Wednesday, October 30, 2013

परिचय : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

बसंत ऋतू के उद्दीपक वातावरण से पुलकित होकर एक दिन मैं ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करने निकला पड़ा| भग्नावशेष के रूप में विद्यमान कुछ अति प्राचीन दुर्गों को देखा; कुछ मध्यकालीन दुर्गों में घूमा और उत्तर मध्यकालीन दुर्गों के ऐतिहासिक भवनों का भी ह्रदय में प्रवाहित भावनाओं के चतुर्मुखी बवंडर की उपेक्षा करते हुए निरिक्षण किया| दो चार से अधिक युद्ध-स्थलों का भ्रमण नहीं कर सका|

दिल्ली के पाण्डवों के किले ने मूक भाषा में न मालूम मुझसे कितने प्रश्न पुछ डाले| पर मैं उनमें से एक का भी उत्तर नहीं दे सका| उस दुर्ग के संस्थापक विश्व-विजयी पाण्डवों की स्थिति और अपनी स्थिति के अंतर को ढूंढता हुआ वहां से निकल पड़ा| वीर-शिरोमणि पृथ्वीराज का किला मुझे देखकर क्रुद्ध हो उठा; उसकी झुलसाने वाली उच्छवासों को मैंने अनुभव किया| उसमें मैं घूमा अवश्य पर किसी आल्हादपूर्ण प्रसन्नता के साथ नहीं, हृदय में बैठी लज्जा के द्रवित होकर पिघलने की क्रिया को अनुभव करते और उस हल्की-हल्की उष्णता से तपते हुए| एक समय का भारत का भाग्य-विधायक तारागढ़ विवशता-पूर्ण मौन धारण किये हुए दिखाई पड़ा| पर उसके निश्चल और वक्राकार शरीर की कुंठित आत्मा में बैठे मौन-संदेश को मैंने पढ़ और समझ लिया| मैंने हृदय का समस्त साहस बटोर कर वीरों के परम पवित्र तीर्थ-स्थान चितौड़गढ़ में प्रवेश किया;- सोचा था, दो-चार दिन तक इसी में ठहरूंगा पर वहां एक क्षण भी नहीं ठहर सका| उसका क्रोधपूर्ण अट्ठाहस हृदय को दहलाने वाला था| उसके अंतर्पदेश में आज भी जौहराग्नि धधक रही है| वह पीड़ित, घायल, उपेक्षित अपमानित और श्री-विहीन होते हुए भी अन्याय, अत्याचार, अधर्म और परतंत्रता का मुकाबिला करने में मुझे पहले जितना ही समर्थ लगा|| मेरी निर्बल, पतित, भीरु और अज्ञानी आत्मा में इतना साहस कहाँ था कि उसके उपालम्भों का उत्तर दे सकता; उलटे मुंह लौट जाना पड़ा;- एक भी बात उसकी सुनी और समझी नहीं| रणतभंवर में मुझे पग-पग पर महाप्रलय से टक्कर लेने वाले हठी हमीर की पवित्र आत्मा के दर्शन हुए| हमीर का हठ राजपूत-गौरवाकाश का उज्ज्वलतम नक्षत्र है| इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को दे अथवा सुदृढ़ रणतभंवर दुर्ग को ? मेरी सम्मति में इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को ही देना उचित होगा| क्योंकि-

पतली भींत किलैह, मांयज सांवत सूरमा|
भेली नांह भिलैह, रावत उभां राजिया||
जाड़ी किले सफील, मांयज नर निबला हुवै|
ढूंढो ढहता ढील, रती न लागै रजिया||


शूरवीरों द्वारा रक्षित निर्बल दुर्ग भी अजेय होता है पर निर्बल रक्षकों द्वारा रक्षित सुदृढ़ दुर्ग भी सरलता से ढह जाता है| ऊँटाला दुर्ग और कुम्भलगढ़ को दूर से देखकर ही प्रणाम कर लिया| उन्हें अपना निर्लज्ज, गौरव-रहित और अयोग्य मुंह दिखलाने का साहस नहीं बटोर सका| उलाउद्दीन की सेना के छक्के छुडाने वाले जालौर दुर्ग में प्रवेश कर विरमदेव सोनगरा की गौरवगाथा के चिंतन में निमग्न था कि मरुधराधीश मानसिंह जी का दृढ़ निश्चय सुनाई पड़ा-

आभ फटै धरा उल्टै, कटै बकतरां कौर|
सिर टूटै धड़ तड़फडै, जद छूटै जालौर ||


यह अमर आन और स्वाभिमान का मन्त्र आज भी कानों में गूंज रहा है| भारत के उत्तरी-पश्चिमी द्वार के रक्षक जैसलमेर दुर्ग को सूर्यास्त की मरणासन्न किरणों के काले प्रकाश में देखा| श्री-हीन वैधव्य की भांति एक उदासीन परत उस पर छा रही थी, जिसके नीचे गौरव और कीर्ति निरंतर दबे से जा रहे थे| जोधपुर दुर्ग, बीकानेर दुर्ग, आमेर दुर्ग, अलवर दुर्ग, बूंदी दुर्ग और राजस्थान के इन विगत गौरव के स्मृतिचिन्हों के अनेक रूपों को देखकर मैं लज्जा से सिहर उठा, विवशता से रो उठा, दीनता पर क्रोधित और निर्बलता पर झुंझला पड़ा|

मैंने सोचा, कीर्ति के इन भग्नावशेषों, गौरव के इन स्मृति चिन्हों, राज्य-वैभव के इन साकार प्रतीकों, सम्मान और स्वाभिमान के खुले अध्यायों और कर्तव्य-पालन की इन प्रभावशाली कहानियों को क्या अब तक किसी राजपूत ने देखा ही नहीं है, सुना ही नहीं है, समझा ही नहीं है, इन पर चिंतन और मनन किया ही नहीं है ? कदाचित देखा सभी ने है पर सुना नहीं, सुना अवश्य है पर समझा नहीं, और यदि किसी ने इन्हें समझा भी है तो इन पर चिंतन और मनन नहीं किया है| इन्हें देखने के लिए आँखों, सुनने के लिए जिन कानों, समझने के लिए जिस हृदय और चिंतन-मनन के लिए जिस मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, कदाचित ये सब हम लोगों के पास नहीं है| यदि यह बात नहीं होती तो प्रेरणा के इन साक्षात् और साकार स्वरूपों के होते हुए भी हम आज इस प्रकार से अपमानित, श्री-हीन, दीन और कायरपूर्ण संतोषी बनकर नहीं रह सकते थे ? कभी भी शांत न होने वाली हृदय की वेदना से अब तक हमें चीत्कार उठाना था; अमर और कर्णभेदी चीख से पृथ्वी आकाश को गुंजायमान कर देना था; समस्त प्राणियों में कोलाहल उत्पन्न कर देना था| अमर काव्य के मूर्तिमान स्वरूप इन कीर्ति स्थलों की शक्ति की गहराई अथाह है| इस शक्ति का एक अणु-मात्र भी लेकर हम शक्तिमान बन सकते है| इस शक्ति से सशक्त होकर अब तक हमने विजय-घोष क्यों नहीं किया; उदबोधन का महाशंख क्यों नहीं बजाया; कर्म-क्षेत्र को रौंद क्यों नहीं डाला ? इन्हें देखकर हमारे में प्रबल महत्वाकांक्षा का उदय क्यों नहीं हुआ ? क्या हमारे पूर्वजों ने अपने रक्त से मिट्टी को सान कर इसका निर्माण नहीं किया था; क्या उन्होंने अपने सर्वस्व की आहुति देकर इनके सुरक्षा यज्ञों का आयोजन नहीं किया था और क्या उन्होंने स्वप्न में भी कभी यह सोचा था कि हम उनकी आज की अकूत और अयोग्य संताने परम पवित्र उनके स्मृति-चिन्हों से कुछ भी प्रेरणा ग्रहण न करके केवल विदेशी दर्शकों की भांति इन्हें तटस्थ और निर्लिप्त भाव से देखती मात्र रहेगी ?

इन ऐतिहासिक खंडहरों के निर्माण-काल का अनुमान लगाने वालों की आज कमी नहीं है; इनकी सुदृढ़ता, स्थापत्य और शिल्प-कला का बखान करने वाले दिनों दिन बढ़ते जा रहे है, इनके अन्दर घटित ऐतिहासिक घटनावली को भी क्रम-बद्ध रूप से लिपिबद्ध किया जा सकता है पर इनसे सामाजिक महत्वाकांक्षा की प्रेरणा ग्रहण कर और उज्जवल जीवन और अमर-मृत्यु का पाठ दोहरा कर विगत गौरव की पुन:स्थापना करने वालों की आज नितांत आवश्यकता है|

मुझे इन्हीं ऐतिहासिक स्थलों से कुछ महत्वाकांक्षा प्राप्त हुई है| वह महत्वाकांक्षा क्या है, थोड़ी देर पश्चात् बताऊंगा| “धर्म-क्षेत्र”, कुरु-क्षेत्र की पुण्यमयी धूलि को मस्तक पर चढाने का अभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| राजस्थान से बाहर के अन्य युद्ध-स्थल भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ| कन्हवा के युद्ध-स्थल का भी केवल मानचित्र ही देखा है| भारत की थर्मापल्ली हल्दीघाटी की चप्पा चप्पा भूमि देख आया हूँ| अन्य युद्ध स्थल भी कुछ देखें है; कुछ नहीं, पर उन सबको देखकर क्या करूँगा ? मैं सर्वज्ञ तो नहीं पर उनके संदेश को तो यहाँ बैठा-बैठा ही सुना सकता हूँ| वे सब एक ही भाषा में बोलेंगे, एक ही भाव होगा और एकसी उनकी हमारी निर्बलता और विवशता पर प्रतिक्रिया| लो, यहाँ बैठे ही मैं आपको बता दूँ- उनका संदेश होगा|

“हमारे वक्ष स्थलों पर धर्म युद्ध में परिणाम की चिंता किये बिना प्राण-विसर्जन करने वाले वीरों की संताने होकर तुम कायरता को क्यों हृदय से लगाये बैठे हो ? उठो, स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करो और समय आने पर वीरोचित ढंग से मृत्यु का आव्हान करो !” पर प्रश्न यह है, - क्या हम उनसे शिक्षा ग्रहण करते है ? क्या कभी हम मनन करते है कि इस पुण्य भूमि भारत की चप्पा चप्पा भूमि को रक्त से सानने वाले हमारे पूर्वजों के चरित्र की विशेषताएँ क्या थी ? इन युद्ध-स्थलों में वे क्यों लड़े, कटे और मरे थे ? इन प्रश्नों पर यदि हम गंभीरता-पूर्वक किंचित मात्र भी मनन करते तो कायरता के इस बाने को अभी तक फेंक देते और पग-पग पर धर्म-युद्ध का दुर्लभ समय उपस्थित देखकर भी उससे विमुख न होते| मैं इन्हीं युद्ध-स्थलों से प्राप्त संदेश का आभास-मात्र आपको दिखलाने का प्रयत्न करूँगा|

ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण के उपरांत हृदय के आशान्त सागर में निरुद्देश्य होकर कल्पना के डांड थपथपाने लगा| भावोन्मेश द्वारा उत्तेजित अवश्य हुआ पर इस प्रकार की मानसिक उत्तेजना किसी निश्चित शांति-सामग्री के अभाव में स्वत: शांत न होकर विचार-विकृति का रूप धारण कर लेती है| मैंने इसी शांति-सामग्री की प्राप्ति के लिए साहित्य का अनुशीलन आरम्भ किया| देव-वाणी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण उसके हिंदी रूपान्तरों से ही संतोष कर लेना पड़ा|

क्रमश:.....

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