Monday, October 21, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - भाग-२ (राजपूत और भविष्य)

भाग -१ से आगे....

सतोगुणी जातीय-भाव के निर्माण की दूसरी शर्त समाज के प्रत्येक व्यक्ति को भ्रातृत्व के अटूट संबंधन की डोर में बाँध देना| प्रत्येक राजपूत में इस भावना का निर्माण करना आवश्यक है जिससे वह सब राजपूतों को अपना भाई समझ कर सदैव तन,मन,धन से उसकी सहायता करने के लिए तत्पर रहे| एक व्यक्ति का दुःख सब का दुःख एक का अपमान सब का अपमान, एक की समस्या सबकी समस्या और एक का अभाव सबका अभाव बन जाय| एक भाई की पीड़ा से सारा समाज चीत्कार उठे और सामूहिक प्रयत्न द्वारा एक की पीड़ा का निराकरण हो जाये| इसी भांति राजपूत जाति का अपमान प्रत्येक व्यक्ति का अपमान, उसका दुःख प्रत्येक व्यक्ति का दुःख और उसकी समस्या प्रत्येक व्यक्ति की समस्या बन जाय| व्यक्ति का शत्रु, समाज का शत्रु और समाज का शत्रु प्रत्येक व्यक्ति का शत्रु समझ लिया जाय| आर्थिक सम्पन्नता, सरकारी पद, शैक्षिणिक योग्यता और अन्य इसी प्रकार की विशिष्टताएं सामाजिक साम्यवाद और पारस्परिक सहयोग के क्षेत्र में बाधाएं बनकर सामने नहीं आनी चाहिए| आज भी अधिकांश बड़े और संपन्न जागीरदार गरीब और छोटे राजपूत से घृणा करते है, आर्थिक दृष्टि से उन्हें पंगु और परावलम्बी बनाकर सामाजिक क्षेत्र में उन पर अपनी प्रभुता और सम्पन्नता की धाक जमाते है और इस प्रकार उनमें आत्म-लघुत्त्व की भावना उत्पन्न करने में तल्लीन दिखाई पड़ते है| दूसरी ओर कतिपय नवशिक्षित गरीब राजपूत भी इन बड़े जागीरदारों को मुर्ख, अनुपयोगी और स्वार्थी समझ कर उनसे घृणा करने लग गए है| ये दोनों दशायें अनुचित है| अब हमें छोटे-बड़े, उंच-नीच, गरीब- अमीर आदि की भाषा में सोचना बंद कर देना चाहिये| जो राजपूत सरकारी बड़े पदों पर आसीन है उनकी मनोदशा तो और भी विचित्र है| अपने श्वेत-पोश महाप्रभुओं को प्रसन्न करके तरक्की पाने और वफ़ादारी और निष्पक्षता का प्रमाण पत्र लेने की इच्छा से ये राजपूत पदाधिकारी अपने राजपूत भाइयों पर किसी भी प्रकार का अत्याचार करने से नहीं चूकते| औचित्य, न्याय और कानून भी सीमाओं के भीतर रहते हुए भी राजपूतों की सहायता करना उनकी “निरपेक्ष नीति” को ठेस पहुंचाने वाली बात होती है| इस प्रकार की दब्बू, अयोग्य और अनुचित नीति का अनुसरण करना उनकी आत्म-दुर्बलता, मानसिक अयोग्यता तथा नैतिक पतन का परिचायक है| औचित्य, न्याय और कानून की सीमा में रहते हुए प्रत्येक राजपूत पदाधिकारी को अपने अन्य राजपूत भाइयों की अधिक से अधिक सहायता करनी चाहिये| हमें इस मन्त्र को दृढ़तापूर्वक हृदयंगम कर लेना चाहिये कि हम राजपूत पहले है और कुछ बाद में| जब यह मनोदशा हमारे में उत्पन्न हो जायेगी तब हम कहीं भी किसी भी संस्था और दशा में रहते हुए समाज की महत्त्वशाली सेवा कर सकते है|

इस प्रकार की जातीय-भावना का निर्माण करने के लिए हमें समाज में एक कौटुम्बिक वातावरण का निर्माण करना पड़ेगा| सम्पूर्ण राजपूत जाति को एक बहुत बड़ा कुटुम्ब मान कर कार्य करना पड़ेगा| समाज के समस्त लोगों को सामूहिक और सहयोगी जीवनयापन के लिए अभ्यास कराना पड़ेगा| इस प्रकार कौटुम्बिक भावना और सहयोगी और सामूहिक जीवनयापन के संस्कारों का निर्माण हम तदनुकूल परिस्थितियों और वातावरण उत्पन्न करके कर सकते है| सम्पूर्ण समाज में इस प्रकार का मधुर वातावरण उत्पन्न कर और उसे सामूहिक और सहयोगी जीवन के संस्कारों में ढालते हुए क्षत्रियोचित गुणों का अभ्यास कराना किसी सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा ही संभव हो सकता है| इस प्रकार की सामाजिक संस्थाओं को हमें सामूहिक रूप से अपनाना चाहिये जो सांस्कृतिक और वैज्ञानिक प्रणाली द्वारा हमारे में सहयोगी और सामूहिक जीवनयापन के संस्कारों का निर्माण कर सके, तथा सम्पूर्ण राजपूत जाति को एक सुखी और सबल परिवारों में बदल सके| यह जान लेने की आवश्यकता है कि “क्षत्रिय युवक संघ” के अतिरिक्त और कोई सामाजिक संस्था आज इस ध्येय की पूर्ति नहीं कर रही है| जातीय-जीवन को सुरक्षित रखने के लिए हमें अन्य ऐसी सामाजिक संस्थाओं को जीवित रखने की भी आवश्यकता है जिनके वार्षिक सम्मेलनों आदि के बहाने हम एक साथ बैठ कर अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकें| राजनैतिक संस्थायें इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकती, अतएव हमें अपने जातीय संगठनों को जीवित और प्रभावशाली बनाये रखने का सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिये| इन्हीं संगठनों द्वारा हमें अपने सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों के संरक्षण का प्रयास करना चाहिये|

इन्हीं जातीय संगठनों द्वारा हमें सम्पूर्ण राजपूत जाति के सोये हुए संस्कारों को जगाना है| सम्पूर्ण राजपूत बालकों में क्षत्रियोचित संस्कारों का निर्माण कर उन्हें स्वधर्म-युद्ध के लिए उत्साही योद्धाओं के रूप में बदलना है| उन्हें एक ध्येय के पवित्र बंधन में बांधकर एक सी साधना के द्वारा क्षत्रियोचित गुणों का अभ्यास कराना है| एक साध्य एक साधना और एक साधन द्वारा समान गुण, कर्म और स्वभाव वाले साधकों को सुसंस्कृत और दीक्षित करना ही सच्चे संगठन को जन्म देना है| राजपूत जाति के उत्साही वीरों की इस प्रकार की सेना तैयार करनी है जो सर्दी, गर्मी, वर्षा, आंधी, भूख, प्यास, दुःख, सुख, नींद आदि रुकावटों और परिस्थितियों के ऊपर उठकर सदैव प्रसन्नतापूर्वक कार्य कर सके, जो ध्येय के प्रति परिस्थितिनिरपेक्ष होकर अविचल और अविरल रूप से अपना क्षय करते हुए आगे बढ़ सकें| जिन्हें अभाव, आपदायें और विरोधी परिस्थितियां किंचितमात्र भी विचलित नहीं कर सके| हमें ऐसे कार्यकर्ताओं का निर्माण करना है; जिनके कर्तव्य-मार्ग में आने वाली भय, दबाव, प्रलोभन और शंकायें पुरुषार्थ-शक्ति के सामने स्वत: चूर चूर होकर समाप्त हो जाये| इस प्रकार के उत्साही वीर जब एक नेतृत्व की आज्ञा में ध्येय प्राप्ति के लिए निरंतर रूप से कार्य करते हुए आगे बढ़ते है तब उन्हें संसार की कोई भी बाधा रोकने का सामर्थ्य नहीं रखती| एक ध्येय के प्रति अटूट निष्ठावान, एक नेता की आज्ञा पर सर्वस्व बलिदान करने की भावना से परिपूर्ण, किसी भी परिस्थिति और वातावरण में कार्य करने की क्षमता रखने वाले उत्साही, साहसी, तेजस्वी, चरित्रवान, धैर्यवान और ज्ञानी व्यक्तियों के संगठन का नाम ही शक्ति है| यही शक्ति अन्य सब प्रकार की शक्तियों को उत्पन्न और गतिवान करने वाली महाप्रेरक शक्ति है| निर्जीव और भौतिक शक्ति की आज हमें क्या आवश्यकता ? हम तो आज उस सजीव शक्ति का निर्माण चाहते है जो इंगित मात्र पर साधन-शक्ति, श्रम-शक्ति आदि का सृजन कर दे, पल मात्र में असंभव को संभव और दुर्गम को सुगम बना दें और पहाड़ों को उलट कर पृथ्वी को रोंद डाले| इसी प्रकार की शक्ति सामर्थ्यवान होती है और यही सामर्थ्य ध्येय-रूपी मोक्ष-प्राप्ति का एकमात्र सिद्ध-मन्त्र है| सजीव और चेतन शक्ति का निर्माण करना हमारी कार्य-प्रणाली का एक मात्र लक्ष्य होना चाहिये| हमें अपनी ध्येय-प्राप्ति के लिए कब कौनसे साधन और कौन सी प्रणाली अपनानी चाहिये यह सब कुछ बाह्य परिस्थितियों और हमारी स्वयं की शक्ति पर निर्भर है, पर हमें जिस शक्ति का निर्माण करना है वह सब प्रकार की परिस्थियों और सब प्रकार के साधनों द्वारा समान रूप से कार्य करने की क्षमता रखने वाली अवश्य होनी चाहिये| इस प्रकार की शक्ति के निर्माण बिना जो व्यक्ति के उत्थान और ध्येय-प्राप्ति की दिशा में सोचते है वे अपनी विचार और और परिश्रम-शक्ति का केवल दुरूपयोग मात्र करते है|

जातीय-भावना का निर्माण करने के लिए हमें महापुरुषों की जयन्तियां, झुंझार मेले और इसी प्रकार के सांस्कृतिक सम्मलेन सामूहिक से मनाने चाहिए| सब इतिहास-प्रसिद्ध महापुरुषों की जयन्तियां ही यदि सामूहिक रूप से मनाई जायें तो वर्ष का एक दिन भी शायद बिना किसी उत्सव के नहीं रहेगा| प्रसिद्ध युद्ध-स्थलों, किलों और धार्मिक महत्त्व के स्थानों पर मेले लगाये जा सकते है| जातीय-भावना को प्रेरणा देने वाले त्योंहारों में सबसे महत्त्वपूर्ण है विजयादसमी का त्योंहार| राजपूतों के लिए इस पर्व से बढ़कर अन्य कोई पर्व नहीं है, अतएव विजयादसमी को सब स्थानों पर सामूहिक समारोह से मनाना चाहिये| राज-दरबारों के पतन के कारण इस त्योंहार को मनाने में जो निरुत्साह और शिथिलता की भावना आ गई है उसे दूर करने की आवश्यकता है| शस्त्रास्त्र-संचालन, प्रतिस्पर्धा, घुड़दौड़, ऊँटों की दौड़, सामूहिक भोज आदि कार्यक्रम इस पर्व पर रखे जा सकते है| इसी प्रकार गणगौर और अन्य प्रकार के ऐसे त्योंहारों को भी खूब तैयारी और उत्साह के साथ मनाना चाहिये| पशु-दौड़, शस्त्रास्त्र प्रतियोगिता और सामूहिक खेल आदि इन अवसरों पर रखे जाने चाहिये| रात्री के समय डिंगल कवि-सम्मलेन अथवा डिंगल काव्य-पाठ रखा जा सकता है| डिंगल-काव्य में संजीवनी शक्ति है, अतएव उसका रसास्वादन कर हमें अवश्य लाभ उठाना चाहिये| जिस जाति का साहित्य नहीं उसकी प्रगति असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है| साहित्य-दर्पण में जहाँ एक और जातीय-जीवन का वास्तविक स्वरूप देखने को मिलता है, वहां दूसरी और भविष्य के लिए उसमें प्रेरणात्मक संदेश भी भरे रहते है| साहित्य में नव-शक्ति, नव-प्रेरणा, नव-स्फुरण, नव-संदेश आदि उन्नति पथ पर गतिमान कर देने वाली प्रचुर सामग्री रहती है| डिंगल साहित्य में इसी प्रकार की संजीवनी-सामग्री प्रचुर मात्रा में है| वह आज हमें स्वाभिमान से जीवित रहने और गौरव से मरने के लिए तत्पर करने वाला अदभुत और सफल मन्त्र है| अतएव प्राचीन डिंगल-साहित्य के प्रकाशन और प्रचार में विशेष रूचि लेना हमारे उत्थान की महत्ती आवश्यकता है| बालकों को डिंगल-काव्य के प्रभावपूर्ण और मार्मिक स्थलों का रसास्वादन कराना उतना ही आवश्यक है जितना उन्हें रामायण और गीता के तत्वों का ज्ञान कराना| इस डिंगल साहित्य के निर्माताओं और विशेष कर महान चारण जाति के प्रति राजपूतों को सदैव कृतज्ञ, उदार और श्रद्धालु रहना चाहिये|

जातीय-भाव उत्पन्न करने में वैवाहिक सम्बन्ध एक महत्वपूर्ण वस्तु है| आजकल कतिपय संपन्न राजपूत घरानों का अंतरजातीय विवाह सम्बन्ध की और झुकाव दिखाई पड़ रहा है| हमें रक्त की शुद्धि का सदैव ध्यान रखना चाहिए, अतएव अंतरजातीय विवाह-संबंधो को प्रोत्साहन देने की आवश्यकता नहीं है| जो व्यक्ति अनुलोम और प्रतिलोम विवाह-संबंधों के पक्षपाती है उन्हें इस प्रकार के विवाहों से उत्पन्न खतरों से सदैव सचेत रहना चाहिए| राजपूत जाति के व्यक्तियों का राजपूत समाज में ही विवाह होनाश्रेयस्कर कहा जा सकता है| ये विवाह-सम्बन्ध दूर-दूर के स्थानों पर होने से पारस्परिक सहयोग और मिलन की भावना को अधिक बल मिलेगा| इस समय हिन्दू विवाह संबंध की पवित्रता और उपयोगिता को नष्ट करने वाले जितने भी कानून बनाये जाते है उनके विषैले प्रभाव से समाज को सुरक्षित रखने की बड़ी आवश्यकता है|

इस प्रकार समाज की प्रचलित सांस्कृतिक और सामाजिक परम्पराओं के आधार पर सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण कर प्रत्येक व्यक्ति को स्वाभिमानी, उदार और नि:स्वार्थ बनाना सामाजिक-उत्थान की आवश्यक शर्त है|

जिस प्रकार सतोगुणी जातीय-भाव का निर्माण आवश्यक है, उसी प्रकार समाज के प्रत्येक व्यक्ति में उस भाव को धारण करते रहने की शक्ति का निर्माण भी आवश्यक है, अतएव इस भाव को धारण रखने के लिए आवश्यक प्रतीकों को हमें दृढ़तापूर्वक अपनाना चाहिये| क्षत्रियत्व के प्रतीकों में प्रथम श्रेणी में शस्त्रास्त्र आते है| शस्त्र न केवल आत्मरक्षा के ही साधन है अपितु आत्म-विश्वास उत्पन्न करने में भी वे प्रभावशाली साधन है| आज हमारी दुर्गति का यह भी कारण है कि हमें स्वयं पर विश्वास नहीं रहा| अपनी शक्ति के प्रति जब तक हमें विश्वास नहीं होगा तब तक हम किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकते| आज हम अपनी आत्मिक, मानसिक और शारीरिक शक्ति के प्रति शंकित है| शस्त्र आत्म-शक्ति, आत्म-विश्वास और आत्मोल्लास उत्पन्न करने का सबसे अधिक महत्त्वशाली साधन है| जिस प्रकार विद्याहीन ब्राह्मण अपूर्ण होता है उसी प्रकार शस्त्रहीन राजपूत भी अपूर्ण होता है, -- विद्या ब्राह्मण का आभूषण है तो शस्त्र राजपूत का| जिस प्रकार बिना पंख, पक्षी अपंग होता है, उसी भांति शस्त्र-हीन राजपूत भी पंगु और निस्सहाय होता है| शस्त्रास्त्र रखना प्रत्येक राजपूत का सामाजिक अधिकार, व्यक्तिगत कर्तव्य और राष्ट्रीय आवश्यकता है| शस्त्रहीन राजपूत को देखने मात्र से पाप लगता है और उसका दर्शन अपशकुनसूचक तथा अमंगलकारी होता है|

क्रमश:.......

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