक हो गया है. जब राष्ट्र का अस्तित्व आवश्यक है तब उसके प्रति किसी न किसी रूप में जिम्मेवारी और कर्त्तव्य भी आवश्यक है. तात्विक दृष्टि से क्षात्र-धर्म को समझने से ज्ञात होगा कि इस प्रकार सब बुराइयों से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म के अंतर्गत ही आ जाता है. इस प्रकार कि बुराइयों और अपूर्णताओं से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म का ही एक पोषक अंग है. फिर भी ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र-निरपेक्ष धर्म हो सकता है पर धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र नहीं।

इसी प्रकार क्षात्र-परंपरा एक मजहब-निरपेक्ष परंपरा है. आर्य-धर्म का दृष्टिकोण इतना व्यापक और विशाल है कि उसे वास्तव में मानव और प्राणी-धर्म कहना चाहिए। इस आर्य-धर्म के अंतर्गत क्षात्र-परंपरा तो किसी भी भांति के मजहबी बंधन को स्वीकार नहीं करती। स्वधर्मी और स्वजाति की बुराई, अन्याय आदि क्षात्र-वृति द्वारा दंडनीय और परधर्मावलम्बियों की भलाई की भलाई और न्याय की वृतियाँ रक्षणीय हैं. क्षात्र-परंपरा हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध आदि के दृष्टिकोण से न देखकर भलाई और बुराई के दृष्टिकोण से सदैव देखती है. यही कारण है कि क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत मुसलमानों आदि विधर्मियों की रक्षा करने में सर्वस्व तक का बलिदान किया गया है. दीन,असहाय, शरणागत, सज्जन और साधू चाहे जिस देश, जाति, धर्म के क्यों न हों, क्षात्र-परंपरा द्वारा वे सदैव रक्षणीय और अभिमानी, दुष्ट और आततायी चाहे जिस जाति, देश, धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सदैव दण्डनीय है। इतनी उदार परंपरा संसार के किसी भी धर्म के अंतर्गत नहीं हो सकती। इसी भाँति क्षात्र-परंपरा किसी व्यक्ति विशेष का भी पक्षपात नहीं करती। अधर्मी व्यक्ति चाहे पितामह, पिता, गुरु, चाचा, मामा, भाई, पुत्र, पौत्रादि ही क्यों न हो वे सब दण्डनीय हैं। यह परंपरा किसी परिस्थिति-विशेष के उत्पन्न होने से पैदा नहीं होती, वरन यह एक साश्वत परंपरा है जो सब गुणो और परिस्थितियों में समान रूप से महत्वदायी है।

अतः क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत न्याय और सत्य, देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति और मजहब-निरपेक्ष है। वे सब के लिए सब युगों में, सब मजहबों में और देशों में समान रूप से प्राप्य है. वास्तव में क्षात्र-धर्म के अंतर्गत चेष्टाएँ ईश्वरीय विधान में सहायक होने वाले कर्म हैं और इसलिए क्षात्र-धर्म ईश्वरीय-धर्म, ईश्वरीय-विधान, सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय, सर्व-कल्याणकारी योजना है।

इस क्षेत्र-परंपरा की पुनः स्थापना का वास्तविक अर्थ है वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना। केवल वर्णाश्रम धर्म ही ऐसी योजना है जो भारत के लिए सर्वश्रेष्ट हो सकती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत सत्ता किसी एक के हाथ में संगृहीत न होकर उसका पूर्ण और संतुलित विभाजन रहता है. अतः निरंकुश और सत्ता के दुरूपयोग का कभी अवसर ही नहीं आता. आज की धारा-सभाओं और संसदों आदि का कार्य वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उन लोगों के हाथ में रहता था जो सांसारिक कार्यों में पूर्ण पक्षपातरहित, निर्लिप्त और व्यक्तिगत रूप से पूर्ण तटस्थ रहते थे। इससे कभी ऐसे कानून बनाये ही नहीं जा सकते जो अन्यायपूर्ण, एक-पक्षीय और किसी व्यक्ति या दलगत स्वार्थों की पूर्ति करने वाले मात्र हों. आक का प्रजातंत्र बहुमत द्वारा संचालित होता है. व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुमत अल्पमत के प्रति सदैव आततायी और आक्रमणकारी रहता है। इसलिए प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत को सदैव बहुमत की चक्की में पिसते रहना पड़ता है। पर वर्णाश्रम-व्यवस्था के अंतर्गत बनने वाले प्रत्येक कानून का आधार बहुमत न होकर शास्त्र होता है. शास्त्रोक्त आधार का अर्थ है सत्य, न्याय और समानता के शाश्वत सिद्धांतों का आधार। यदि हम शास्त्रों को ईश्वर-कृत न भी मानें तो भी उनके निर्माता ऐसे महापुरुष थे जिनका अनुभव और ज्ञान, चिंतन और मनन और जिनकी पक्षपात-रहित सर्व कल्याणकारी भावना आज के धारा-सभाई और संसद के सदस्यों से लाखों गुना बढ़कर थी। इस प्रकार शास्त्रों को आधारभूत मान कर, शाश्वत सिद्धांतों को आधारभूत मान कर पूर्ण त्यागी, तपस्वी, विद्वान, सत्ता के मोह से सर्वथा उदासीन, सांसारिक कार्यों से निर्लिप्त और तटस्थ सर्वभूतों का कल्याण चाहने वाले ब्रह्मणो के हाथों से राष्ट्र के विधान और कानून बनाने का दायित्व आजाने से न कभी जल्दबाज़ी का भय रहता है, न पक्षपात का और न किसी के अहित व् अकल्याण का ही. इसी भांति आज कि कार्यपालिका (Executive) अथवा शासन सञ्चालन का दायित्व क्षत्रियों पर रहता है. क्योंकि उनको मनमाने ढंग से कानून बनाने का किंचित मात्र भी अधिकार नहीं होता। अतः ब्रह्मणो द्वारा निर्मित कानूनों को निरपेक्ष और निर्लिप्त भाव से कार्यान्वित करना मात्र उनका कर्त्तव्य रहता है. आज की संसदीय प्रणाली (Parliamentary Democracy) के अनुसार कानून बनाने और उसे कार्यान्वित करने का अधिकार एक ही दल के हाथों में होने के कारण बड़ा अनर्थ होता है. एक ही दल के हाथ में दोनों कार्य आ जाने के कुछ प्रशासनिक सुविधाएँ तो अवश्य प्राप्त हो जाती हैं पर इससे व्यक्तिगत और दलगत भावना और भ्रस्टाचार का बोलबाला हो जाता है. इस प्रकार का बहुमत-प्राप्त साल सैद्धांतिक आधार पर स्थापित अल्पमत को तो कुचल ही डालता है. भारत जैसे देश में इस प्रणाली द्वारा अल्प-मतों को किसी भी दशा में न्याय नहीं मिल सकता। पर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विधि-निर्माण और उसका प्रयोग सर्वथा दो पृथक-पृथक घटकों के हाथ में होने के कारण शासक-दल का आततायी, भ्रष्टाचारी, निरंकुश, और संकुचित मनोवृति युक्त होने का खतरा कभी भी पैदा नहीं होता है. इसी भांति अर्थ का उत्पादन व् वितरण भी शासक वर्ग क्षत्रिय के हाथ में नहीं रहता इससे वह कभी भी सर्व-शक्ति संपन्न प्रभु नहीं बन सकता। क्षत्रियों का शासन-संचालन के निमित अर्थ के लिये सदैव वैश्य पर अवलम्बित रहना पड़ता है. कानून बना कर किसी भी सम्पत्ति या धन पर अधिकार करने का उसको अधिकार होता ही नहीं। इसलिए क्षत्रिय कभी भी अपनी सत्ता का दुरूपयोग नहीं कर सकता। ऐसे ही हाथों में न्याय रहने से सब को पक्षपात रहित न्याय मिल सकता है. वास्तव मने न्यायपालिका और न्यायाधीशों को पूर्ण निर्लिप्त और सर्वोच्च सत्तावान होना चाहिए। आज के प्रजातंत्रीय देशों तक में न्यायधीशों की चोटी बहुमत-प्रधान शासक-दल के हाथों में होती हैं. इसलिए आज की न्याय-पालिकायें न स्वतंत्र हैं, न निर्लिप्त, न पक्षपातरहित और न सर्वोच्च सत्ता-संपन्न ही। आज का युग अर्थ-प्रधान युग है. जिनके हाथों में अर्थ का उत्पादन है वे सर्वेसर्वा बन सकते हैं. पर वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत यह शक्ति भी पनप नहीं सकती, कारण कि अर्थ का उत्पादन जिन वैश्यों के हाथों में होता है उनके हाथों में न तो कानून बनाने वाले पूर्ण त्यागी और तपस्वी ब्राह्मणों को खरीदने की ही सामर्थ्य होती है, न शक्तिशाली क्षत्रियों से सत्ता छीनने की शक्ति। आज के युग में जिस प्रकार बनियों ने कानून-निर्माता बहुमत दल के नेताओं को खरीद रखा है वैसे वे वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मणों को खरीद कर अपने पक्ष में कानून नहीं बना सकते।

सेवा और श्रम का कार्य शूद्रों के दायित्व में रहता है, पर चूँकि उनके हाथों में अन्य साधन नहीं होते और उनके संख्या-बल और मतों का का कोई महत्व नहीं रहता, इसलिए वे आज के युग कि भाँति समाज पर हावी नहीं हो सकते। इस प्रकार ब्राह्मण कानून और विधान आदि का दायित्व अपने ऊपर लेकर न्याय, रक्षा, अर्थ, श्रम आदि के लिए अन्य वर्णो पर आश्रित रहते हैं। वैश्य अर्थ के उत्पादन और वितरण के दायित्व को अपने ऊपर लेकर अन्य सब आवश्यकताओं के लिए शेष वर्णो पर आश्रित रहते हैं. वर्ण-व्यवस्था के अनुसार समाज-शरीर का प्रत्येक अंग एक दूसरे का सहायक और पूरक होता है. न कोई वर्ण किसी से बड़ा होता है और न छोटा, न श्रेठ और न नीच. सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावानुसार कार्य करते रहते हैं. किसी पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं होता।

इस प्रकार इस विभक्तिकरण के अनुसार विधि-निर्माण सत्ता, राज-सत्ता और द्रव्योत्पादन शक्ति पृथक-पृथक रहती हैं. धन एक शक्ति है और राज-सत्ता भी एक शक्ति है। दोनों ही शक्तियों के एकत्रित होने पर मदोन्मादक शक्ति और भी प्रबल होकर अन्याय और अत्याचार की सृष्टि करती है.एक ही व्यक्ति, व्यक्ति-समूह अथवा संस्था के हाथ में इन दोनों शक्तियों के केंद्रित हो जाने से शेष समस्त समाज सर्वथा दीन, ग़ुलाम और असहाय बन कर भाग्य और पराजयवादी बन जाता है. फिर इस अत्याचार की प्रतिक्रियास्वरूप उसमे विद्रोही भावना पनप उठती है. समाज वर्गों में बाँट जाता है और यही दुखी वर्ग सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर बैठता है. इसीलिए वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होकर समाज कि शांति और सुख का नाश होता है. इस प्रतिक्रियास्वरूप यही विद्रोही वर्ग सत्तावान बन कर धर्म, संस्कृति का घोर शत्रु बन कर पूर्ण नास्तिक और जड़वादी बन जाता है. इस विध्वंशावस्था से बचा कर समाज को चिर-शांति देने के लिए राज-सत्ता को धनहीन और धन-सत्ता को राज-सत्ताहीन रख कर दोनों को परावलम्बी, अन्योनाश्रित करके दोनों के ऊपर त्यागी, स्वार्थ-निरपेक्ष, न्यायपूर्ण, धर्मात्मा व्यक्तियों का नियंत्रण स्थापित कर देने से, सत्ताधारी अथवा धनवान में से कोई भी समाज के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर सकता। यही हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत समाज-रचना की मौलिक और सुन्दर व्यवस्था है.

क्रमश :.....

No comments:

Post a Comment