Tuesday, October 15, 2013

उत्थान से पतन की ओर - भाग १ (राजपूत और भविष्य)

राजपूत समाज की वर्तमान अवस्था के मूल कारणों को समझने के पूर्व भारतीय समाज के अब तक के विकास क्रम की पृष्ठभूमि को समझ लेना आवश्यक है| वस्तुत: भारतीय समाज के विकास-क्रम में ही हमें राजपूतों के उत्थान और पतन के कारण मिल जावेंगे|

आदि युग में भारत पर ब्राह्मणों का सबसे अधिक प्रभाव था; वे जगत गुरु मन्त्र बल से बलवान थे और देवताओं से उनका साक्षात्कार था| वे देवताओं का मुख और उनकी उपभोग्य सामग्री के वास्तविक उपभोक्ता समझे जाते थे| राज्य शक्ति अथवा क्षत्रिय वर्ग पर उनका अधिपत्य था, क्योंकि श्राप का भय और दैवी-शक्ति द्वारा अनिष्ट की संभावना शक्ति संपन्न क्षत्रियों को तपोबल संपन्न ब्राह्मणों के सदैव अधीन रखती थी| यज्ञों का विधिपूर्वक संपन्न भी पुरोहित वर्ग की इच्छा पर ही निर्भर करता था और यज्ञों के विधिपूर्वक संपादन पर ही एहिलौकिक सुख-वैभव और पारलौकिक कल्याण निर्भर था| यही कारण था कि ब्राह्मणों की प्रसन्नता और उनका आशीर्वाद प्राप्त करना उस युग की मुख्य आवश्यकता थी| और इसीलिए राजन्य वर्ग वैश्य और शुद्र समाजों से धन-सेवादि के रूप में जो कुछ भी प्राप्त करता था उसका मुख्यांश ब्राह्मणों की सेवा, दानादि में ही खर्च होता था| सभ्यता के आदि युग में यद्यपि देश के वैधानिक शासक क्षत्रिय ही थे, तथापि वास्तविक रूप से शासन की बागडोर धर्म-गुरु ब्राह्मणों के हाथ में ही रहती थी| उस समय एक बात अवश्य अच्छी थी कि ब्राह्मण केवल समाज के शोषक और भोक्ता ही नहीं थे पर वे जो कुछ समाज से ग्रहण करते थे उससे कहीं अधिक उसे ज्ञान, अनुभव, विद्यादी के रूप में दे देते थे| वे अनिष्टकारी अदैवी शक्तियों से समाज की रक्षा के उपाय बताया करते थे| उस समय सम्पूर्ण भारतवर्ष का पाठ-प्रदर्शन आध्यात्मिकता से परिमार्जित तथा नियंत्रित ब्राह्मण-बुद्धि से ही मुख्य रूप से होता था| इस प्रकार समाज में सर्वोपरि स्थान रखते हुए भी ब्राहमण वर्ग समाज के लिए अभिशाप अथवा भारस्वरूप नहीं था|

यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं अपितु संसार के सभी सभ्य देशों में, सभ्यता के आदि काल मे, इसी प्रकार ब्राह्मण अथवा पुरोहित वर्ग का ही प्राधान्य रहा है| इस ब्राह्मण-प्रभुत्व का परिणाम यह हुआ कि ब्राह्मणेतर समाज के अस्तित्व की सार्थकता केवल ब्राह्मणों की तुष्टि और संतोष के लिए उपकरण जुटाने में ही सीमित हो गई| ब्राह्मणों के लिए सुख, संतोष, आध्यात्मिक चिंतन की सुविधा प्रदान करने के अतिरिक्त जो धन, शक्ति और समय बचा रहता था उन्हीं का क्षत्रिय राजा अपने कुटुम्ब तथा प्रजा की भलाई में उपयोग करते थे|

ब्राह्मणों के इस सर्व-प्रभाव की प्रतिक्रिया दो रूपों में हुई| एक ओर इस प्रकार के सर्वाधिपत्य के कारण ब्राह्मणों में आत्म-श्लाघा, बड़प्पन और जातीय-श्रेष्ठता की उस भावना का बीजारोपण हुआ जो सदैव से ही उन्हें समाज पर प्रभुत्व स्थापित करने तथा उसे सुरक्षित रखने के लिए प्रेरित करती आई है| दूसरी और क्षत्रिय नरेशों ने भी बाहुबल और विद्याबल दोनों क्षेत्रों में ही ब्राह्मणों की सर्वश्रेष्ठता को चुनौती देना प्रारंभ कर दिया| परशुराम से लक्ष्मण का विरोध, भीष्म का परशुराम से द्वन्द्ध, राजा जनक और विश्वामित्र का ब्रह्मज्ञानी होना, भगवान कृष्ण द्वारा गीता के रूप में हिन्दू जीवन दर्शन के गूढ़तम तत्वों की व्याख्या आदि उस प्रतिक्रिया की भूमिकायें मात्र कही जा सकती है| कहने की आवश्यकता नहीं कि वही ब्राह्मण-क्षत्रिय विरोध रूपांतरित, वैज्ञानिक तथा अधिक व्यवस्थित होकर अपने मूल रूप में आज भी विद्यमान है|

कालांतर ,ए ब्राह्मणों की योग्यता ने भी विरोधियों के विरोध को बल दिया| अब धर्म के नाम पर हिंसा, स्थूल कर्म-काण्ड, पाखंड आदि का अधिक बोलबाला हो गया था| सत्यव्रती एवं दैवी-शक्ति संपन्न ब्राह्मणों का समाज में अभाव सा हो चला था| अब ब्राह्मण विद्याहीन और पुरुषार्थ-हीन होकर येन-केन-प्रकारेण अपने पैतृक सम्मान और अधिकार को बनाये रखने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री समझने लगे थे| इस समय तक सतोगुणशाली ब्राह्मण तमोगुण द्वारा पराभूत हो गए थे| इसका परिणाम हम महावीर और बुद्ध जैसे क्षत्रियों का उदय ब्राह्मण-प्रभुत्त्व के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में देखते है| वैसे तो महाभारत काल से ही समाज में ब्राह्मण वर्ण का ह्रास और क्षत्रिय वर्ण की प्रधानता हो चली थी पर बोद्ध-काल में आते आते समाज पर सर्वंगीण प्रभुत्त्व की दृष्टि से ब्राह्मणों का सर्वथा पतन और क्षत्रियों का उत्थान हो गया था| इतिहास में सबसे पहला यही समय यही समय था जब क्षत्रियों का समाज पर राजनैतिक प्रभुत्त्व के अतिरिक्त धार्मिक प्रभुत्त्व भी स्थापित हो गया था|

यह स्थिति लगभग १३०० वर्षों तक रही| ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक बौद्ध-धर्म पतनोंमुखी हो गया था| ठीक इसी समय ईस्वी सन ८०० के लगभग ब्राह्मणों ने फिर एक बार समाज पर प्रभुत्त्व स्थापित करने का जोरदार प्रयास किया| भगवान् शंकर, रामानुजाचार्य आदि ने ब्राह्मण प्रभुत्त्व की पुन: स्थापना की और एक बार फिर समाज पर ब्राह्मण प्रभुत्त्व की आशंका उत्पन्न हो गयी| पर क्षत्रियों ने, जो इस समय तक राजपूत कहलाने लगे थे, इस स्थिति को आगे नहीं बढ़ने दिया| बौद्ध-धर्म समाज की शाश्वत आवश्यकता “सुरक्षा” के लिए अनुपयोगी सिद्ध हुआ| उसने राष्ट्र की स्वाभाविक क्षात्र-शक्ति को निस्तेज, पंगु और सिद्धांत-भीरु बना दिया, वह राष्ट्र की बाह्य आक्रमणों से रक्षा करने में असफल सिद्ध होने लगी| अतएव क्षत्रियों ने क्षात्र धर्म के प्रतिपादक वैदिक धर्म की पुन: स्थापना में ब्राह्मणों को योग तो दिया पर समाज पर उन्हें सार्वभौम प्रभुत्त्व स्थापित नहीं करने दिया| यहाँ आकर फिर शासन-तंत्र और धर्म का पृथक्कर्ण हुआ और शासन पर धर्म का नियंत्रण बहुत शिथिल पड़ गया| बौद्ध धर्म का पतन अवश्य हुआ पर ब्राह्मण धर्म भी अधिक प्रबल नहीं हो सका और समाज में प्रधानता क्षत्रियों की ही रही| राजपूत काल में आते आते ब्राह्मण राजपूतों के केवल पिछलग्गू मात्र रह गए थे| अब वे उनके आवश्यक धार्मिक अनुष्ठान मात्र करा दिया करते थे, उनमे न तेज था और न विद्या ही|

शक्तिशाली केन्द्रीय शासन के अभाव में राजपूत राजा परस्पर खूब युद्ध किया करते थे, अतएव उन्हें हर समय सेना की आवश्यकता रहती थी| संसार के अन्य देशों की भांति इस समय भारत में भी सेना का संगठन सामन्तीय था| आवश्यकता पड़ने पर सामंतगण अपनी अपनी सेनाओं को लेकर राजा की सहायतार्थ आ जाया करते थे और बदले में उनको भरण-पोषण और सैनिक व्ययादी के लिए जागीरें दी जाती थी| इस प्रकार राजपूत काल में देश की सबसे बड़ी आवश्यकता थी युद्ध करना; और युद्ध करने के लिए सबसे उपयोगी घटक था सेना; और सेना के गठन का मुख्य आधार था जागीरी-प्रथा| अत: जागीरी-प्रथा उस समय सैनिक और प्रशासनिक सभी दृष्टियों से देश की परमावश्यकता बन गयी थी| इस प्रकार क्षत्रिय वर्ग प्रबल होते ही सामन्तीय जागीरों द्वारा समाज के सब अंगों पर क्षत्रियों का प्रभुत्त्व और नियंत्रण स्थापित हो गया| सतयुग और त्रेतायुग के धर्म-नियंत्रित शासन के स्थान पर अब निरंकुश सैनिकवादी शासन की स्थापना हो गई|

इस प्रकार बौद्धों द्वारा ब्राह्मण-प्रभुत्त्व-प्रधान वैदिक धर्म के ह्रास और पुन: ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध धर्म के पतन के परिणामस्वरूप पुन:निर्मित हिन्दू समाज में ऐसी कमजोरियां रह गई जिनके कारण उसे इस्लाम की सर्व-ग्रासी आंधी के सामने पराभूत होना पड़ा| बौद्ध-धर्म के ह्रास के उपरांत निर्मित राजपूत काल में ब्राह्मण प्रभुत्त्व के नगण्य हो जाने के कारण वैदिक धर्म व्यवस्था ढीली पड़ गई थी| वैदिक धर्म-व्यवस्था के ढीली पड़ जाने के कारण जहाँ ब्राह्मणों का पतन हुआ वहां क्षत्रियों का भी पतन कम नहीं हुआ| शक्तिशाली धर्म-बंधन और नियंत्रण के अभाव में क्षत्रिय निरंकुश, अहंभावी, स्वार्थी और राजनैतिक दृष्टि से अदूरदर्शी बन गये| इस काल में क्षत्रियों में जिन जिन दुर्गुणों का बीजारोपण हुआ, वास्तव में उन्हीं दुर्गुणों के कारण देश की स्वतंत्रता विलुप्त हुई और वे दुर्गुण क्षत्रियों के पतन के मूल कारण बने| वैदिक धर्म का ह्रास चाहे किन्हीं कारणों से हुआ हो पर इस ह्रास के पश्चात् पुननिर्मित व्यवस्था उतनी पूर्ण, सांगोपांग और वैज्ञानिक नहीं हो सकी और उसी नवनिर्मित अपूर्ण और त्रुटिपूर्ण व्यवस्था के कारण देश का, ब्राह्मणों का और क्षत्रिय आदि सभी का पतन हुआ| इस समय समाज पर क्षत्रियों का निरंकुश एकाधिपत्य हो गया था| समाज के धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि सभी अंगों पर एक व्यक्ति, एक जाति, एक वर्ण, वर्ग अथवा संस्था के एकाधिपत्य का परिणाम, शासक और शासित दोनों का पतन ही हुआकरता है| उत्तर वैदिक काल में ब्राहमणों के एकाधिपत्य के कारण ब्राह्मणों और वैदिक समाज दोनों का पतन हुआ और बौद्ध और उत्तर बौद्ध काल में भी क्षत्रिय एकाधिपत्य के समय क्षत्रिय और समाज दोनों का पतन हुआ|

क्रमश:....
Rajput or Bhavishy By sw.shri ayuvan singh shekhawat, hudeel

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