Saturday, October 19, 2013

अंधकार में प्रकाश : भाग-२ (राजपूत और भविष्य)

भाग -१ से आगे.........

उपर्युक्त सब गुणों के विकास और प्रयोग के लिए सुदृढ़ चरित्र शक्ति की आवश्यकता होती है| चरित्र की दृष्टि से कतिपय अमीर राजपूतों का चरित्र निम्न श्रेणी का कहा जा सकता है, पर वास्तव में बहुसंख्यक व्यक्तियों का चरित्र आज भी सर्वोपरि है| चरित्र के अंतर्गत केवल यौन- संबंधी आचार ही नहीं आते, अपितु उसके अंतर्गत मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को संवारने वाले सब गुणों का समावेश हो जाता है| चरित्र के अंतर्गत वचन और कर्म की वे सब विशेषताएँ आ जाती है जो मनुष्य के व्यक्तित्व को उठाने या गिराने में सहायक होती है, सौभाग्य की बात है कि राजपूत जाति का अधिकांश भाग आज अपेक्षाकृत कम बेईमान, कम असत्य भाषी, कम अविश्वसनीय और कम अन्य चारित्रिक दुर्बलताओं वाला है| इतने वर्षों तक राज-सत्ता उपभोग करने के उपरांत भी राजपूत जाति चारित्रिक अध:पतन के उस गहरे गर्त में नहीं गिरी है जिसमें हमारा प्रतिपक्षी बुद्धिजीवी वर्ग केवल पांच-सात वर्ष शासन करने के उपरांत ही गिर चुका है| वास्तविकता तो यह है कि सत्तारूढ़ राजपूत का चारित्रिक और नैतिक पतन इतनी शीघ्रता और गहराई से नहीं होता जितनी शीघ्रता से सत्ता-विहीन होने से होता है| हमें सब प्रकार की अनुकूल अथवा विपरीत दशाओं में अपने चारित्रिक बल को सदैव सर्वोपरि रखना चाहिए| उच्च चारित्रिक बल समाज-चरित्र की पहली शर्त है| इस व्यक्तिगत चारित्रिक विशेषता के कारण ही समाज-चरित्र का निर्माण होता है| आज समाज-चरित्र को और भी ऊँचा उठाने की आवश्यकता है| आगे चलकर यही समाज-चरित्र हमारी उन्नति का मेरु-दंड सिद्ध होगा| चारित्रिक दृष्टि से पतित समाज, संस्था अथवा कोई भी जाति उन्नति की भाषा में सोच नहीं सकती| हमारे बालकों में चरित्र संबंधी व्यावहारिक संस्कारों के निर्माण की सबसे अधिक आवश्यकता है| इस चारित्रिक सबलता की पराकाष्ठा हमें अपने स्त्री-समाज में मिलेगी| राजपूत स्त्री समाज में रूढिवश कई त्रुटियाँ घर कर गई पर उन्होंने अपने अमूल्य आभूषण सतीत्व को अभी तक ज्यों का त्यों सुरक्षित रख छोड़ा है| चरित्र-भ्रष्टता के इस युग में आज भी पति के शव के साथ अग्नि-स्नान करने वाली राजपूत महिलाओं की कमी नहीं है| वास्तव में देखा जाय तो इन्हीं सतियों के सत और धर्मपरायणता से यह जाति अभी तक जीवित बची हुई है| हिन्दू कोड का समर्थन करने वाली और पाश्चात्य वातावरण और संस्कारों से प्रभावित आज की कतिपय नवयुवतियां क्या समझे कि सतीत्व का महान आदर्श कितना उच्च और मूल्यवान होता है ? चंचल कौए को राजहंस की मर्यादा का क्या अनुभव! राजपूत जाति जब उन्नति के सर्वंगीण मार्ग पर अग्रसर होने लगेगी तब स्त्री समाज का यह सतीत्व और चारित्रिक-बल नि:संदेह अमृत तुल्य वरदान सिद्ध होगा|

राजपूतों का व्यक्तिगत और सामाजिक प्रभाव उनकी अपनी विशेषता है| जहाँ जहाँ भी वे बसे हुए है वहां-वहां वे अन्य जातियों के स्वाभाविक नेता है| इस व्यक्तिगत प्रभाव को हमें जन-साधारण की सेवा करके और भी अधिक बढ़ाना चाहिये| वास्तव में राजपूत का जन्म ही नेतृत्व करने के लिए होता है और उसे केवल इसी स्थिति की प्राप्ति से संतोष करना चाहिए| पर ये नेतृत्व ठोस-त्याग, परोपकार और क्रियाशीलता के आधार पर ही संभव हो सकता है|

इसी भांति राजपूत जाति की श्रेष्ठता के सामने आज सब जातियां नमनशील है| अभी कुछ समय से बुद्दिजीवी वर्गों ने जनता को सुनहले स्वप्न दिखाकर अपने पक्ष में कर रखा है, पर ज्योंही इस वर्ग का नग्न और वास्तविक स्वरूप प्रगट हो जायेगा, त्योंही जनता इस बुद्धिजीवी-वर्ग से विद्रोह कर देगी| आज भी राजपूतों का अधिपत्य सब वर्गों और जातियों को स्वीकार हो सकता है, पर अन्य बुद्धिजीवी वर्गों का अधिपत्य वे अधिक दिनों तक स्वीकार नहीं करेंगे| यह केवल जनता का आत्मलघुत्त्व की भावना का प्रतिफल नहीं है, परन्तु राजपूत जाति के प्रति उसके स्वाभाविक आकर्षण और प्रेम का ही परिणाम है| हमें इस नये शासक-वर्ग के नग्न रूप को जनता के सामने व्यवस्थित रूप से रखना होगा तथा अपनी जातीय-श्रेष्ठता को हर कीमत पर बनाये रखना होगा|

आज जिस बुद्धिजीवी-वर्ग ने राजपूतों को पददलित कर रखा है, वह वर्ग अजेय नहीं है| इस वर्ग के विनाश के उपकरण आज भारी मात्रा में एकत्रित हो चुकें है| विरोधियों के इस भावी अध:पतन की रुपरेखा को हम दो भागों में विभाजित कर सकते है; प्रथम समाज-विकास के स्वाभाविक क्रम के आधार पर और दुसरे विरोधियों की व्यक्तिगत और संस्थागत अपूर्णताओं के आधार पर|

समाज-विकास के स्वाभाविक क्रम के अनुसार अब हम देख चुकें है कि, किस प्रकार क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों का और बनियों द्वारा क्षत्रियों का पतन हो चुका है| और यह भी देख चुके है कि किस प्रकार बुद्धिजीवी ब्राह्मणों ने युगधर्म को पहिचाना और बनियों से सांठ-गांठ करके क्षत्रिय-पतन में योग दिया| अब देखना यह है कि किस प्रकार वैश्य-ब्राह्मण गठबंधन आज ढीला पड़ता जा रहा है|

अब तक समाज अधिपत्य का विचार क्रमश: विद्या, बाहुबल और अर्थ रहते आये है| ब्राह्मणों ने अपने विद्या और तप के बल से समाज पर आधिपत्य जमाया| बाहुबल और अर्थ अर्थात दुर्गा व लक्ष्मी, सरस्वती के अधीन होकर रहने लगी| तत्पश्चात क्षत्रियों ने बाहुबल पर विद्या को आश्रित बना दिया| शक्ति ही समाज-अधिपत्य की एकमात्र कसौटी बनी रही| भगवती दुर्गा ने विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को अपने ऊपर निर्भर बना लिया| ब्राह्मण-प्रभुत्त्व का पतन और क्षत्रिय-प्रभुत्त्व का उत्थान हुआ| पर कालांतर में शक्ति अखंड और स्वावलम्बिनी नहीं रह सकी| वैश्यों की चकाचौंध उत्पन्न करने वाली मुद्राओं ने उसे हतप्रद कर लिया| अब ब्राह्मणों का जप,तप और क्षत्रिय का बाहुबल सर्वशक्तिमान मुद्रा रूपी मोहिनी शक्ति के पैरों को चूमने लगे| लक्ष्मी ने विद्या की देवी सरस्वती और शक्ति की देवी दुर्गा दोनों को पराजित किया| सरस्वती-पुत्र ब्राह्मण अपनी सब हेंकड़ी छोड़कर लक्ष्मी-पुत्र बनियों का दास बन गया| पर दुर्गा-पुत्र क्षत्रिय ऐसा करने में असमर्थ रहा और इसीलिए उसके विनाश के उपकरण जुट पड़े| पर लक्ष्मी का यह अधिपत्य भी चिरन्तन न रह सकेगा| बनियों के इस प्रभुत्त्व-काल में धन का संचय थोड़े से ही हाथों में केन्द्रित हो गया| बनियों ने अपने रूपये के बल से ब्राह्मण की विद्या और बुद्धि को ख़रीदा, राज-शक्ति को दबाये रखा और शुद्र श्रमिक-वर्ग की सेवाओं का मनमाना उपभोग किया| इन सब कारणों से बनियाँ-युग की प्रतिक्रिया भी आरम्भ हो गई| जिस श्रमजीवी शुद्र जाति के परिश्रम पर ब्राह्मणों का अधिपत्य, क्षत्रियों का वैभव और वैश्यों का धन निर्भर रहा है वे शुद्र अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो गये है| भारत में अब श्रमजीवी शुद्र युग का सूत्रपात हो गया है| वैश्यों के हाथ से प्रभुत्त्व निकल कर अब श्रमजीवी शूद्रों के हाथों में आने लग गया है| ब्राह्मणों की विद्या, क्षत्रियों का बाहुबल और वैश्यों का धन-बल शूद्रों के श्रम-बल के समक्ष सर्वथा क्षीणप्रभ होकर निस्तेज और पंगु बनने लग गया है| सरस्वती और दुर्गा तो लक्ष्मी द्वारा पहले ही पराजित हो चुकी थी| अब नवागन्तुक चाण्डाली देवी ने लक्ष्मी को भी हतप्रद करके उसे अपने स्थान से पदच्युत कर दिया है| भारतीय संविधान में दी गई राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक समानता और समाजवादी समाज की रचना के उद्देश्य को लेकर चलने के कारण भारत का प्रभुत्त्व अब विधानत: अल्प-संख्यक बुद्धिजीवियों के हाथों से निकल कर बहुसंख्यक श्रमजीवियों के हाथों में आ रहा है| वह दिन दूर नहीं जब श्रमजीवी अपनी शक्ति और सामर्थ्य के प्रति जागरूक होकर एक दिन इन बुद्धिजीवियों को पददलित कर स्वयं सत्तारूढ़ होने को आगे बढ़ जायेंगे| आज बुद्धिजीवी शक्तियाँ ह्रासोन्मुखी और श्रमजीवी शक्तियां विकासोन्मुखी है, अतएव इस समय सबसे अधिक आपत्ति और चिंता में कोई वर्ग है जो वह पूंजीवादी बनियाँ-वर्ग| इस बार भी बुद्धिजीवी ब्राह्मण-वर्ग ने युगधर्म पहचान कर लाभ उठाना प्रारंभ कर दिया है| ब्राह्मण वर्ग ने जिस भांति क्षत्रिय-अधिपत्य के समय क्षत्रियोचित गुणों और वैश्याधिपत्य के समय वैश्योचित गुणों का अपने में आरोपण कर लिया था उसी भांति आने वाले शुद्र्वाद के लिए वह शुद्रोचित गुणों को अपनाकर फिर से समाज का अगुवा बनने जा रहा है|

यद्यपि वैश्यों की सहायता से भारत का शासन कार्य अधिकांशत: ब्राह्मणों के हाथों में आ गया तथापि अंतर्राष्ट्रीय विकासक्रम के प्रति जागरूक होकर पाश्चात्य संस्कारों से प्रभावित ब्राह्मणों के एक बड़े अंश ने एक एक करके शुद्रत्त्व के सभी गुणों को अपनाना प्रारंभ कर दिया है| यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि अर्जन सदैव बुरी प्रवृतियों और दुर्गुणों का ही आसानी से होता आया है| यही कारण है कि अब तक ब्राह्मण शुद्रत्त्व के उच्चतम गुणों के स्थान पर उसके निकृष्टतम गुणों को अपनाने में ही सफल हुए है|

भारतीय पूंजीवादी बनिये ने बुद्धिजीवी ब्राह्मण की सहायता से क्षत्रिय-वर्ग को तो गिरा दिया पर अब शुद्रत्त्व के अति निकृष्टतम गुणों से वशीभूत अपने सहयोगी ब्राह्मण द्वारा पददलित होने का उसके सामने प्रत्यक्ष खतरा उत्पन्न हो गया है| अब ब्राह्मण बनियों के नियंत्रण से बाहर जा रहे है| आये दिन संपत्ति के अपहरण करने और आय को सीमित करने वाले बनाये जाने वाले कानून इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है| समाजवादी राज्य के अंतर्गत राष्ट्रीय और करों की भरमार का भूत अब उसे लग चुका है| जिस प्रकार ब्राह्मण ने समय की आवश्यकता को पहचान कर शुद्रत्त्व को अपना लिया है, उसी प्रकार समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्थाओं के रूप में बनियाँ स्वेच्छा से शुद्रत्त्व को अपनाकर अपनी संचित पूंजी का महल ढहाने का साहस नहीं कर सकता| अतएव आज का बनियाँ-ब्राह्मण मित्र निकट भविष्य में ही दो विरोधी शिविरों को अपनाते हुए परस्पर शत्रु रूप में दिखाई देंगे| ब्राह्मण अधिकाधिक वामपंथी और बनियाँ दक्षिणपंथी होंगे| भविष्य में बनियाँ के सम्मानपूर्वक अस्तित्त्व का यदि कोई आधार हो सकता है तो वह है- क्षत्रिय वर्ग|

बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित कांग्रेस द्वारा समाजवादी व्यवस्था को अपनाना प्रत्यक्ष श्रमजीवी शुद्रत्त्व को महत्त्व देना है| श्रमजीवी शुद्रत्त्व को इस प्रकार महत्त्व देना बनिये के निहित स्वार्थों के विरुद्ध पड़ता है| इस कार्य में ब्राह्मणों ने सबसे अधिक उत्साह और सक्रियता दिखलाई है, अतएव पूंजीवादी अपने ब्राह्मण मित्रों के इस कार्य को अपने प्रति विश्वासघात समझते है| वे आज समाजवादी नारों और कार्यक्रमों से प्रसन्न नहीं है पर ब्राह्मणों के हाथों में सत्ता की बागडोर होने के कारण कुछ भी करने में असमर्थ है| अतएव भारतीय समाज विकास के क्रम के आधार पर निकट भविष्य में ही क्षत्रिय-पतन के लिए जिम्मेवार दो वर्गों ब्राह्मण-बनियों में राजनैतिक दृष्टि से फूट पड़ना आवश्यक है| यही नहीं इस कार्यक्रम को लेकर ब्राह्मण-वर्ग में भी फूट पड़ जावेगी| ब्राह्मणों का एक प्रभावशाली अंश दक्षिणपंथी संस्थाओं में आकर सक्रीय हो जावेगा और कुछ वामपंथी बन जावेंगे| इस फूट के कारण विरोधियों के आज के संगठन इस कांग्रेस रूपी मोर्चे में अवश्य निर्बलता और शिथिलता आयेगी| यह शिथिलता और निर्बलता हमारे लिए वरदान तुल्य सिद्ध होगी, इसमें संदेह नहीं| इस प्रकार हमारे विरोधियों की आज सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि शुद्रत्त्व को अपनाने संबंधी नीति को लेकर उनमें फूट उत्पन्न होगी, पर यह फूट जब तक बाहर दिखाई नहीं देगी तब तक कोई अन्य प्रभावशाली कार्यक्रम, ढहते हुए पूंजी के महल को सांत्वना का सहारा देने को समर्थ न होगा|

हमारे आज के विरोधियों की सबसे बड़ी कमजोरी है उनका उद्देश्यहीन होना| व्यक्ति का उद्देश्य अथवा साध्य उसका स्वधर्म है| जो व्यक्ति अपना ईश्वरप्रदत साध्य भूलकर राज्य-रहित समाज की और धर्म-रहित राज्य की कल्पना करता है वह पाखंडी है, इसीलिए व्यक्ति को स्वधर्म का पालन करना ही चाहिये| संस्थाएं व्यक्तियों से बनती है, उनमें व्यक्ति इसलिए सम्मिलित होते है कि वैयक्तिक भावना का निर्माण कर सारे समाज को अपने साथ ऊपर उठावें| वैयक्तिक रूप से कई महापुरुष हो चुके है और होंगे| उन्हें अपने उत्थान के लिए संस्थाओं की भी आवश्यकता नहीं रहती, पर सामाजिक उत्थान चाहते है उन्हें संस्थाएं बनाने की आवश्यकता रहती है| संस्थाएं भी अनुशासनमय सहयोग और सामूहिक जीवन की भावना का निर्माण कर व्यक्तियों का उत्थान करना चाहती है अतएव इन दोनों ही दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति के उत्थान की भावना से प्रेरित नहीं होती वे लोकप्रिय कभी नहीं बन सकती| व्यक्ति के उत्थान का तात्पर्य है उसके जीवन का संसार के लिए सदुपयोग| स्वधर्म व्यक्ति को उपयोगी बनाता है| वही संसार में उसका स्थान ढूंढकर निकालता है, इसलिए स्वधर्म ही सच्चा साध्य है|

क्रमशः......

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