Saturday, October 19, 2013

अंधकार में प्रकाश : भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग- २ से आगे......

साध्य और स्वधर्म का जहाँ तक प्रश्न है वहां लोग अपनी महत्वाकांक्षाओं की तृप्ति के लिए मनमाना अर्थ भी निकाल लेते है, पर साध्य और स्वधर्म को एक ही पहलू के दो रूप मान लेने के विशेष कारण है| संसार में बहुत से ऐसे व्यक्ति है जो परिस्थिति विशेष से जीवन ग्रहण करते रहते है, पर इस प्रकार का परिस्थिति सापेक्ष जीवन अमर कदापि नहीं हो सकता| आज की परिस्थितियां कुछ ऐसी ही है जो संस्थाओं को जन्म देती है उनका कहना होता है – कल्याणकारी राज्य की स्थापना करेंगे; समाजवादी समाज का निर्माण करेंगे और देश से गरीबी और भ्रष्टाचार को उखाड़ फेकेंगे| पर उन सब कार्यों के हो चुकने के बाद क्या होगा- खुद को मिटाना अथवा रूपांतरित करते रहना ? इस प्रकार की संस्थाएं सदैव अपूर्ण सुख की कल्पना करके अपूर्ण ही बनी रहती है और इसलिये उनका जीवन स्थाई और दृढ़ नहीं रहता| न उनमें जीने वाले व्यक्तियों का ही सर्वंगीण विकास संभव हो सकता है| यह ध्रुव सत्य है कि शाश्वत सुख की कल्पना केवल शाश्वत पदार्थों से ही हो सकती है| किसी संस्था के जीवन को स्थायी बनाना है तो उसका उद्देश्य अथवा ध्येय भी देश, काल और परिस्थिति निरपेक्ष स्थायी होना आवश्यक है| हमें एक ऐसे संघर्ष में सम्मिलित होना है जो सृष्टि के आदि से प्रारंभ होकर आज तक चलता आया है और आगे भी बना रहेगा| प्रकाश और अंधकार, सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, भलाई और बुराई का द्वंद्व शाश्वत है, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत द्वन्द्वात्मक है| हमें इन दोनों पक्षों में से एक का पक्ष लेना ही पड़ेगा| अतएव किसी व्यक्ति अथवा संस्था के साध्य में एक ऐसा अमर सत्य होना चाहिए जो अंत काल तक स्थाई बना रहे| काल की सीमाओं से आबद्ध साध्य अपूर्ण है|

साध्य को देश की सीमाओं से भी घिरा हुआ नहीं होना चाहिये| नाश करने की संभावना सबल द्वारा ही हो सकती है, निर्बल क्या विनाश कर सकता है|इसलिए हानि-रहित समाज अमृत होकर जीता है और नाशकारी समाज विष होकर जीता है| बिना परिणाम की चिंता किये और बिना आसक्ति के किसी निर्बल, दीन, असहाय की सहायता की जाती है तो वह किसी देश और समाज विशेष की सीमाओं से घिरे हुए जन-समुदाय को ही अपना कार्य-क्षेत्र बनाने की भावना से अधिक उदार और अनुकरणीय है| दुष्ट पिता का वध भी निषिद्ध नहीं है, क्योंकि न्याय की दृष्टि में मनुष्य मात्र में कोई भेद नहीं होता| अतएव जो साध्य देश, काल, परिस्थिति और व्यक्ति की सीमाओं से बद्ध नहीं है, उसी साध्य में स्थायित्व है और वही चिरन्तन सत्य का प्रतिरूप है|

उपर्युक्त विवेचना को ध्यान में रखते हुए यदि हम अपनी सबसे प्रबल विरोधी शक्ति बुद्धिजीवी-वर्ग द्वारा संचालित कांग्रेस की विवेचना करें तो ज्ञात होगा कि कांग्रेस आज एक निरुद्देश्य संस्था है| आप किसी खद्दरधारी महाशय या गांधी टोपीधारी नेताजी से पूछिये कि आपका ध्येय क्या है ? उत्तर मिलेगा- मेरा ध्येय वही है जो कांग्रेस का ध्येय है| फिर पूछिए- कांग्रेस का क्या ध्येय है ? इस प्रश्न को आप भिन्न भिन्न दस नेताओं से पुछ लीजिये और आपको दस प्रकार के परस्पर विरोधी उत्तर मिलेंगे| वे उत्तर इस प्रकार के होंगे –“हमारा ध्येय और अहिंसा है| हम साम्यवाद से देश की रक्षा करना चाहते है, हम लोगों के जीवन स्तर को उठाना चाहते है| हम कल्याणकारी राज्य की स्थापना चाहते है| हम समाजवादी समाज का निर्माण चाहते है| हम विश्व में सह-अस्तित्त्व की भावना को क्रियान्वित करना चाहते है’, आदि आदि| इसका वास्तविक अर्थ यह है कि कांग्रेस के पास आज कोई ध्येय नहीं है| येन केन प्रकारेण सत्ता पर अधिपत्य करके उसे हर उचित या अनुचित उपाय से अपने अधिकार में रखना मात्र आज कांग्रेस का ध्येय बन चुका है| इसीलिए इसी ध्येय की पूर्ति के लिए प्रसंग और आवश्यकतानुसार कांग्रेस का ध्येय निरंतर बनता बिगड़ता रहता है| जिन लुभावने नारों से जनमत को आकर्षित किया जाकर उससे मत लिए जा सकते है, वे ही नारे कांग्रेस का ध्येय बन जाते है| जनता को आकर्षित करने वाले भिन्न-भिन्न प्रान्तों में और भिन्न भिन्न परिस्थितियों में भिन्न भिन्न नारे हो सकते है, इसलिए भिन्न-भिन्न प्रान्तों और परिस्थितियों में कांग्रेस का ध्येय भी भिन्न-भिन्न बन जाता है|

अतएव यह तो स्पष्ट ही है कि कांग्रेस के पास आज कोई अपना निश्चित और शाश्वत सिद्धांत पर आधारित ध्येय नहीं है| जिस संस्था के पास कोई स्थायी ध्येय नहीं, ऐसी संस्था के ध्येय को अपने जीवन का ध्येय मानकर चलने वाले व्यक्तियों का उत्थान भी असंभव है| वे सत्ता का सहारा पाकर चंद दिनों तक मालामाल भले ही हो सकते है, पर उनके व्यक्तित्त्व के पूर्ण विकास की गुंजाइश इस प्रकार की संस्था में कदापि नहीं हो सकती| “सत्ता-प्राप्ति के लिए लुभावने सिद्धांतों की ओट में जनता को गुमराह करते रहो, उसे आपस में लड़ाकर अपना काम बनाये जाओ, सत्ता-प्राप्ति के पश्चात् धन एकत्रित करके स्वयं सबल बनो और अपने बंधू-बांधुओं को भी सबल बनाओ, सहयोगी जनों को नौकरियों और व्यापार में प्राथमिकता दो, विरोधियों को कुचलने के सब उपाय काम में लेते रहो और सदैव वे उपाय करते रहो जिससे सत्ता कभी भी हाथ से निकलने न पावे|” इस उपर्युक्त संदेश के अतिरिक्त आज कांग्रेस के पास और कौनसा व्यावहारिक संदेश है जो वह अपने सदस्यों के जीवन में दे सके|

अतएव क्षणिक, सामयिक एवं परिस्थितिजन्य सिद्धांतों पर आधारित उद्देश्य को लेकर चलने वाली कांग्रेस का अध:पतन अवश्यम्भावी है| कांग्रेस-संगठन का एकमात्र आधार व्यक्तिगत और संस्थागत स्वार्थ है| उसमें न निश्चितता, न शाश्वत और न प्रकृति अनुकूलता ही है| अतएव देश, काल परिस्थितिसापेक्ष उद्देश्यवान कांग्रेस को निकट भविष्य में पतन से बचाने की किसी में सामर्थ्य नहीं है|

यदि यह मान लिया जाय कि देश का शासन करना कांग्रेस का वास्तविक उद्देश्य है और अन्य सब प्रकार के घोषित उद्देश्य केवल इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए साधन मात्र है तो भी इससे कांग्रेस का जीवन लंबा नहीं बन सकता| क्योंकि इस प्रकार के कार्य में छल और कपट प्रत्यक्ष है और अब भारत की स्वतंत्रवेता जनता ने असली और नकली में अंतर करना सीख लिया है|

और यदि कांग्रेस के सामयिक उद्देश्य की ही व्याख्या की जाय तो भी भारतीय सांस्कृतिक परम्परा के सर्वथा विपरीत है| किसी भी राष्ट्र की अपनी परम्परायें और मान्यताएं होती है| ये परम्पराएँ और मान्यताएं राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन का आधारभूत अंग होती है| प्रत्येक राष्ट्र उन्हीं परम्पराओं और मान्यताओं को आधारभित्ति बनाकर उन्नति के भवन का निर्माण करना है और वास्तविक उन्नति तभी संभव हो सकती है| एक देश की परम्पराएँ और उन्नति के उपाय दुसरे देश में लाभदायक कदापि नहीं हो सकते| और यदि सत्ता के बल से इस प्रकार की विजातीय और विदेशी विचारधारायें, रीतिरिवाज देश में बलात प्रचलित किये जाते है तो इस प्रकार के कार्यों की प्रतिक्रिया विपरीत होती है और यही प्रतिक्रिया आगे चलकर निरंकुश सत्तान्धों को समाप्त करने का मूल कारण बनती है| आज कांग्रेस सत्ता का सहारा पाकर विधि व अन्य उपायों द्वारा सुधारवाद की ओट में हिन्दू धर्म, संस्कृति और परम्पराओं के मूल पर आघात पर आघात कर रही है| यह तो समय ही बतायेगा कि इस प्रकार की विजातीय व विदेशी विचारधाराओं का भारतीय जन-जीवन के साथ एकीकरण कराने में कांग्रेसी बुद्धिजीवी-वर्ग कहाँ तक सफल होगा| पर इतना निश्चिन्त है कि इस प्रकार के कार्यों से इन कांग्रेसियों ने जनता के बड़े अंश को क्षुब्ध कर रखा है| अभी भारतियों में सांस्कृतिक चेतना का संचार नहीं हुआ है| भौतिक उन्नति के पश्चात् इस प्रकार की चेतना का संचार होना आवश्यक है| हमें जनता में इस सांस्कृतिक चेतना का संचार करना चाहिये|

अब थोड़ी देर के लिए कांग्रेस के साधक (व्यक्ति), साधना (कार्यप्रणाली) और साधनों पर भी विचार कर लेना चाहिये| कांग्रेस के साधकों की एकता की कड़ी केवल राष्ट्र की भौगोलिक सीमा है| बाढ़ के समय प्राणों पर संकट आया देख चूहे, बिल्ली, कुत्ते, शेर आदि एक टीले पर चढ़ जाते है तो क्या वह सम्मलेन किसी संगठन का सूचक होगा? परतंत्रतावादी बाढ़ के निवारण के लिए विरोधी हितों और स्वभाव वाले बहुत से व्यक्ति एक संस्था में सम्मिलित हो गये, पर इससे क्या राष्ट्रीय आत्मा का निर्माण हुआ? जिस प्रकार बाढ़ समाप्त होने पर बिल्ली चूहे पर कुत्ता बिल्ली पर झपटता है उसी प्रकार परतंत्रता रूपी बाढ़ के हट जाने पर कांग्रेस अन्य संस्थाओं पर झपटने लगी जिससे साम्यवादी, समाजवादी, फारवर्ड ब्लाक आदि संस्थाएं उससे अलग हो गई| सत्तारूढ़ होने के कुछ ही दिन उपरान्त कांग्रेस से पृथक हुए व्यक्तियों द्वारा प्रजा-समाजवादी दल और न मालूम और कितने दलों का निर्माण हो गया| यह क्यों ? इसलिए कि स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद कांग्रेस जनों को परस्पर एक सूत्र में बांध रखने वाली वस्तु केवल स्वार्थ थी| जब स्वार्थों में परस्पर टक्करें हुई तो विघटन आवश्यक हो गया| आज स्थिति यह है कि लगभग सभी प्रान्तों में सत्ता की छिनाझपटी के लिए कांग्रेसी आपस में लड़ रहे है| पुराने कार्य-कर्ता कांग्रेस से पृथक हो रहे है और नये स्वार्थी तत्व उसमें प्रवेश कर रहे है| कांग्रेस आज यादवी-नीति के पथ पर है| पाप का घड़ा शीघ्र ही भर रहा है| व्यक्तिवाद और स्वार्थ का इतना निर्लज्ज और नग्न ताण्डव करके भी यदि कोई संस्था सत्तारूढ़ रह सकती है तो समझना चाहिये कि विधि का विधान बदल गया है पर ऐसा होना असंभव है| कांग्रेस का उसकी स्वयं की नीति के कारण निकट भविष्य में ही पतन अवश्यमभावीहै| उसे एक बार तो पदच्युत, सत्ताच्युत होना ही पड़ेगा| इस पतन के बाहरी कारण इतने प्रबल नहीं है जितने भीतरी है| कांग्रेस की साधना-प्रणाली में त्याग पर बल दिया गया है और इस त्याग की वास्तविक कसौटी रखी गई है जेलयात्रा| इसीलिए जेल जाने वाले कांग्रेसियों के त्याग को मान्यता देकर राजनैतिक पीड़ितों के नाम पर जनता का काफी धन उनके भरण-पोषण के लिए खर्च किया जा रहा है| जेलों का भोजन साधारण भारतीय परिवारों की अपेक्षा अच्छा होता है और विशेष कर उस समय राजनैतिक बन्दियों को तो अनेक सुविधाएँ मिला करती थी| स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस का त्याग केवल जेल जाने तक ही सीमित रहा है| जो व्यक्ति फांसी के तख्तों पर लटके अथवा संघर्ष में वीरतापूर्वक लड़ते हुए काम आये उनको हिंसा का आश्रय लेने के कारण कांग्रेस ने कभी अपना नहीं माना| त्याग के इतने घटिया उदाहरण राष्ट्र के सामने रखे गए है जिससे वास्तव में जब उच्च कोटि के त्याग करने का समय आता है तो राष्ट्र के कांग्रेसी-विचारधारा से प्रभावित नौजवान केवल जेल जाने तक का ही साहस कर पाते है| इनका वीरत्त्व आज जोशीले भाषणों और शाब्दिक विरोधों तक ही सीमित हो गया है| अपने से कमजोर और निस्सहाय को कुचलना और शक्तिशाली के समक्ष घुटने टेक कर आत्म-समपर्ण करते रहना ही इन बुद्धिजीवियों का वीरत्त्व और त्याग है| देश का विभाजन होते समय जब रक्तिम क्रांति हुई तब एक भी कांग्रेसी सज्जन का रक्त नहीं बहा| वास्तव में कांग्रेस के सर्वेसर्वा बुद्धिजीवी-वर्ग की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि वह वास्तविक त्याग करने से डरता है| वह स्वयं मरने और खून बहाने से बहुत घबराता है| वह अपनी स्वार्थ-सिद्ध के लिए दूसरों को बलिदान का बकरा बना का उन्हें मरने के लिए प्रेरित कर सकता है, पर जब स्वयं के मरने और त्याग करने का समय आता है तो दीनतापूर्ण आत्म-समर्पण के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय शेष नहीं रहता| मुसलमानों ने पाकिस्तान बनाने के लिए इस बुद्धिजीवी-वर्ग की इस संस्कारजन्य-निर्बलता को भली-भांति पहचान लिया था| यह वर्ग स्वयं अपनी इस जन्मजात निर्बलता को जानता है और इसीलिए इस प्रकार के अवसर को असंभव बना डालने हेतु इनकी अदभुत सक्रियता और सतर्कता को प्रत्येक क्षेत्र में देखा और अनुभव किया जा सकता है|

आज जो साधन इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने अपना रखें है वे बहुत कपट-पूर्ण और मायावी होते हुए भी बहुत कुछ अंशों में तथ्यों से रहित होते है| नाजी नेता डाक्टर गोबेल्स का कहना था कि किसी भी झूंठ को तीन बार सत्य की भांति ही दोहरा दिया जाय तो जनता उसे सत्य ही समझने लग जायेगी| इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने मानो इसी वाक्य को अपना गुरु-मन्त्र माना है और इसीलिए देश के प्रेस और रंगमंचों पर एकाधिपत्य करके इस वर्ग ने प्रत्येक क्षेत्र में झूंठ पर सुनहले सत्य का आवरण चढ़ा रखा है| इस प्रकार का मिथ्या प्रचार लंबे समय तक चल नहीं सकता| जब तक जनता अज्ञानी और अनभिज्ञ रहती है तभी तक इस प्रकार के मिथ्याडम्बर संभव हो सकते है| व्यक्तिगत क्षेत्र में और क्या संस्थागत क्षेत्र में, चरित्रता के विस्तृत और ठोस उदाहरण इस बुद्धिजीवी-वर्ग में मिलते है वे नि:संदेह हमारे लिए निराशा में आशा की स्वर्णिम लालिमा विकीर्ण करने वाले है|

-: समाप्त:-


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