Wednesday, October 16, 2013

विरोध का मह्त्वांकन - भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग- १ से आगे .....
जैसा कि कहा जा चुका है, धर्म का बहुत कुछ स्थान आज राष्ट्रवाद ने ले लिया है| अतएव उच्च कोटि का राष्ट्रवादी बनना प्रत्येक का कर्तव्य है| उच्च कोटि का राष्ट्रवादी बनने के लिये ब्राह्मण राष्ट्र की ज्ञान परम्परा और आध्यात्मिक जीवन का विकास करें, क्षत्रिय उसके शासन तंत्र पर स्वामित्त्व की स्थापना कर उसके द्वारा राष्ट्र की सेवा करे; वैश्य राष्ट्र के आर्थिक जीवन को विकासवान बनावें और शुद्र राष्ट्र की कार्य-शक्ति को स्वस्थ्य और गतिमान रखें| यही राष्ट्र-भक्ति का सच्चा वास्तविक स्वरूप है, और इस दिशा में किया गया प्रत्येक कार्य राष्ट्र की सेवा के लिए किया गया राष्ट्र भक्तिपूर्ण कार्य है| राष्ट्रवाद के इस दृष्टिकोण के अतिरिक्त क्षत्रिय-परम्परा को अन्य कोई भी विचारधारा स्वीकृत नहीं हो सकती क्योंकि अन्य दृष्टियों से वह एक राष्ट्र निरपेक्ष विचारधारा है|

क्षात्र-परम्परा की पुनर्स्थापना को लेकर जो विरोधी प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होंगी उनमें से एक इस योजना की संभवता, स्वाभाविकता और अस्वाभाविकता तथा इसके अनौचित्य आदि पहलुओं को लेकर होगी| प्रत्येक स्थान पर ऐसे व्यक्ति अवश्य मिल जाते है जो किसी भी योजना को असंभव बता कर पहले-पहल उसका हर पहलू से विरोध करते है| इस प्रकार का विरोध बहुत कुछ निष्क्रिय और प्रभावहीन होता है| एक प्रभावशाली शक्ति को कार्य करते देखकर ऐसा विरोध सदैव समर्थन में बदल जाता है| जनता के बहुमत द्वारा भी इस योजना का विरोध करने की बात कही जा सकती है, पर यदि वास्तव में देखा जाय तो जनता का बहुमत सदैव उदासीन, तटस्थ और निष्क्रिय रहता है| कुछ मनचले लोग जनता के नाम से सदैव विरोध करने की योजना बनाते रहते है, अतएव इस प्रकार के विरोध को जनता का सामूहिक विरोध न समझ कर कुछ तत्वों और व्यक्तियों का ही विरोध समझना चाहिए| यही समझ कर उसका प्रतिकार करना चाहिए| हमें तटस्थ, उदासीन और निष्क्रिय विरोध से अधिक सावधान रहने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इस प्रकार का विरोध उपयुक्त और मनोवैज्ञानिक अवसर आते ही थोड़ी सी शक्ति और त्याग द्वारा बड़ी आसानी से समर्थन में बदला जा सकता है| इस प्रकार के विरोध का नैतिक और सैद्धांतिक धरातल न होने के कारण यह निष्क्रिय और नपुंसक विरोध न हमारे लिये हानिप्रद ही हो सकता है और न लाभदायक ही|

इस प्रकार इस योजना का समर्थन जिन तटस्थ और उदासीन व्यक्तियों द्वारा होने वाला हो वह हमारे लिए कुछ अंशों में लाभदायक अवश्य सिद्ध हो सकता है| यह समाज के सफल नेतृत्व की कसौटी होगी कि इस प्रकार के क्षीण विरोध और समर्थन से कब और कैसे सावधान रहा जा सकता है और कब और कैसे लाभ उठाया जा सकता है|

इस योजना का सबसे भयंकर विरोध उन बुद्धिजीवी तत्वों द्वारा होगा जो आज सर्वेसर्वा बने हुए है| यह विरोध भयंकर, वैज्ञानिक और कठोर हो सकता है| प्रारंभिक दिनों में हमारी सामाजिक प्रतिक्रिया को जाग्रत करने के लिए इस प्रकार का विरोध बहुत लाभदायक सिद्ध होगा| इसलिए हमें इस विरोध से तनिक भी घबराने की आवश्यकता नहीं है| हमें इस प्रकार के अवसरों को ढूंढ निकालना होगा जहाँ विरोधी शक्तियां अपने मस्तिष्क का संतुलन खोकर हर क्षेत्र में हमारा विरोध करने लग जाये| इस विरोध का मूल्यांकन इसी रूप में करना चाहिये कि यह विरोध ईश्वर द्वारा भेजी हुई परोक्ष सहायता है जो हमारी योजना के लिए सतर्कता और कर्मठता को उत्पन्न कर हमें अधिक गतिशील बनाने के लिए आवश्यक है| इस प्रकार के विरोध का सामना करने के लिए हमें सदैव तैयारी की स्थिति में रहना पड़ेगा और निरंतर रूप से विरोधी शक्तियों की कमजोरियों पर प्रहार करते रहना होगा| ध्यान रहे हमारी शक्तियां आततायी अधिक है और आततायियों से रक्षा करने का सरलतम साधन है स्वयं आततायी बनकर उनके घरों में ही उन्हें निस्तेज और पंगु कर देना| ये विरोधी शक्तियां वीरत्वपूर्ण ढंग से रक्षा की लड़ाई लड़ना नहीं जानती और सदैव प्रबल शक्ति के सामने घुटने टेक कर अंत में आत्म-समर्पण करती है| अतएव हमें विरोधियों की इन मूलभूत कमजोरियों को ध्यान में रखकर दृढ़ता और धैर्यपूर्वक इनके विरोध का सामना करना चाहिये| इन बुद्धिजीवियों के सैद्धांतिक और व्यावहारिक विरोध को हमें निर्दयता, कठोरता और योजनापूर्वक कुचल कर सदैव उर्ध्वगामी बने रहना चाहिये|

इस योजना का दूसरा आंतरिक विरोध होगा जिसका आधार मुख्यत: अज्ञान, स्वार्थ अथवा व्यक्तिगत दुर्बलताएं होंगी| यह आंतरिक विरोध अत्यंत ही महत्त्व का होगा, क्योंकि इसकी सबलता अथवा निर्बलता पर ही इस योजना को क्रियान्वित करने वाली शक्ति की सबलता अथवा निर्बलता निर्भर रहेगी| दुर्भाग्य से हमारी जाति में विरोधियों के हाथ की कठपुतली बनकर समाज-शरीर के पीठ में छुरा भौंकने वाले पतित और नीच व्यक्तियों की संख्या आज कम नहीं है| यह आतंरिक शत्रु सदैव एक अप्रकट और अप्रत्याशित भय के रूप में हमारे सामने रहेंगे|

निरंतर क्रियाशील, सतर्कता तथा उच्च संस्कारों द्वारा समाज चरित्र का निर्माण करना ऐसे विरोध का रचनात्मक उत्तर हो सकता है| ऐसे व्यक्तियों में नैतिकता तथा साहस का अभाव होने के कारण सत्य और साहस पर आधारित प्रबल कार्य-शक्ति के सामने इनके पैर लड़खड़ाने लग जाते है| ऐसे स्वार्थी व्यक्तियों का नग्न और कलंकी रूप सदैव समाज के सामने रखते रहना चाहिये| समाज को सदैव इनसे सतर्क करते रहना चाहिये| फिर भी यदि इस प्रकार के स्वार्थी तत्व अपने स्वभाव को न छोड़े तो उन्हें उनके नीच और स्वार्थपूर्ण कार्यों के लिए सुन्दर और शिक्षाप्रद पाठ अवश्य पढाना चाहिए|

जो आंतरिक विरोध अज्ञान द्वारा किया जाता हो उसे युक्ति और बुद्धिपूर्वक दूर करने की चेष्टा करनी चाहिए| इस विचारधारा को समाज के सामने विभिन्न रूपों में रखना चाहिए| जो जिस रूप में और जिस प्रणाली द्वारा समझ सके, समझाना चाहिए| समाज के अज्ञान को भी वरदान रूप में ग्रहण कर उसे भी महान ध्येय की पूर्ति के लिए साधन रूप में प्रयुक्त करना योग्य नेतृत्व का कार्य है| हमें अज्ञान को विरोध के रूप में रूपांतरित होने से पहले पक्ष में रूपांतरित कर उसे धीमे-धीमे अनुकूल और चेतन बनाते हुए दूर करना है|

जो लोग व्यक्तिगत दुर्बलताओं और विवशताओं के कारण इस योजना का विरोध करें तो समझना चाहिए कि इनका विरोध किसी सैद्धांतिक और व्यावहारिक धरातल पर आधारित न होकर हीन मनोवृति का तुच्छ परिणाम है| ऐसे व्यक्तियों की आत्म-दुर्बलताएं, शारीरिक कमजोरियां और पारिवारिक विवशताएँ सदैव बहानेबाजी, विरोध और कुतर्क के रूप में प्रकट हुआ करती है| उनमें इतना तो नैतिक साहस होता नहीं कि वे अपनी कमजोरियों को स्वीकार करके कार्य के प्रति असमर्थता प्रकट करें| ऐसे व्यक्ति अपनी कमजोरियों को छिपाने के लिए बुद्धिवाद सिद्धांतवाद और तर्क का सहारा लेकर कार्य और उसकी जिम्मेवारियों से बचने की सदैव चेष्टा किया करते है| ऐसे व्यक्तियों से त्याग और कार्य-शक्ति का आव्हान नहीं करना चाहिए| जब हमारी शक्ति प्रबल और अधिक क्रियाशील हो उठती है तब इस प्रकार के व्यक्ति स्वत: उसमें सम्मिलित होकर अपने अनुकूल कार्य ढूंढ निकालते है|

-: समाप्त :-

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