Wednesday, October 30, 2013

परिचय - ३ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग-२ से आगे....
विराट पुरुष के अपने विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति जिस कौशल-वैचित्र्य और चतुराई के साथ भारतवर्ष में की है, वह अद्वितीय है| यहाँ का विविध-रूपा प्राकृतिक सौन्दर्य परमोत्कृष्ट है| इसी भांति मनुष्य ने भी भारतवर्ष में अपने सूक्ष्म-सौन्दर्यमय जीवन की विभिन्न कलाओं के रूप में जो अभिव्यक्ति की है, वह भी अद्वितीय और परमोत्कृष्ट है| यहाँ पर जीवन के प्रत्येक सूक्ष्म और सुन्दर व्यापार को कला के रूप में ग्रहण किया गया है| इसीलिए यहाँ पर कलाओं की संख्या चौसठ तक पहुँच गई है|

इन कलाओं का विकास विभिन्न जातियों और व्यक्तियों द्वारा अवश्य हुआ है पर इनकी रक्षा एक मात्र क्षत्रियों द्वारा ही हुई है| सब प्रकार के कलाकार और कलावंत राज-दरबार में ही आश्रय ग्रहण करते थे| राज्याश्र्यों में फलिफूली ये ही विभिन्न कलाएँ हिन्दू सभ्यता का उच्च स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है| क्षत्रिय स्वयं कलाकार, कलावंत, कलाओं के पारखी और प्रोत्साहन देने वाले होते थे| मैं यदि यह दावा करूँ कि संसार की कोई एक जाति इतनी कलामर्मज्ञ और कला-प्रिय नहीं रही है जितनी कि क्षत्रिय जाति रही है तो अत्युक्ति नहीं होगी|

यही नहीं, ललित कला के रूप में पुकारी जाने वाली कलाओं पर तो राजपूत जाति की विशिष्ट छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व के पूर्व भारतवर्ष में कला के क्षेत्र में भारतीयता थी| यही भारतीयता क्षत्रिय अथवा राजपूत कला थी और यही राजपूत कला हिन्दू-कला थी| इस्लाम के आगमन के उपरांत फारस और अन्य इस्लामी देशों की कलाओं और कलाओं के प्रति उनकी मान्यताओं और आदर्शों का यहाँ जब आगमन और मौलिकता को अक्षुष्ण रखने के लिए अपना जो पृथक स्वरूप स्थिर रखा, उनका वही पृथक स्वरूप आज भी राजपूत-कला के नाम से विख्यात है| उस समय राजपूतों ने भारतीय कला की आत्मा और शरीर को विशुद्ध, मौलिक और सुरक्षित रखा| इतना ही नहीं, उन्होंने उस समय कला के नये स्वरूपों और उसकी शैलियों का भी अविष्कार किया| जीवन की परिवर्तन और बढती हुई आवश्यकताओं और मान्यताओं के अनुसार कला को नवीन सांचे में ढाला और उसे नवीन रूप प्रदान किया| इस प्रकार राजपूतों ने न केवल इस्लाम और अन्य विदेशी आक्रान्ताओं की विध्यवंसात्मक आंधी से भारतीय कला को सुरक्षित ही रखा, अपितु उन्होंने स्वयं ने नवीन कला को जन्म दिया; उसके नवीन स्वरूपों की उदभावना की तथा समय और परिस्थिति के अनुसार उसका विकास और वर्धन किया| स्थापत्य और शिल्प कला में राजपूत-रूचि ने एक विशेष प्रकार की शैली का रूप धारण कर लिया, जो आज भी भारत के एक कोने से दुसरे कोने तक फैले हुए मंदिरों, दुर्गों और भवनों की बनावट की विशिष्टता और सूक्ष्मता के रूप में देखी जा सकती है| मूर्ति-कला का स्वर्ण युग भारत में बौद्ध-काल था| उसके उपरांत विकसित होने वाली मूर्ति-कला पर एक मात्र राजपूतों की रूचि, मान्यता और संस्कृति की छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व की युवावस्था तक आते आते तो उच्च कोटि की मूर्तियों का निर्माण एक मात्र राजस्थान तक ही सीमित रह गया था| चित्रकला में तो राजपूत शैली विश्व-विख्यात है ही| प्राचीन भित्ति-चित्र कला को न केवल राजपूतों ने सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसमें मौलिक और सुन्दर कल्पनाओं का समावेश कर नव-जीवन और नव-स्वरूप भी दिया है| वर्तमान चित्रकला के अध्ययन में राजपूत-शैली अपना विशेष महत्त्व रखती है| इसी भांति प्राचीन भारतीय नृत्य और संगीत न केवल राजपूतों का आश्रय पाकर सुरक्षित ही रहा है, अपितु वह उनके द्वारा और भी अधिक सुन्दर और विकसित हुआ है| भारतीय नृत्य कला में राजपूत-नृत्य एक विशिष्ट और मौलिक शैली है| इसी भांति राग-रागनियाँ, वादन और गायन आदि संगीत के सभी क्षेत्रों में राजपूत-रूचि अपना विशिष्ट स्थान रखती है| काव्य को यदि हम कला के रूप में ग्रहण करें तो भी और उसे कला के रूप में ग्रहण न करें तो भी प्रत्येक दशा में वह राजपूतों का चिर ऋणी है| अन्य भारतीय साहित्य और काव्य भी इतनी प्रचुर मात्रा में है कि उसका कोई एक व्यक्ति अपने जीवन-काल में अध्ययन भी नहीं कर सकता| जिस कला का राजपूतों द्वारा संरक्षण, उदभव और विकास हुआ, वह स्वरूप मौलिकता, प्रभाव आदि गुणों में सर्वांग सुन्दर और स्वस्थ है| संसार के किसी भी सभ्यतम देश की कलाओं से उसकी तुलना की जा सकती है| वह अति सभ्य और सुसंस्कृत जाति और समाज की अभिव्यक्ति करने में आज पूर्ण समर्थ और सबल है|

मैं फिर उसी प्रश्न को दोहराता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने आज तक इन विभिन्न कलाओं के रूप में फैली और बिखरी हुई राजपूत जाति की महानता को देखा और समझा ही नहीं है ? यदि किसी ने देखा है तो उसके हृदय में इस महान जाति की महानता के प्रति श्रद्धा और उसके पतन के प्रति विक्षोभ क्यों नहीं उत्पन्न हुआ ? ये कलाएँ हमें अपनी महानता और सजीवता का स्मरण दिलाती है| ये हमें भविष्य में महानता से च्युत होकर क्षुद्रत्व सहित जीवन यापन करने की प्रेरणा नहीं देती है वरन एक सबल और महान जाति के रूप में अपने गौरव को सुरक्षित रखते हुए जीवित रहने का हमसे आग्रह करती है| इन कलाओं का दिग्दर्शन कर लेने के उपरान्त हमारी एक सबल जाति के रूप में जीवित रहने की लालसा और बढ़ जाती है| हम अब किसी भी दशा में महानता से पतित होकर नीच और क्षुद्र जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार नहीं हो सकते| हमें इन कलाओं का आग्रह स्वीकार करना ही है; यही हमारा अंतिम और एकमात्र निर्णय होगा|

अब हमें संस्कृति के आधार पर राजपूत जाति के स्थान को ढूँढना होगा| शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भूषण-भूत सम्यक कृति अथवा चेष्टा ही संस्कृति कही जा सकती है| दुसरे शब्दों में मनुष्य के लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कृति है| हिन्दुओं के इसी लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय का आधार वर्णाश्रम-व्यवस्था है| अतएव वर्णाश्रम धर्म के अनुसार क्षत्रिय आचार-विचार ही क्षात्र-धर्म और उसकी चेष्टाएँ क्षत्रिय अथवा राजपूत संस्कृति है| इस प्रकार महान और व्यापक हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत राजपूतों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है| यह विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कलाकौशल, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण और भी सबल और पुष्ट बनी है| जिस समय आज की अन्य सभ्य जातियों में सामाजिकता की भावना केवल बीज रूप में ही उदय हुई थी, उस समय क्षत्रिय सुव्यवस्थित और सुन्दरतम शासन-प्रणाली को कार्यन्वित कर चुके थे| राजधर्म और शासन-व्यवस्था के उन मूलभूत और सर्वमान्य सिद्धांतों से वे उस समय परिचित थे जिस समय आज की अन्य जातियां केवल छोटे-छोटे झुंडों में रहना तक नहीं सीख पाई थी| सत्ता के विकेंद्रीकरण और व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ने पृथक्करण की उपादेयता के व्यावहारिक सिद्धांतों से वे दस हजार वर्ष या उससे भी कहीं पहले परिचित हो चुके थे| संसार की अन्य जातियों की राज-व्यवस्था और शासन-प्रणाली की भांति क्षत्रियों की अपनी राज्य-व्यवस्था और शासन-प्रणाली है और अब तक संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं और शासन-प्रणालियों से क्षत्रियों की राज्य-व्यवस्था सर्वाधिक सफल, सुदीर्घ और स्थाई सिद्ध हुई है| क्षत्रिय एक प्रकार की शासन-व्यवस्था का प्रतिनिधित्त्व करते है जिसका गत ढाई तीन हजार वर्ष से लगातार पतन हो रहा है और आज यह पतितावस्था में भी नव-निर्मित और नव-स्वीकृत संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं से किसी दशा में गिरी हुई नहीं कही जा सकती| क्षत्रियों की शासन-व्यवस्था पर मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है| यहाँ तो केवल मात्र इतना ही बताना शक्य है कि क्षत्रिय एक ऐसी जाति है जिसकी स्वयं की राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली है तथा ये राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रही तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई|

इसी भांति राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संगठन के प्रति राजपूतों का अपने दृष्टिकोण को सम्यक प्रकार से समझ कर क्रियान्वित करने के उपरांत देश में गरीबी, भुखमरी और पूंजी-जनित व्याधियां उत्पन्न हो ही नहीं सकती| इस विषय पर भी मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र प्रकाश डाला है, अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इसी प्रकार इतने लंबे समय में जहाँ राजपूतों ने एक और भारतीय संस्कृति की रक्षा की वहां दूसरी और उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का भी निर्माण किया| यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है| आज राजपूत संस्कृति नाम की एक पृथक और स्वतंत्र वस्तु बन चुकी है| राजपूतों का लौकिक और पारलोकिक अभ्युदय अथवा कल्याण के प्रति अपना स्वयं का दृष्टिकोण है और वह दृष्टिकोण अत्यंत ही व्यावहारिक तथा सर्वांग सुन्दर तथा पूर्ण परीक्षित है| इस विशिष्ट संस्कृति की विशिष्टता और महानता पर भी इस पुस्तक में अन्यत्र विचार किया जायेगा; यहाँ तो केवल इतना ही प्रतिपादित करना है कि राजपूत एक ऐसी जाति है, जिसकी स्वयं की एक पूर्ण विकसित और स्वतंत्र संस्कृति है| इस राजपूत संस्कृति को साहित्य, भाषा, इतिहास की त्यागमयी परम्पराओं, कला-कौशल, राज्य-व्यवस्था, रहन-सहन आदि के रूप में बनाने में कितना अधिक समय लगा है? इसके बनाने और रक्षित करने में अब तक कितना अधिक मूल्य चुकाना पड़ा है ? इस समस्त समय, परिश्रम और बलिदानी को सही रूप में नापने का आज हमारे पास कोई यंत्र नहीं है| और इस समस्त त्याग, परिश्रम और बलिदान के उपरांत जो संस्कृति निर्मित हुई है, वह कितनी महान उज्जवल और गौरवमयी है| उसे देखकर हमारा मस्तक लज्जा से झुक नहीं जाता है वरन गर्व से ऊपर उठता है| तब क्या परमोज्ज्वल संस्कृति को नष्ट होने दिया जाये ? यदि नहीं, तो उसकी रक्षा के लिए हमने अब तक क्या किया ? अज्ञान, स्वार्थ, कायरता और निर्बलता के कारण आज हम स्वयं इस संस्कृति को नष्ट होने में योग दे रहे है| हृदय पर हाथ रखकर पूछिये अपनी आत्मा से कि मेरे इस कथन में वास्तविकता है अथवा नहीं ?

विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला, विशिष्ट रहन-सहन, रीति-रिवाज, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक योजना, विशिष्ट जीवन-दर्शन, विशिष्ट पारलौकिक अभ्युदय की मान्यता, विशिष्ट संस्कृति और विशिष्ट आदर्श मान्यताएं और परम्परा होने के कारण राजपूत न एक वर्ग है, न एक वर्ण है और न एक समुदाय अथवा मत ही है, वरन यह एक पूर्ण विकसित जाति है और जाति से भी बढ़कर एक पूर्ण विकसित राष्ट्र है| अतएव राजपूतों को भविष्य में एक जाति और राष्ट्र के रूप में जीवित रहने और आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये| तथा उन्हें अपने राष्ट्रीय जीवन, भाषा, साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि की रक्षा और वृद्धि में किसी भी बात की कमी नहीं रखनी चाहिये| और आज जब भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित यह जनतंत्र अथवा बहुमतवाद हमारे प्रति आततायी होकर हमें समाप्त करने में पूर्ण-रूपेण सचेष्ट है, तब हमें आत्म-रक्षा के रूप में अपनी इस विशिष्टता को और भी दृढ़ता और आग्रहपूर्वक बनाये रखना चाहिये|

क्रमश:...

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