Thursday, October 17, 2013

अंधकार में प्रकाश : भाग-१ (राजपूत और भविष्य)

निर्दिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सर्वप्रथम एक पूर्ण व्यवस्थित योजना की आवश्यकता रहती है| पूर्ण व्यवस्थित योजना के मुख्यत: दो पहलु होते है- प्रथम अपनी निर्बलताओं और विरोधियों की विशेषताओं को ध्यान में रखना और दुसरे अपनी विशेषताओं और विरोधियों की निर्बलताओं को ध्यान में रख कर कार्य करना| गत अध्यायों में हम विरोधियों की विशेषताओं और अपनी निर्बलताओं का अध्ययन कर चुके है| इस अध्याय में हमें अपनी विशेषताओं और विरोधियों की निर्बलताओं पर विशेष रूप से विचार करना है| जिस प्रकार अपनी अपूर्णतायें और विरोधी शक्ति की विशेषताएँ हमारे निरुत्साह और निराशा का कारण हो सकती है, उसी प्रकार अपनों विशेषताएँ और विरोधी शक्ति की अपूर्णतायें हमारे उत्साह और आशा का कारण अन सकती है| हमें अपनी अपूर्णताओं को दूर करना, विरोधी शक्ति की निर्बलताओं से सदैव लाभ उठाते रहना चाहिए| भगवान् के इस अटल नियम पर विश्वास रखना चाहिए कि अंधकार की उपस्थिति के साथ प्रकाश की उपस्थिति भी अनिवार्य है| इसी विश्वास के साथ हम अन्धकार से प्रकाश तथा निराशा से आशा की ओर बढ़े|

राजपूत जाति में व्यक्तिगत और कुलगत अहं-भाव होते हुए भी अपेक्षाकृत सामाजिक अनुशासन की उतनी कमी नहीं है| समाज की एकचालकानुवर्तित्त्व की संस्कारजन्य मनोवृति के कारण संकट के समय एक नेतृत्व के नीचे आ जाना राजपूत जाति की स्वाभाविक विशेषता है| यद्यपि गत सैंकड़ों वर्षों से इस गुण की न परीक्षा की गई और न इससे लाभ उठाया गया है, पर राजपूत जाति के आंतरिक संस्कारों से परिचित व्यक्ति से यह गुण छिपा नहीं रह सकता| महान संकट उपस्थित हो जाने दीजिये, मृत्यु को सर्वनाश के उपकरण लेकर सामने आने दीजिये और प्रतिरोध के लिए आप राजपूत समाज का आव्हान करिये| आप देखेंगे, तब वहां न कायरता मिलेगी, न स्वार्थ और न अहंभाव की प्रवृति; आपको केवल मृत्यु से लोहा लेने को प्रस्तुत आज्ञा-पालन की प्रतीक्षा से हँसते हुए हजारों चेहरे मिलेंगे| वहां क्यों, कब, कैसे आदि तर्क-प्रधान और निर्बलतासूचक प्रश्नों का नामोनिशान भी न होगा| सामने का खतरा जितना भयंकर होगा, राजपूत जाति की प्रतिक्रिया भी उसी अनुपात में भयंकर होगी| पर शांति के समय इस प्रकार के प्रतिक्रियात्मक अनुशासन में अपने को बांधना राजपूत जाति ने नहीं सीखा है| शांति के समय इसी प्रकार की अनुशासन की भावना उत्पन्न करना किसी संस्कारमयी प्रणाली द्वारा ही संभव हो सकती है| इतने विश्वास-पात्र वीर और त्यागी अनुयायी भारतवर्ष में किसी भी नेतृत्व के पास नहीं है|

सामाजिक अनुशासन का जवलंत उदाहरण हमें राजस्थान के प्रथम आप चुनाव और भू-स्वामी संघ के आन्दोलन में देखने को मिला| यद्यपि कोई शाश्वत उद्देश्य समाज के सामने नहीं रखा गया था, कोई निश्चित नीति निर्धारित नहीं की गई थी और वास्तव में न कोई महान संकट ही सामने था| उन चुनावों में राजपूतों का एक भी मत विरोधियों कि पेटी में जाकर नहीं गिरा और भू-स्वामी संघ के आन्दोलनों में राजपूत का एक घर भी नहीं बचा जिसने तन-मन-धन से सहयोग न दिया हो| भू-स्वामी संघ के आन्दोलन में राजपूत शक्ति का परीक्षात्मक प्रयोग था और यह हर्ष की बात है कि प्रथम प्रयोग ही इतना सफल और प्रभावशाली रहा| गत चार सौ वर्षों के इतिहास में यह पहला अवसर था जब राजस्थान के समस्त राजपूत एक ध्वज के नीचे और एक नेतृत्व की आज्ञा में उपस्थित हुए| रेत के कणों ने जिनके चरणों को कभी स्पर्श नहीं किया और सूर्य की किरणों तक ने जिनका कभी दर्शन तक नहीं किया ऐसी कोमलाँगी कुलीन महिलाओं ने परम्परागत विश्वासों की परवाह न करके पैदल चलकर मतदान किया| भू-स्वामी संघ के आन्दोलनों में वे सच्ची वीरांगनाओं की भांति स्वेच्छा से जेल जाने को तत्पर हो गई और धन और मन से उनमें पूर्ण सहयोग दिया| विरोधियों ने उन महिलाओं को पर्दाहीन होकर पैदल चलते देख कर प्रतिशोधात्मक अट्टहास किया पर हम लोग गर्व से गौरान्वित हो उठे|

प्रथम आम चुनावों और दुसरे आम चुनावों के बीच के समय में कुछ लोगों द्वारा कांग्रेस में चले जाने के कारण राजपूतों का नैतिक पतन अवश्य हुआ है| इस पतन के लिए कुछ लोगों ने अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिये दूसरे चुनाव में विरोधियों का साथ दिया, पर उनका यह आत्मघाती और नीच कार्य समाज के स्वस्थ और बहुसंख्यक वर्ग द्वारा कभी भी प्रशंसित और उचित नहीं ठहराया गया| किसी निश्चित उद्देश्य और कार्यक्रम के अभाव में इस प्रकार की व्यक्तिगत क्षुद्राकांक्षाओं को बढ़ावा मिलना असंभव नहीं कहा जा सकता| निश्चित कार्यक्रम अपना कर इस प्रकार के अधिकांश पथ-भ्रष्ट लोगों को सुधारा और ठीक किया जा सकता है|

अनुशासन-पालन की पहली शर्त त्याग और बलिदान की भावना का मूल रूप से पहले से विद्यमान होना है| त्याग और बलिदान की भावना से रहित समाज में अनुशासन-पालन के संस्कारों का जन्म हो ही नहीं सकता| गत सैंकड़ों वर्षों के कुसंस्कारों के कारण यद्यपि यह भावना अब परिस्थितिसापेक्ष हो गई है, तथापि यदि अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण और प्रतिकूल परिस्थितियों का निराकरण कर दिया जाये तो अल्पकाल में ही यह भावना फिर पनप सकती है| मध्ययुगीन शासक जातियों ने राजपूतों की इस स्वाभाविक प्रवृति को खूब समझा था और यही कारण था कि काबुल से लेकर बंगाल, आसाम तक और हिमालय से लेकर सुदूर दक्षिण तक चप्पा-चप्पा भूमि राजपूत रक्त से रंजित हो गई| उस समय कोई जातीय उद्देश्य सामने नहीं था, अतएव राजपूतों का त्याग और बलिदान की स्वाभाविक प्रवृति का विरोधियों ने सदैव अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लाभ उठाया| आज आम राजपूतों को जातिय-उद्देश्य बतला दीजिए, उस उद्देश्य की पवित्रता, उच्चता और श्रेष्ठता को दृढ़तापूर्वक उनके मस्तिष्कों और दिलों में अंकित कर दीजिए और फिर उस उदेश्यपूर्ति के लिए आप राजपूतों को परिश्रम, त्याग और बलिदान करने का आव्हान करिए, संसार आश्चर्य चकित देखेगा कि परिश्रम में कोई कमी नहीं, बलिदान की भावना में कितनी तीव्रता है और त्याग के कार्यों की कितनी प्रचुर मात्रा सामने आती है| पग पग पर त्याग और बलिदान के उदाहरण मिलेंगे| यह योग्य नेतृत्व की कसौटी होगी कि त्याग और बलिदान की इस पवित्र भावना को क्षुद्र स्वार्थ और सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति के निमित्त काम में न लेकर समाज के महान उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी के काम में लिया जाय| जब यही त्याग और बलिदान की भावना किसी निश्चित और महान उद्देश्य की रक्षा के लिए धैर्य सहित क्रियात्मक रूप धारण करती है तब वीरत्त्व के नाम से पुकारी जाती है| वीरत्त्व की पूर्ण उपलब्धि के लिए, किसी निश्चित उद्देश्य की रक्षा के लिए इस भावना को क्रिया में रूपातंरित करना आवश्यक हो जाता है, अतएव जब तक समाज के सामने कोई निश्चित उद्देश्य नहीं होता तब तक त्याग और बलिदान के मूर्तरूप वीरत्त्व के हमें राजपूत समाज में दर्शन नहीं होंगे| आज राजपूत जाति में वीरत्त्व की जो कमी दिखाई दे रही है उसका मूल कारण यह है कि उसके सामने कोई सामाजिक उद्देश्य नहीं है| आज समाज में पराक्रम की जो कमी दिखाई दे रही है उसका मूल कारण भी यही है कि पराक्रम को जागृत करने हेतु समाज के सामने कोई लक्ष्य नहीं है| जितना उद्देश्य महान होगा उसकी पूर्ति के लिए किया गया क्रियात्मक त्याग और बलिदान रूपी वीरत्त्व और पराक्रम भी उतने महान होंगे| संसार का कोई भी कार्य वीरत्त्व और पराक्रम के सामने असंभव नहीं है| वीरत्त्व क्षत्रियों का स्वाभाविक गुण है और पराक्रम उनका स्वभाव| अतएव पूर्ण अनुशासित और व्यवस्थित रूप से केवल इन्हीं गुणों से उचित और सम्यक लाभ उठाया जाये तो विरोधी शक्तियाँ अधिक दिनों तक सामने ठहर नहीं सकती|

वीरत्त्व और पराक्रम को सम्यक रूप से जाग्रत करने के लिए प्रतिशोध की भावना का होना आवश्यक है और प्रतिशोध की भावना का उदय पीड़ा और क्रोध की सम्मिलित भावना से होता है, अतएव मुख्य रूप से पहले हमें समाज की पीड़ा को जाग्रत करना चाहिए| समाज की दुर्दशा और पीड़ा को देखकर हमारे हृदय में असीम पीड़ा का उदय होना आवश्यक है; पर पीड़ा अकेली निश्चेष्ट होती है अत: उसे सचेष्ट करने के लिए सात्विक क्रोध की भावना को उत्तेजित करना भी उतना ही आवश्यक है| पीड़ा और क्रोध की सम्मिलित भावना के जागरण से प्रतिशोध की संजीवनी शक्ति का उदय और विकास होगा जो मानवीय अस्तित्त्व का गौरवमयी आभूषण है| हमें अपने शत्रुओं से सौ पीढ़ी बाद में भी प्रतिशोध लेने की अग्नि को समय समय पर आहुति देकर प्रज्वलित रखना चाहिए| प्रतिशोध लेना उतना ही महान गुण है जितना किसी भलाई के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना और ऋण से उऋण होना| प्रतिशोध स्वयं एक धर्म है| इस धर्म का पालन करते समय दया-धर्म, अहिंसा-धर्म आदि को भूल जाना चाहिए| नैतिकता और उदारता के सामान्य मापदंड को एक और उठा कर रख देना चाहिए| इस प्रतिशोध रूपी महादेवता की तृप्ति के लिए शत्रुओं के मांस, रक्त, मेदा, हड्डी और मज्जा का महा-रुचिकर भोग लगाना चाहिए| पूर्ण श्रद्धा, दृढ़ विश्वास, क्रूर निर्दयतापूर्वक उच्च अट्ठाहस से प्रतिशोध रूपी महादेवता की पूजा करनी चाहिए| यही एक मात्र उसको तृप्त करने का विधिविधान है| तभी वह महादेवता प्रसन्न होकर अमर जीव और अक्षय कीर्ति का वरदान देता है| प्रतिशोध की भावना का उदय और विकास या तो निर्बल नपुंसकों में नहीं होता या उनमें जो आत्म-विस्मृति के गड्ढे में गिरकर सर्वथा संज्ञाहीन हो चुके है| प्रतिशोध की भावना जीवित समाज का एक आवश्यक गुण है|

कहने की आवश्यकता नहीं कि राजपूत जाति में प्रतिशोध की भावना का विशेष रूप से विकास हुआ है| असीम क्षमाशीलता और भयंकर प्रतिशोध आदि की परस्पर विरोधी भावनाओं का क्षात्र-चरित्र में जो सामंजस्य हुआ है, वह क्षात्र धर्म की अपनी मौलिक विशेषता है| इस प्रतिशोध की भावना को निरंतर नवीन और उत्साहित करते रहना चाहिये| समझलो कि जिस दिन प्रतिशोध की भावना का नाश हुआ उस दिन क्षत्रियत्व की मूल प्रेरक-शक्ति का भी नाश हो जायेगा|

पर राजपूतों की प्रतिशोध की भावना में उद्वेग और उफान नहीं होना चाहिये| उद्वेग और उफान के वशीभूत होकर किये गए कार्यों में विचारतत्व का अभाव होने के कारण वे अपने ही नाश के हेतु बनते है| जितनी प्रतिशोध की भावना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है सहनशीलता और धैर्य है| व्यावहारिक सफलता की दृष्टि से इन दोनों गुणों का होना नितांत आवश्यक है| हमें जल्दबाजी में कोई ऐसा संकुचित निर्णय नहीं कर लेना चाहिये जिसका परिणाम आगे चलकर दुखदायी हो| अत्याचार और उत्पीड़न को तब तक धैर्यपूर्वक सहते रहना आवश्यक है जब तक कि उसके पूर्णप्रतिकार के लिए आवश्यक शक्ति का संचय न हो जाये| ज्वालामुखी पर्वत, शीत, उष्णता, वर्षा आदि सब कुछ मूक रूप से सहता रहता है पर उसके अंत:करण में ज्वाला प्रज्वल्लित रहती है| वह अंत: की अग्नि दिनरात समान रूप से क्रियाशील रहती है और जब भभकने का अनुकूल अवसर आता है तब सहनशीलता और धैर्य की लंबी उपस्थिति का क्षण भर में नाश हो जाता है और उस ज्वालामुखी पर्वत का भयंकर विस्फोट सर्वनाश का महातांडवी दृश्य उपस्थित कर देता है| वास्तव में क्षत्रिय को इसी प्रकार ज्वालामुखी पर्वत की भांति सहनशील और धैर्यवान रहना चाहिए और अनुकूल अवसर आते ही सहनशीलता और धैर्य के सब बन्धनों को तोड़कर महाप्रलयकालीन दृश्य उपस्थित कर देना चाहिए| ध्यान रहे, सहनशीलता और धैर्य का तात्पर्य निष्क्रियता नहीं है| किसी विशिष्ट उद्देश्य की पूर्ति के लिए क्रियाशील रहते हुए अनुकूल अवसर तक प्रतीक्षा करते रहने का नाम धैर्य और सहनशीलता है, पर निष्क्रियता में निरुद्देश्य जड़ता और निराशा के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता| यह प्रसन्नता का विषय है कि राजपूत जाति में इस प्रकार के धैर्य और सहनशीलता का आज भी अभाव नहीं है| पर आवश्यकता इस बात की है कि धैर्य और सहनशीलता को निष्क्रियता में परिणित न होने दिया जाये|

क्रमश:.....

2 comments:

  1. वर्तमान राजपूत समाज के लिए एक एक शब्द गूढ़ गीता-ज्ञान है

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