Wednesday, October 30, 2013

परिचय - २ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -१ से आगे........
इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण यह मेरा रुचिकर विषय रहा है| साहित्य की भांति ऐतिहासिक सामग्री भी किसी जाति के जीवन का मूल्यांकन करने के लिए पूर्ण समर्थ और सबल कसौटी है| पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास का जिस प्रकार आदि-युग, पाषाण-युग, धातु-युग आदि के रूप में काल-विभाजन किया है, वह भारतीय इतिहास पर पूर्णरूपेण लागू नहीं हो सकता| यह काल-विभाजन विकासोन्मुखी पश्चिमी सभ्यता पर पूर्ण घटित होता है, जो यह मान कर चलती है कि उनके आदि पूर्वज असभ्य और पशुवत जीवन व्यतीत करते थे और अब वे क्रमिक रूप से सभ्यता की और बढ़ रहे है| वे बंदरों से मनुष्य हुए है और हम देवताओं से मनुष्य हुए है| हमारा आदि युग किसी पाषाण और असभ्य युग का बोध न करा कर हमें सत-युग का बोध कराता है जिसमें मनुष्य को पूर्ण बनाने वाला मानव-अस्तित्त्व का परम आभूषण धर्म अपने चारों चरणों सहित विद्यमान था| देवत्त्व से पतित और रूपांतरित होकर मनुष्यत्त्व प्राप्त करने के कारण हम आज ह्रासोन्मुख सभ्यता का प्रतिनिधित्त्व करते है| यही कारण है कि हमें पूर्वजों पर अधिक गर्व है और हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विगत संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करते है| देवत्त्व से च्युत होने के कारण पुन: देवत्त्व की प्राप्ति का निर्दिष्ट लक्ष्य हमारे सामने है| हमारे समस्त आचार-विचार मनुष्यत्व से देवत्व और अपूर्णता से पूर्णता की और ले जाने वाले होते है; पर पाश्चात्य संसार के सामने पूर्णता का ऐसा कोई आदर्श नहीं है| यही कारण है कि वे अपने भावी लक्ष्य के प्रति अस्पष्ट और अनिश्चित है| वे अपने असभ्य पूर्वजों पर शर्मिंदा है और गत असभ्य युग की और प्रेरणा के लिए न देखकर सदैव भविष्य की और ताकते रहते है| पर भविष्य की कोई निश्चित, स्पष्ट और पूर्ण रुपरेखा उनके सामने न होने के कारण वे नाना प्रकार के प्रयोगवादों में ही फंसे रहते है| पाश्चात्य रंग में रंगे हुए आज के अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी भी अपने पूर्वजों पर शर्मिंदा, प्राचीन संस्कृति से खिन्न और रुष्ट है| और इसीलिए वे स्वयं आज प्राचीन संस्कृति को समाप्त कर, किसी नये युग का प्रवर्तन कर, भावी संतानों द्वारा युग-प्रवर्तक और आदर्श महापुरुष के रूप में पूजित होना चाहते है|

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वांगमय के रूप में देखने को मिलता है| वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन-दर्शन, समाज-व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिल जाता है| त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास से तो समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है| रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है| महाभारत-काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास ब्राह्मणमय और राजनैतिक और सामाजिक इतिहास क्षत्रियमय है| महाभारत काल के पश्चात् का लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है| पर यह बताने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है कि उस समय समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्त्व था| मौर्यकाल से भारत का तिथिवार-क्रम-बद्ध इतिहास उपलब्ध है| मौर्यकाल से लगा कर इस्लाम के आक्रमण तक भारत वर्ष की क्षत्रिय जाति सार्वभौम प्रभुत्त्व-संपन्न जाति रही| ऐतिहासिक घटनावली का दिग्दर्शन मैंने आगे के अध्याय में करा दिया है अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इस्लामी प्रभुत्त्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली, मर-मर कर पुनर्जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दू भारत का इतिहास था| संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत के इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरांत शेष कुछ भी नहीं बचता है|

इस समस्त इतिहास को पढ़ लेने के उपरांत मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इस संसार में क्षत्रिय जाति के अतिरिक्त कदाचित ही कोई जीवित जाति होगी जिसके इतिहास की इतनी सुदीर्घ परम्परा हो| जिस जाति का इतना उज्जवल दीर्घ और गौरवमय इतिहास हो वह भावी इतिहास बनाने में इतनी तटस्थ, निर्लिप्त और उदासीन कैसे रह सकती है| मैं पुन: वही प्रश्न करता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने अभी तक भारतीय इतिहास की इस गौरवमयी श्रंखला का अध्ययन किया ही नहीं है ? यदि किसी ने इस गौरवमय इतिहास का सम्यक रूप से अध्ययन किया है तो उसके हृदय को अशांत और विक्षुब्ध कर मथ देने वाली पीड़ा का अभी तक उदय क्यों नहीं हुआ ? इतिहास विदेशियों के लिए घटनाओं की जानकारी के लिए लिखे जातें है पर स्वजनों के लिए वे प्रेरणा और आदर्श ग्रहण करने के लिए होते है| जिन जातियों का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं, उन जातियों का यदि जीवन अस्त-व्यस्त, लक्ष्य-भ्रष्ट और उनकी प्रगति की रुपरेखा अनिश्चित, अस्पष्ट और परमुखापेक्षी हो तो यह समझ में आने वाला तथ्य है| पर जिस जाति के पास धरोहर के रूप में इतना स्फूर्तिमय और गौरवशाली इतिहास हो, वह अपना कर्तव्य निश्चित नहीं कर सकती, यह महान आश्चर्य की बात है| आज राजपूतों को कर्तव्य-ज्ञान कराने की क्या आवश्यकता है ? उन्हें तो केवलमात्र सम्यक रूप से इतिहास का ज्ञान करा देना चाहिये|

मैंने इतिहास को इसी प्रकार कर्तव्य-पुस्तक के रूप में पढ़ा है| उसकी तिथियों, घटनावली और तथ्यों का ज्ञान हमारे लिए विशेष उपादेय नहीं है| हमें तो उससे प्रेरणा ग्रहण कर राष्ट्र के भावी इतिहास-निर्माण में सक्रीय भाग लेना है| इतिहास की इस प्रचुर सामग्री को देख कर मैं यह विश्वास करने के लिए कभी बाध्य नहीं हो सकता कि हजारों वर्षों से गौरवशाली इतिहास का निर्माण करने वाली यह राजपूत जाति पददलित और पतित होकर समाप्त हो जायेगी| मैं यह कैसे स्वीकार करूँ कि अनुपम वीरता, अतुल पराक्रम, अद्वितीय साहस, महान त्याग और बलिदान की यह परम पवित्र पयस्विनी परम्परा इस युग में विलुप्त होकर सदैव के लिए अन्तर्धान हो जायेगी! नहीं, हम कदापि समाप्त नहीं होंगे; समाप्त हो नहीं सकते, संसार की कोई शक्तिशाली अथवा धूर्त शक्ति हमें मिटा नहीं सकती| इसी विगत इतिहास के मूलभूत सिद्धांतों की पुनरावृति कर, गौरव से जय-घोष करने के लिए हमें दृढ़तापूर्वक तैयार हो जाना होगा| पूर्वजों के हजारों वर्षों के अथक परिश्रम और बलिदान को व्यर्थ जाने देना आज के इस युग की सबसे बड़ी कायरता और निर्लज्जता होगी और इसीलिए विघटन करने वाली विरोधी शक्तियों को रोने दो; चिल्लाने दो; उनके विरोध को धैर्य, साहस, दृढ़ता और निर्दयतापूर्वक कुचलते हुए आगे बढ़ जाओ| हमने जीवन के किस अंग पर अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ी है? मनुष्य जब अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की प्रिप्ती और पूर्ति के उपरांत जीवन के जिस सूक्ष्म स्वरूप की रुपरेखा बनाता है, वही सौन्दर्य की सृष्टि का सत्यमय व्यापार है| स्थूल आवश्यकताओं से छुटकारा पाकर वह जीवन के सूक्ष्म और सुन्दर उपकरणों को जुटाता है; जीवन की अभिव्यक्ति सत्यं, शिवं और सुन्दरम के रूप में करना चाहता है| मनुष्य की यही सृजनात्मक प्रक्रिया उसे पशुत्त्व से मनुष्यत्त्व प्रदान करती है| मानव-जीवन की यही सृजनात्मक और उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति विभिन्न कलाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर इस विराट संसार की अभिव्यक्ति के साथ एकाकार हो जाती है| और यह वास्तव में उचित भी है; क्योंकि मनुष्य उसी महान कलाकार का इस संसार में प्रतिनिधित्त्व करता है| उस महान कलाकार की अभिव्यक्ति और मनुष्य की अभिव्यक्ति वास्तव में एक ही अभिव्यक्ति के दो भिन्न-भिन्न रचनात्मक पहलू है| मानव द्वारा सृजित कलाओं का यही विविध रूप उसकी सभ्यता और प्रगति की स्थिति और स्वरूप को सही रूप से नापने और तौलने का एकमात्र यंत्र है|

क्रमश:....

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