Tuesday, October 15, 2013

उत्थान से पतन की ओर - भाग २ (राजपूत और भविष्य)

भाग १ से आगे...
भारत की स्वतंत्रता विलुप्त होने के उपरांत ब्राह्मणों व क्षत्रियों का प्रभाव क्षेत्र एक प्रकार से बंट सा गया| ब्राह्मण भौतिक पराजय को आध्यात्मिक विजय में बदलने का प्रयास करने लगे| उन्होंने भक्ति दर्शन का प्रतिपादन कर पराजित और निराश हिन्दू जनता में नव-जीवन लाने का प्रयास किया| भक्ति मार्ग से इस प्रचालन और प्रचार के कारण हिन्दुओं की आध्यात्मिक संस्कृति तो सुरक्षित रह गई पर वे सांसारिक और व्यावहारिक क्षेत्र में पुरुषार्थहीन और पूर्ण भाग्यवादी बन गए| पर इस भक्ति-आन्दोलन से समाज पर ब्राह्मणों का किसी न किसी रूप में थोड़ा-बहुत प्रभाव अवश्य रह गया| दूसरी ओर मुस्लिम काल में भी हिन्दू समाज पर राजनैतिक दृष्टि से सबसे अधिक प्रभाव क्षत्रियों का ही था| पर यह प्रभाव ब्राह्मण-क्षत्रिय प्रतियोगिता के कारण नहीं था, अपितु घटनाक्रम के स्वाभाविक विकास के कारण ही था और इसलिए ब्राह्मण और क्षत्रिय पृथक पृथक क्षेत्रों में अपना प्रभाव बनाये रखने का प्रयास करते रहे|

मुसलमानों के शासनकाल में राजपूतों को किसी न किसी रूप में सदैव लड़ना ही पड़ता था| कहने की आवश्यकता नहीं कि युद्ध की इसी निरंतर आवश्यकता और संभावना ने राजपूतों ने सदैव क्रियाशील, कर्मठ, सतर्क और साहसी बनाये रखा| पर ऊपर वर्णित अहं स्वार्थ, अदूरदर्शिता आदि जो दुर्गुण उनमें घर कर गए थे उनके कारण वीरत्त्व और बलिदान के ऊँचे गुणों के होते हुए भी वे राजनैतिक दृष्टि से प्रभुत्त्व संपन्न नहीं हो सके| दूसरी ओर ब्राह्मण यहाँ तक आते आते एकदम क्षीण पड़ गए| मुस्लिम राज्य के अंतिम दिनों में ब्राह्मणों का क्रिया-क्रम, भिक्षा-वृति और धार्मिक अनुष्ठानों का संपादन करना मात्र रहगया| इस प्रकार मुस्लिम युग में क्षत्रियों का भी पतन हुआ पर ब्राह्मणों का उनसे भी अधिक पतन हुआ|

मुग़लशाही के अंतिम दिनों में महाराष्ट्रीय ब्राह्मणों ने क्षत्रिय मराठों को आगे करके एक बार फिर समाज पर प्रभुत्त्व स्थापित करने का प्रयास किया पर इस बार वे किसी यौगिक चमत्कार, आध्यात्मिक बल अथवा सैद्धांतिक पृष्ठभूमि को लेकर आगे नहीं बढे| केवल बौद्धिक श्रेष्ठता द्वारा उस समय समाज पर प्रभुत्त्व स्थापित करना असम्भव था| अत: ब्राह्मणों ने क्षत्रियोचित गुणों को अपनाना प्रारंभ किया और परिणामस्वरूप बाहू-बल द्वारा समाज पर प्रभुत्त्व स्थापित करने की चेष्टाएँ होने लगी| परिणाम वही हुआ जो होना था, उन्होंने क्षत्रियों से हिंसा-वृति और मुसलमानों से धूर्तता का अर्जन तो कर लिया पर वे उनके अन्य महान गुणों को नहीं अपना सके| परिणामस्वरूप देश के एक कोने से दुसरे कोने तक सिद्धांत-पतित और नैतिकताहीन सैनिक-वाद का बोलबाला हो गया| अराजकता और अव्यवस्था उस समय की दैनिक बुराइयां बन गई| ऐसी स्थिति अधिक दिनों तक नहीं रह सकती थ, अतएव ब्राह्मणों द्वारा प्रभुत्त्व स्थापित करने के इस सैनिक प्रयत्न की भी प्रतिक्रिया प्रारंभ हो गई| पर इस बार यह प्रतिक्रिया एकदम नवीन विचारधारा, नवीन साधनों और व्यक्तियों द्वारा और नवीन परिस्थितियों में हुई|

मराठा युग तक आते आते हिन्दू और मुस्लिम शासक-वर्ग अत्यन्त ही क्षीण हो चुका था| सब प्रकार की बुराइयों ने उसमें अपना अड्डा जमा लिया था| प्रजा का शोषण और विलासिता, शासक वर्ग के केवल ये दो मुख्य कार्य रह गए थे| सैनिक और अराजकतावादी मराठों के उत्थान ने इनकी अवनति को लाने में आग में घी का काम किया| भगवान बुद्ध के पहले जो दशा समाज के प्रभु-वर्ग ब्राह्मणों की थी, उससे भी कहीं हीन दशा इस समय समाज के प्रभु-वर्ग क्षत्रियों अथवा राजन्य वर्ग की थी| एक ओर मुग़ल सल्तनत अपनी अंतिम सांसे भर रही थी, दूसरी और राजपुताना के व अन्य राजपूत राज्य परस्पर व मराठा सैनिकवाद से टकरा कर चूर हो रहे थे| इस संक्रांति-काल में देश को स्वतंत्र कर पुन: क्षत्रिय-साम्राज्य की स्थापना का स्वर्णिम अवसर आया था पर जिन परिस्थितियों और दुर्गुणों के शिकार उस समय के राजपूत नरेश हो रहे थे, उनमें स्वतंत्र साम्राज्य की स्थापना केवल स्वप्न मात्र ही कही जा सकती है|

जिस प्रकार ब्राह्मणों की हीन और अवनतिपूर्ण दशा ने क्षत्रिय और राजन्य वर्ग के सर्वोत्थान के लिए मार्ग प्रस्तुत कर दिया, उसी प्रकार क्षत्रियों और मुसलमान शासकों की इस निर्बलता ने वैश्य-उत्थान के लिए मार्ग खोल दिया| अंग्रेजों का भारत में आगमन इस वैश्य-उत्थान का प्रथम अध्याय कहा जा सकता है| जिस समय व्यवस्थित रूप से अंग्रेज भारत में साम्राज्य-स्थापना की चेष्टा में लगे हुए थे, उस समय तक भारत का क्षत्रिय वर्ग मराठों से टकरा कर अतीव क्षीण बन चूका था|
अतएव वह किसी भी महत्वशाली राजनैतिक परिवर्तन का स्वागत करने के लिए तैयार था| अंग्रेजों द्वारा सत्ता प्राप्ति इसी प्रकार का महत्वशाली परिवर्तन था| अंग्रेजों के इस आकस्मिक उत्थान के कारण राजपूतों को मराठों की अराजकता और लूटमार से तो छुटकारा मिल गया पर अंग्रेजों द्वारा सत्ता प्राप्ति के उपरांत उनका व्यवस्थित रूप से सर्वंगीण पतन भी प्रारंभ हो गया| यह नवोदित अंग्रेज बनियां-वर्ग राजपूतों को शांति और व्यवस्था की पुड़िया में मीठा विष-पान कराता रहा| अंग्रेजों ने शासन-संबंधी, तथा समाज की सुरक्षा के प्रति जो स्वाभाविक उत्तरदायित्त्व था, वह तो ले लिया पर अन्य सुविधाओं और भोग्य-प्रसाधनों को उनके पास ही रहने दिया| विलासिता की सामग्री और उसके भोग के अवसर की प्रचुर मात्रा में उपलब्धि निश्चित रूप से पतनदायी होती है, पर यदि यही सामग्री और अवसर किन्हीं उत्तरदायित्त्व और सिद्धांत हीन व्यक्तियों को अबाध और अनियंत्रित रूप से उपलब्ध हो जातें है तो उनके पतन को रोकने में स्वयं ब्रह्मा भी सफल नहीं हो सकते| ठीक यही दशा अंग्रेजों द्वारा भारत की सत्ता-प्राप्ति के उपरांत राजपूत राजाओं और जागीरदारों की हुई| इस व्यवस्था का परिणाम राजपूतों के नैतिक पतन और परावलम्बन, उनकी निष्क्रियता और साहसहीन के रूप में हुआ| उनका सम्पूर्ण आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक ढांचा जीर्ण और निर्बल हो गया और वह भी हल्के से धक्के द्वारा धराशाही होने की प्रतीक्षा में दिन बिताने लगा| अंग्रेजों द्वारा स्थापित तथा कथित शांति, सुरक्षा और व्यवस्था राजपूतों के नाश का सीधा कारण बनी|

अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् जिस बनियाँ-युग का भारत में सूत्रपात हुआ वह राजपूतों के लिए अत्यंत भयावह और पतनकारी सिद्ध हुआ| भारतीय बनियाँ-वर्ग जो अब तक ब्राह्मणों और क्षत्रियों के प्रभुत्त्व के कारण दबा हुआ था, अपने समानधर्मी अंग्रेज बनियाँ द्वारा प्रस्तुत अनुकूल वातावरण को पाकर एकदम उठ खड़ा हुआ| इन परदेशी और स्वदेशी बनियों के चातुरीपूर्ण कार्यों के जाल में राजपूत बुरी तरह से जा फंसे, पर ब्राह्मण वर्ग अब तक अपना दीर्घकाल तक पतन देखने के उपरांत और एकाध क्षत्रिय गुण को अपनाकर अपने पुनरुत्थान के प्रयास की मराठों की विफलता के रूप में विफलता देख लेने के उपरांत सावधान हो चुका था, अतएव ब्राह्मण-वर्ग ने इतिहास से शिक्षा लेकर व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ना प्रारंभ किया| इस समय न तो उसने अपने खोये हुए योग-बल ओर चमत्कार का सहारा लिया और न विफल-मनोरथ-सिद्ध सैनिकवाद को अपनाया| ब्राह्मणों के बुद्धिजीवी अंशों ने युगधर्म को पहचान कर पूंजीपति बनियों द्वारा समाज पर प्रभुत्त्व प्राप्ति के प्रयास में योग देना आरम्भ कर दिया और अब बनियाँ और ब्राह्मण एक दुसरे के विरोधी न रहकर पूरक और सहायक बन गए| यह एक विचित्र संयोग था| भारतीय इतिहास में यह पहला ही समय था जब ब्राह्मणों को सत्ता-प्राप्ति और क्षत्रियों के नाश के लिए वैश्यों से गठबंधन करना पड़ा| भारत में इन दो बुद्धिजीवी और पूंजीजीवी जातियों का यह गठबंधन राजपूतों के पूर्ण विनाश की सामग्री जुटाने में पूर्ण सफल हुआ|

जब बिलायती बनियों (अंग्रेजों) और भारतीय बनियों के स्वार्थ में खिंचाव उत्पन्न हो गया तथा अन्तराष्ट्रीय संग्मंच पर नवोदित समाजवाद और साम्यवाद विचारधारा के कारण शोषित और शोषक-वर्ग में वर्ग-संघर्ष का सूत्रपात हो गया, तब भारत के इस दूरदर्शी पूंजीपति बनियाँ-वर्ग ने बुद्धिजीवी ब्राह्मण-वर्ग का सहारा पाकर अंग्रेजों और अन्तराष्ट्रीय साम्यवादी विचारधारा से लोहा लेना आरम्भ किया| ब्राह्मणों को ढाल के रूप में प्रयोग कर, भारतीय बनियाँ इस संघर्ष का पर्दे के पीछे से संचालन करने लगा| इस संघर्ष में साम्यवादी विचारधारा को सीधा लक्ष्य नहीं बनाया गया, बल्कि उसके समर्थन की ओट में साम्राज्यवाद और सामंतवाद को लक्ष्य बनाया गया| बनियों का यह विचित्र प्रकार का रक्षात्मक संघर्ष था| इस संघर्ष की योजना के अंतर्गत रक्षा और सत्ता- प्राप्ति दोनों सन्निहित थी|

क्रमश:

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