Wednesday, October 16, 2013

उत्थान से पतन की ओर - भाग -अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग दो से आगे....
समस्त शोषक-वर्ग के प्रति उत्पन्न अन्तराष्ट्रीय घृणा को दूरदर्शी भारतीय बनियाँ ने बुद्धिजीवी ब्राह्मण को माध्यम बनाकर केवल भूमिपति क्षत्रिय वर्ग की ओर ही उन्मुख कर दिया| अपने पूंजी के बल से प्रचार के सभी साधनों पर एकाधिपत्य स्थापित कर तथा बुद्धिजीवी ब्राह्मणों की बुद्धि को खरीदकर बनियाँ वर्ग ने अंग्रेजों को साम्राज्यवादी और क्षत्रिय वर्ग को शोषक, अत्याचारी, दुराचारी और भार रूप में संसार के सामने ला खड़ा किया| अंग्रेजों को अपने प्रचार द्वारा घृणा का लक्ष्य बनाने में बनियाँ वर्ग को प्रत्यक्षत: कोई लाभ नहीं था पर इससे वह अनायास ही देश-भक्तों की श्रेणी में आ गया| तथा भारत के श्रम जीवियों का ध्यान अपने वास्तविक शोषक बनियाँ वर्ग से हट कर अंग्रेजों पर लग गया| अब बनियाँ वर्ग बिल्कुल सुरक्षित था| एक और ढाल रूप में प्रयुक्त ब्राह्मणों को मुख्य रूप से अंग्रेजों का कोप-भाजन बनना पड़ रहा था और दूसरी और समस्त शोषित वर्ग अंग्रेजों और सामंती तत्वों के उन्मूलन में लगा हुआ था| उस शोषित वर्ग को यह अनुभव ही नहीं हो सकता कि समस्त शोषण का स्त्रोत पूंजीपति बनियाँ तो अनायास ही देशभक्त बनकर गुलछर्रे उड़ा रहा है| बनियाँ वर्ग इसी स्थिति को अधिकाधिक समय तक बनाये रखना चाहता था| उसे यह भली भांति विदित था कि अंग्रेजों और सामन्त वर्ग के पतन के उपरांत शोषक के रूप में घृणा का उसी को सीधा लक्ष्य बनना पड़ेगा यही कारण था कि उसके द्वारा नियंत्रित उस आन्दोलन में अहिंसा, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आन्दोलन आदि जैसे प्रभावहीन और देर से फल देने वाले प्रयोगों का सहारा लिया गया| अंग्रेजों और सामंत वर्ग से बनियाँ-वर्ग संघर्ष तो जारी रखना चाहता था पर उन्हें वह शीघ्र ही समाप्त कर, स्वयं शोषक के रूप में सामने नहीं आना चाहता था|

इस प्रकार प्रचार के सभी साधनों द्वारा बनियाँ-वर्ग ने राजपूतों को दुष्ट-अत्याचारी, शोषक और घिनौने रूप में चित्रित कर दिया| इस प्रचार के निश्चित रूप से चार परिणाम हुए-
१)- राजपूत नवयुवकों, विशेषत: अर्द्धशिक्षित और अपूर्णशिक्षित व्यक्तियों में और अमीर-वर्ग में आत्म-हीनता की विनाशकारी भावना का प्रादुर्भाव हुआ| वे इस विरोधी प्रचार से प्रभावित होकर स्वयं से और स्वयं की संस्कृति और व्यवस्थाओं से घृणा करने लग गये| इसी आत्महीनता की भावना से उनका भयंकर रूप से नैतिक पतन हुआ|
२)- इस प्रचार द्वारा, राजपूतों द्वारा शासित प्रजा में विद्रोहात्मक भावना उत्पन्न हो गई| वे अब राजपूतों की राजनैतिक और सामाजिक-श्रेष्ठता को चुनौती देने के लिये तैयार हो गए|
३)- इस प्रचार के कारण शहरों में रहने वाले सभी तटस्थ और बुद्धिजीवी तत्वों की दृष्टि में राजपूतों को घृणा का पात्र बनना पड़ा और बिना किसी वास्तविक और उचित कारण के वे उनके विरोधी बन गए|
४)- बनियाँ वर्ग देशभक्ति का चोला पहन कर, श्रमजीवियों और बुद्धिजीवी तत्वों के घृणा-प्रवाह से स्वयं सुरक्षित हो गया| ये है ऊपर वर्णित चारों कारण राजपूत जाति की वर्तमान अवस्था के लिए मुख्य रूप से उत्तरदायी है|

अपने अधिकारों के प्रति अचेत, राग-रंग में मस्त और राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय घटना-चक्र को समझने में असमर्थ राजपूत-वर्ग को समस्त बुद्धिजीवी ओर अपनी प्रजा का घृणा का पात्र बनना पड़ा तथा सबका ध्यान सामन्तीय अत्याचारों की और आकर्षित करके पूंजीपति बनियाँ स्वयं अपनी पूंजी और उससे उत्पन्न दुर्गुणों की मंजूषा लेकर ब्राह्मण रूपी ढाल के पीछे जा छुपा| ब्राह्मण-वर्ग तो येन केन प्रकारेण समाज पर प्रभुत्त्व स्थापित करना ही चाहता था, अतएव उसने निरंतर बढ़ते हुए बनियाँ-प्रभाव की सरिता में अपनी बौद्धिक शक्ति का स्त्रोत भी मिला दिया; लक्ष्मी से सरस्वती का संयोग करा दिया| लगभग इन्हीं परिस्थितियों में भारतीय कांग्रेस का जन्म हुआ और विकास हुआ, जिसमें बनियाँ और ब्राह्मणों द्वारा नियंत्रित सभी पूंजी-जीवी और बुद्धिजीवी शक्तियां परस्पर आकर मिल गई| गांधीवाद का देश के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक आदि क्षेत्रों में प्रवेश बनियाँ प्रभुत्त्व की चरम सीमा कही जा सकती है| अंग्रेज भी गांधीवाद अभ्युदय से प्रसन्न थे, कारण कि वह उनके लिए सबसे कम घातक पड़ता था| उग्रवादियों के राष्ट्रीय और स्वतंत्रता आन्दोलनों से आतंकित अंग्रेजों ने गांधीवाद को वरदान के रूप में लिया और वे परोक्ष रूप से उसे भारत में दीर्घजीवी करने के प्रयास में लग गये| गांधीजी ने अत्यंत ही चातुरी तथा वैज्ञानिक उपायों द्वारा भारतीय समाज की रूढिगत कमजोरियों और विशेषताओं से लाभ उठाते हुए भारतीयों द्वारा संचालित उग्रहिंसा पूर्ण स्वतंत्रता-प्रयास को अहिंसात्मक आन्दोलनों में बदल दिया| यही कारण था कि अंग्रेज भारत में कुछ समय तक और अधिक टिके रहने में समर्थ हो सके|

इन बुद्धिजीवी और पूंजीजीवी तत्वों के संयोग और गठबंधन का तात्कालिक परिणाम यह हुआ कि इससे एक ओर राजपूत-वर्ग निकम्मा और अयोग्य सिद्ध हो गया और दूसरी ओर देश के श्रमजीवी शुद्र-वर्ग का नवीनतम और भुलावे में डालने वाले साधनों द्वारा इन तत्वों की स्वार्थपूर्ति के लिए उपयोग होना लगा| इन तत्वों ने अपने व्यवस्थित कार्यक्रम द्वारा पहले से ही क्षीण राजन्य वर्ग को और भी अधिक क्षीण और उसके आधार-स्तम्भ सामन्तवर्ग को सर्वथा निकम्मा और भार स्वरूप बना दिया| अब देखना यह है कि इस महत्त्वशाली परिवर्तन और नव-जागरण के समय राजपूत जाति क्या रही थी|

अस्तित्व का एकमात्र आधार होता है- उपयोगिता | निरुपयोगी तत्व स्वत: नष्ट हो जाते है| उपयोगिता का यह नियम प्राणी वर्ग, वनस्पति वर्ग और अन्य सभी वस्तुओं के अस्तित्व पर समान रूप से लागू होता आया है| यही नियम मनुष्य द्वारा निर्मित राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक संस्थाओं के लिए भी उतना ही सत्य है| मनुष्य द्वारा निर्मित जो संस्थाएं किन्हीं कारणों से अनुपयोगी हो जाती है, उनका नाश अवश्यम्भावी होता है| यह प्रकृति का विधान है और यही है विकासवाद के मूल में स्थित योग्यतम अवशेष का सिद्धांत| आदि शत्रु को समूल नष्ट करना हो तो उससे संघर्ष करके उसे अधिक क्रियाशील और सतर्क बनाने की आवश्यकता नहीं है| आवश्यकता इस बात की है कि उसके स्वभाविक कर्तव्य का अपहरण कर उसे अकर्मण्य और समाज का निरुपयोगी अंग बना दिया जाये| मुसलमान और मराठे शक्ति प्रयोग द्वारा राजपूतों को नष्ट नहीं कर सके पर अंग्रेजों ने राजपूतों के वंशानुगत और स्वाभाविक उत्तरदायित्त्व और कार्यों का अपहरण कर उनकी संस्थाओं को निरुपयोगी बना दिया और इस प्रकार उन्हें नष्ट कर दिया| वस्तुत: यही से राजपूतों की मुख्य संस्थाओं, राज्यों और जागीरों का अध्:पतन प्रारंभ हो जाता है|

अंग्रेजों ने शांति और सुरक्षा आदि के रूप में राजपूतों को विष की मीठी गोली खिलाकर उनको अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व के प्रति अचेत और मूर्छित कर दिया| सत्ता और शासन की वास्तविक क्रियाशीलता अंग्रेजों के हाथों में चले जाने के कारण राजपूतों के पास कोई भी कार्य करने को शेष नहीं रह गया| वे और उनके वंशानुगत नेता केवल कठपुतली की भांति अंग्रेज प्रभु के इशारों पर नाचने मात्र में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने लगे| परिणाम यह हुआ कि वे अपनी शासित प्रजा और हित-चिंतकों से अधिकाधिक दूर जा गिरे| राजाओं ने अंग्रेजों की शीतल छाया और संरक्षण में निश्चिन्त और निडर होकर उनके अस्तित्व के एकमात्र आधार राजपूतों पर अन्याय करना प्रारंभ कर दिया और जागीरदार भी उसी प्रकार निश्चिन्त होकर प्रजा का उत्पीड़न करने लगे| शांति, व्यवस्था और अन्य राजकीय आवश्यकताओं की पूर्ति अंग्रेजों अथवा उनकी कठपुतली देशी रजवाड़ों की सरकारों से होने लगी| इस प्रकार अब राजपूतों और उनकी मुख्य संस्थाओं जागीरों आदि का जन-जीवन के लिए कुछ भी महत्त्वशाली उपयोग नहीं रहा| इन्हीं परिस्थितियों में वे बुद्धिजीवी तत्वों द्वारा समाज के शोषक और भार के रूप में चित्रित किये जाने लगे| वास्तव में बात भी कुछ सीमा तक सही थी क्योंकि बल, पराक्रम, प्रजा पालन और कर्तव्यशीलता का स्थान अब सुरा, सुबाला, चित्रशाला और “तान-तुक-ताला” ने ले लिया था|

यद्यपि अंग्रेजों ने क्षत्रिय वर्ग का यह पतन अपने स्वार्थ के लिए किया था तथापि इसका पूरा लाभ भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग ने उठाया| जब यह बुद्धिजीवी वर्ग सत्तारूढ़ होने को आया उस समय तक भारत का क्षत्रिय वर्ग अंग्रेजों की कूटनीति और बुद्धिजीवियों के योजबद्ध प्रचार द्वारा सर्वथा अनुपयोगी और अयोग्य बना दिया गया था| अतएव बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभुत्त्व स्थापित करते समय चिरकाल से प्रभुत्त्व संपन्न क्षत्रिय वर्ग से टक्कर लेने की तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ी| लगभग दो शताब्दियों से जर्जरित और अनुपयोगी क्षत्रिय संस्थाओं ने इस बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सत्ता और प्रभुत्त्व प्रसार के लिए मार्ग खोल दिया| कांग्रेस का इतिहास इसी बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा सत्ता और प्रभुत्त्व प्राप्ति के प्रयास का इतिहास है और अब उसके द्वारा सत्ता-प्राप्ति प्रभुत्त्व स्थापना की महत्वाकांक्षा की प्रत्यक्ष साक्षी है| इस प्रकार अंग्रेजों के आगमन से जिस वैश्य शक्ति की प्रधानता का संचार भारतवर्ष में हुआ, उसकी चरम स्थिति कांग्रेस के सत्तारूढ़ होते ही हो गई| जैसा कि पहले लिखा जा चुका है, ब्राह्मणों ने भी वैश्यों द्वारा शक्ति प्रसार के कार्यों में योग दिया और परिणामत: वे भी आज भारत पर प्रभुत्त्व स्थापित रखने में बनियों के भागीदार बने हुए है| इस प्रकार आज भारत पर वैश्य-नियंत्रित ब्राह्मण शक्ति का आधिपत्य है|
इन परिस्थितियों में आज का राजपूत वर्ग अपने अनुकूल कोई भी स्थान नहीं बना सका है और आज वह समाज के लिए सर्वथा अनुपयोगी और भारस्वरूप होकर जीवनयापन कर रहा है| भारत का शासक चतुर बुद्धिजीवी वर्ग इस स्थिति से पूरा लाभ उठा रहा है| इसीलिए वह क्षत्रियों से रही सही शासन संबंधी योग्यता, पूर्वजों के प्रति उनके स्वाभिमान और बड़प्पन की भावना और उनके पुनरुत्थान के सोपान राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक इकाइयों पर निर्दयतापूर्वक कुठाराघात पर कुठाराघात करता जा रहा है|

यह परिवर्तन प्रयत्नसाध्य भी है और स्वाभाविक भी| सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों के तारतम्य से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र चार वर्ण उत्पन्न होते है| ये चार वर्ण अनादि काल से सभी सभ्य समाजों में मलते है| देश, काल और परिस्थिति के अनुसार किसी वर्ण की शक्ति अथवा संख्या दुसरे वर्ण की अपेक्षा घट या बढ़ सकती है| इतिहास का क्रम-बद्ध अनुशीलन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है| कि प्राकृतिक नियमों के वशीभूत ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र पृथ्वी का क्रमश: उपयोग करते है| ब्राह्मण और क्षत्रियों द्वारा उपयोग की बात ऊपर लिखी जा चुकी है| अब भारत में बनियाँ युग चल रहा है, जिसका एक प्रबल स्तम्भ बुद्धिजीवी ब्राह्मण भी है| जिस प्रकार प्राचीन समय में पदच्युत ब्राह्मण शक्ति को राज-शक्ति के आगे बार बार हार माननी पड़ी, उसी प्रकार आज पद च्युत क्षत्रिय शक्ति को वैश्य शक्ति के सामने बार बार झुकना पड़ रहा है|

ब्राह्मणों द्वारा संचालित इस बनियाँ शक्ति ने देश के सम्पूर्ण जीवन पर प्रभाव जमा रखा है| राज सत्ता का सहारा पाकर जन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यह शक्ति गहराई के साथ व्याप्त हो गई है| दुर्लभता से प्राप्त अपने इस वर्तमान प्रभाव और प्रभुत्त्व को अक्षुण्य और चीर स्थाई रखने के लिए राजपूतों के अब तक के बचे हुए महत्व और प्रभाव को समूल नष्ट करना आवश्यक है| इसी पुस्तक में आगे बताया जायेगा कि किस प्रकार एक सुनिश्चित योजना द्वारा क्षत्रिय प्रभाव और संस्कारों को जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से समूल नष्ट करने का भागीरथ प्रयत्न किया जा रहा है|

अब बनियाँ-ब्राह्मण गठबंधन भी अधिक दिनों तक ठहरने का नहीं है| कांग्रेस आज जीवन रूपी यात्रा की अंतिम मंजिल पर है| जिस प्रकार पूर्वकाल में ब्राह्मण और क्षत्रिय प्रभुत्त्व समाप्त हो चुका है, उसी प्रकार वैश्य-प्रभुत्त्व भी समाप्त होने जा रहा है| नये युग के प्रभात का अरुणोदय हो चुका है| युग-धर्म के रूप में श्रम जीवी शुद्रत्त्व बड़ी ही शीघ्रता से अपना प्रभुत्त्व प्रसारित करने में लगा है| पतनोन्मुखी बुद्धिजीवी गुट विकासोन्मुखी शुद्र प्रणाली में कहीं स्थान पाने के लिए छटपटा रहा है| इसीलिए समाजवाद और समाजवादी समाज की स्थापना का नारा बुलंद किया जाकर श्रमजीवी शुद्रत्त्व को नियंत्रित और भ्रमित करने का प्रयास किया जा रहा है| भविष्य में समाज का यह सर्वंगीण प्रभुत्त्व हस्तांरित होकर किन हाथों में जा रहा है, इसका विवेचन अंतिम अध्याय में किया जायेगा|

-: समाप्त :-

2 comments:

  1. satriya ka patan ka karan yah bhi th !
    rajputo ne apne hi bhiyo ko talwrr cheenkar vibhin peso me dal diya v ladane ke hadhikar se vanchit kiya !
    rajput keval gaddi bacane tak hi simit rahe !

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  2. satriya ka patan ka karan yah bhi th !
    rajputo ne apne hi bhaiyo ko talwrr chinkar vibhin peso me dal diya v ladane ke aadhikar se vanchit kiya !
    rajput keval gaddi bacane tak hi simit rahe !

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