Monday, October 14, 2013

नई प्रणाली : नया दृष्टिकोण - 6 (राजपूत और भविष्य)

भाग पांच से आगे....

अब समस्या का दूसरा पहलू हमारे सामने है| साम्यवाद और समाजवाद के रूप में बढ़ते हुए भारतीय शुद्र्वाद में पश्चिमी देशों से आये हीनतम गुणों को कैसे रोका जाय? यह अत्यंत ही कठिन समस्या है, क्योंकि एक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साम्यवाद के प्रचार और प्रसार के लिए करोड़ों रूपये विदेशी शक्तियों द्वारा खर्च किये जाते है तथा दूसरी ओर आज का शासक वर्ग अपने प्रभुत्त्व को चिर-स्थायी रखने के लिए सैद्धांतिक और व्यावहारिकता रूप से शनै: शनै: साम्यवाद को अपनाता जा रहा है| पर निराश होने की आवश्यकता नहीं है| साम्यवाद के अच्छे गुणों को अपनाकर और उसके दुर्गुणों को छोड़कर उसे रूपांतरित किया जा सकता है|

इस साम्यवादी व्यवस्था की प्रथम सदगुण है परिश्रम अथवा उद्यमशीलता के महत्त्व की स्वीकृति| परिश्रम और उद्यमशीलता को तात्विक और व्यावहारिक दृष्टि से अपनाने में किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती| यह पहले भी बताया जा चुका है कि कर्म-प्रधान जीवन की उद्यमशीलता एक आवश्यक अंग है| यही उद्यमशीलता पुरुषार्थी- वर्ग का पुरुषार्थ है| यही पुरुषार्थ हमें बुद्धिजीवी-वर्ग से अलग करने वाली चीज है| वस्तुत: आज पुरुषार्थी-वर्ग का प्रत्येक व्यक्ति उद्यमी और परिश्रमी है| इस उद्यमशीलता में व्यष्टि और समष्टि दोनों का हित है| इस सिद्धांत को निरंतर ध्यान में रखना चाहिये कि एक जगह बैठ कर मस्तिष्क की छोटी-सी हलचल द्वारा दूसरों के परिश्रम से अपना पोषण करने वाला वर्ग ही बुद्धिजीवी हो सकता है| यही वर्ग आज वास्तविक रूप से शोषक है| जोवर्ग अथवा व्यक्ति दूसरों के परिश्रम से केवल अपने बौद्धिक हथकंडों और श्रेष्ठता के कारण मालामाल होता है, वह वास्तव में ही हेय है| इस प्रकार के व्यक्ति अथवा वर्गों को अब रूपांतरित होना पड़ेगा|

बुद्धिजीवी वर्ग भी देश की आवश्यकता अवश्य है, पर परमावश्यक नहीं, एक ऐसी आवश्यकता नहीं है जिसे हर कीमत पर श्रमजीवी-वर्ग पर हावी होने दिया जाय| पर शारीरिक उद्यम आज देश की परमावश्यकता है, जिसे प्रत्येक क्षेत्र में प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है| व्यावहारिक कर्म-प्रधान क्षात्र-धर्म का यही उद्यमशीलता का एक मुख्य अंग है, अतएव राजपूतों को परिश्रिमी बनना ही चाहिये| यह सिद्धांत उनके लिए नया नहीं है| जो व्यक्ति खून पसीना बहाने की आदत भूल चुके है उन्हें फिर उसे बना लेना चाहिये| शारीरिक उद्यम द्वारा जीवित रहने की कला का हमें पूर्ण रूप से अभ्यास करना ही चाहिये| यह प्रत्येक युग की मांग और आज की परमावश्यकता है|

इस नये वाद का दूसरा मह्त्त्वशाली गुण है व्यष्टि के स्थान पर समष्टि की मान्यता| वास्तव में देखा जाये तो समष्टि की सार्थकता में ही व्यष्टि की सार्थकता है| समष्टि के सुख में ही व्यष्टि का सुख और समृद्धि के अस्तित्त्व में उसका अस्तित्त्व है| यही वह सत्य है जो इस विश्व का मूलाधार है| समष्टि के विकास-क्रम में व्यष्टि रोड़ा बनकर नहीं रह सकती| समष्टि के साथ आगे बढ़ना, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना और समष्टिगत आदर्शों को मान्यता देना ही व्यष्टि का एकमात्र कर्तव्य है और इन नियमों का उलंघन ही उसकी मृत्यु है| तो क्या समष्टि को प्रधानता देने वाली विचारधारा भारतियों के लिए नवीन है ? उत्तर है नहीं ! कदापि नहीं ! वास्तव में समष्टि को प्रधानता देना तो हिन्दू-संस्कृति की अपनी विशेषता है| हिन्दुओं ने समष्टि के अंतर्गत केवल स्वधर्मी समाज अथवा मात्र समाज को ही नहीं लिया है परन्तु उनका यह समष्टि दृष्टिकोण उसकी साधारण सीमाओं को पार करके परमेष्टि तक पहुँच गया है| केवल स्वधर्मावलम्बियों का ही कल्याण क्यों हों, बल्कि समस्त विश्व और चराचर का कल्याण होना चाहिये| यही भारतीय दर्शन की समष्टि और परमेष्टि संबंधी धारणा रही है| क्षात्रधर्म का मूल मन्त्र ही व्यष्टि के स्थान पर समष्टि को प्राथमिकता देने का रहा है| क्षात्र धर्म रूपी स्वधर्म का पालन करते हुए न मालूम आज तक दीन और असहाय व्यक्तियों, समाज और राष्ट्र की रक्षा के लिए कितनों का बलिदान हो चुका है| अतएव वर्तमान समय में जो समाजवाद का नारा लगाया जा रहा है, उसे सुनकर हमें व्याकुल नहीं होना चाहिये| केवल स्वार्थ साधन ही हमारे जीवन का चरम ध्येय नहीं है| विद्या, बुद्धि, धन, बल, वीर्य आदि जो कुछ प्रकृति हम लोगों के पास इकट्ठा करती है वह समाज में फिर से बांटने के लिए ही है| हम इस बात को भूल जाते है कि यह सब कुछ समाज की ही धरोहर है| इस सौंपे हुए धन में जब हमारी आत्म-बुद्धि हो जाती है तब वह हमारे विनाश का कारण बनती है|

साम्यवाद का तीसरा महत्वशाली गुण है समत्व-भाव की मान्यता| भौतिक दृष्टि से समत्व-भाव की कल्पना एक असत्य मात्र है, पर इसका तात्पर्य समान अवसर की उपलब्धि से लिया जाना चाहिये| वैसे कोई भी दो व्यक्ति बल, बुद्धि, वीर्य, स्वरूप आदि में समान नहीं है और न वे समान रूप से सांसारिक वस्तुओं के उत्पादन और भोगने की ही क्षमता रखते है, पर आध्यात्मिक दृष्टि से समानता का सिद्धांत एक सत्य है, क्योंकि सभी प्राणी एक ही ईश्वर की संताने होने से बराबर है| अतएव इस सिद्धांत के मूल में स्थित आत्मिक समता के सिद्धांतों को समझकर ही हमें कार्य करना चाहिये|

पश्चिम के नास्तिक और भौतिक दृष्टिकोण को मान लेने के कारण समष्टि और समत्व के सिद्धांत भी व्यावहारिक दृष्टि से झूंठे पड़ जाते है| धर्म अथवा नैतिकता ही वह वस्तु है जो समाज-विरोधी कार्यों से रोकती है| धर्म की आवश्यकता को भुलाकर केवल शासन के डंडे से मनुष्य को सत कार्य करने के लिए प्रेरित नहीं किया जा सकता| अतएव राजपूतों को जब युग-धर्म को पहचान कर श्रमिक-वर्ग और उसके सदगुणों को अपनाने को कहा जाता है, तब साथ के साथ धर्म और आध्यात्मिकता की आवश्यकता को भी हमें नहीं भूल जाना चाहिये| इस प्रकार साम्यवाद, समाजवाद आदि के गुणों का भारतीयकरण करके उनके दुर्गुणों को छोड़ दिया जाता है तो एक और युग-धर्म की मांग भी पूरी हो जाती है और दूसरी और राष्ट्रीय विनाश का अवसर भी नहीं आने पाता है| वास्तव में देखा जाय तो हिन्दू जीवन-व्यवस्था में समाजवाद और साम्यवाद की तात्विक विशेषताएँ पहले से ही विद्यमान है, पर उन विशेषताओं का वर्तमान परिभाषा और प्रणाली के अनुसार नामकरण और वर्गीकरण नहीं हुआ है| इन वादों के गुण हमारी व्यवस्था में पहले से ही है और दुर्गुणों की हमें आवश्यकता नहीं है| इन वादों का इसी रूप में भारतीयकरण हिन्दू-व्यवस्था की पुनर्स्थापना में एक महत्वपूर्ण योग है|

पाश्चात्य साम्यवाद द्वारा द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की मान्यता ने ही घृणा के आधार पर उत्पन्न रक्तिम वर्ग-संघर्ष को जन्म दिया| भारत के शुद्रोंमुखी बुद्धिजीवी-वर्ग भी स्वार्थवश भारत में वर्ग-घृणा और वर्ग संघर्ष के सिद्धांतों को मानकर कार्य करने लग गया, पर राजपूत अर्थ के आधार पर वर्ग-संघर्ष करने के पक्षपाती नहीं हो सकते| यद्यपि अर्थ के दास बनियों ने अन्य बुद्धिजीवी वर्गों के साथ मिल कर राजपूतों का नाश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है, तथापि राजपूतों को अन्य पुरुषार्थी-वर्ग का पक्ष=पोषक बन कर इस बुद्धिजीवी-वर्ग के नाश के लिए तैयार हो जाना चाहिये| क्षात्र धर्म किसी परिस्थिति-वश उत्पन्न प्रतिक्रियाओं पर आधारित नहीं है, वह शाश्वत सत्य का ही दूसरा रूप है| इसलिए उसका क्षेत्र न्याय अथवा अन्याय है, धन अथवा निर्धनता नहीं| इस समय तो इस बुद्दिजीवी-वर्ग को सत्तारहित करके उसे अपने वास्तविक स्थान पर ला बैठाना ही ठीक है|

अब हम समस्या के तीसरे पहलू पर आते है| यदि आज के पददलित और शोषित पुरुषार्थी-वर्ग (जिसमें राजपूत भी है) को समाज में न्यायोचित स्थान मिल जाता है और यह कार्य मुख्य रूप से राजपूतों के तत्वाधान में संपादित होता है तो समाज में उनकी उपयोगिता स्वत: सिद्ध हो जाती है| यह कार्य कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं| यदि राजपूत स्वयं शक्ति संपन्न रहते हुए एक दृढ़ सामाजिक अथवा जातिय इकाई के रूप में आगे आकर पुरुषार्थी-वर्ग के साथ कार्य करें तो बुद्धिजीवी-वर्ग नि:संदेह इस दौड़ में पीछे रह जायेगा| इस बुद्धिजीवी-वर्ग को समाज की प्रगति की दौड़ में सहयोग देने के लिए अपने को रूपांतरित करना पड़ेगा| उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि देश के प्रभुत्त्व में उसे सिंह भाग कदापि नहीं मिल सकता| इस प्रकार यह वर्ग स्वयं निरुपयोगी हो जायेगा| निरुपयोगी होने के उपरांत इस वर्ग का पतन भी उसी प्रकार संभव होगा जिस प्रकार कि इसके द्वारा राजपूतों का हुआ है| राजपूतों को यह अंतिम और निर्णायक फैसला कर लेना चाहिये कि देश के इस पुरुषार्थी-वर्ग की बागडोर फिर से अवसरवादी बुद्धिजीवी तत्वों के हाथों में नहीं जाने दी जायेगी| राजपूतों को यह भी अंतिम रूप से निर्णय कर लेना चाहिये कि उनका कार्य-क्षेत्र गांवों में है, शहरों में नहीं| और इस बात की भी पहचान अब उन्हें हो जानी चाहिये कि उनका शत्रु बुद्धिजीवी-वर्ग है और मित्र पुरुषार्थी-वर्ग|

उपर्युक्त विवेचन के उपरांत अब हमें राजस्थान की राजनीति और उसकी आधारभूत विशेषताओं पर ध्यान देना चाहिये| भारत के अन्य राज्यों की भांति आज राजस्थान में भी अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी-वर्ग का शासन है और बहुसंख्यक पुरुषार्थी-वर्ग शोषित और परावलम्बी मात्र है| इस अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी-वर्ग को सत्तारूढ़ करने की जिम्मेदारी बहुसंख्यक पुरुषार्थी वर्ग की है| बहुसंख्यक पुरुषार्थी वर्ग के प्रतिनिधि के रूप में ही यह अल्पसंख्यक-वर्ग सर्वेसर्वा बन बैठा है| इसी के वोटों और समर्थन द्वारा इसे शक्ति और सत्ता प्राप्त हुई है| प्रश्न यह है कि यह बहुसंख्यक पुरुषार्थी वर्ग अल्पसंख्यक बुद्धिजीवी वर्ग को क्यों मत देकर अपना शासक और भाग्य विधायक स्वीकार बैठा है ? उत्तर बिल्कुल सरल है| इस चतुर बुद्धिजीवी-वर्ग ने अब तक के शासक समुदाय राजपूतों और अन्य पुरुषार्थी वर्ग में परस्पर घृणा उत्पन्न करके फूट डाल रखी है| “फूट डालो और राज करो” के सिद्धांत को इस बुद्धिजीवी-वर्ग ने अत्यंत ही चतुराई के साथ क्रियान्वित किया है| वह आज अपने को पुरुषार्थी वर्ग का उद्धारक के रूप में और राजपूतों को शोषक के रूप में चित्रित करने में फलीभूत हुआ है| इसीलिए उसने विशाल पुरुषार्थी-वर्ग से अपने पक्ष में मत प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करली है| इसी फूट की खाई को अधिक गहरी और चौड़ी करने के लिए नाना प्रकार के भूमि संबंधी कानून पास किये जाते है, किसी एक पक्ष का अन्यायपूर्ण पोषण और दुसरे का गला घोंटा जाता रहा है| इसीलिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति से कभी किसान सभाओं को और कभी कुछ पूंजीपति जागीरदारों द्वारा नियंत्रित तथाकथित क्षत्रिय संस्थाओं को अपने हाथ की कठपुतली बनाये रख कर किसानों और अन्य भोले राजपूतों की अतुल शक्ति को अपने पक्ष में प्रयोग करने के हथकंडों को निरंतर प्रयोग में लाया जा रहा है| किसानों के लाभ की अधिक बातें कही जाकर इन भोले भाले किसानों को इस बुद्धिजीवी-वर्ग द्वारा अपनी स्वार्थक्षुद्धा को शांत करने के लिए उपयुक्त खाद्य बनाया जा रहा है| आज की तथाकथित जाट-राजपूत समस्या इसी स्वार्थी वर्ग द्वारा अपने स्वार्थों को सुरक्षित रखने के लिए उत्पन्न की गयी समस्या है| यदि प्रान्त के केवल जाट-राजपूत ही एक हो जाते है तो इस बुद्धिजीवी वर्ग की माँ कांग्रेस राजस्थान में आज एक दिन भी ठहर नहीं सकती| पर जाटों के वर्तमान नेतृत्व के रहते हुए जाट-राजपूत एकता और उनका मिलकर कार्य करना कठिन है| राजस्थान की विशिष्ट राजनैतिक परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप प्राप्त सत्ता को वे आज अपनी योग्यता और चतुराई का परिणाम मान बैठे है| यही उनकी भूल है| राजस्थान की कांग्रेस की फूट और उसकी राजपूतों से बदला लेने की भावना के कारण ही जाटों को प्रशासन में इतना महत्व दिया जाता, पर यह स्थिति अब अंतिम और चरम पर है| जाटों का आज नेतृत्व अयोग्य और स्वयं-भ्रष्ट है, वह केवल सत्ता का सहारा और सहयोग पाकर जीवित रहना और लाभान्वित होना चाहता है| जाटों को साथ लेने के लिए या तो उनके वर्तमान नेतृत्व की अवहेलना करके योग्य और वास्तविक नेतृत्व को ढूँढना और आगे लाना पड़ेगा या उनको शेष पुरुषार्थी वर्गों से पृथक करना होगा, उनके तमोगुणी जातीय भाव का नग्न चित्र जनता के सामने रखना होगा| पर यह दूसरी स्थिति जाटों के लिए लाभदायक नहीं होगी| मुट्ठीभर बुद्धिजीवी वर्ग आज राजपूतों और अन्य पुरुषार्थी वर्ग को लड़ा कर अपना उल्लू सीधा कर रहा है| क्या यह हमारे लिए शर्म की बात नहीं? हमारी समस्या एक, स्वार्थ एक, हमें एक साथ गांवों में रहना है| फिर हम क्यों लड़ते है ? गांवों की समस्याओं को सुलझाने के लिए एक साथ मिलकर आगे क्यों नहीं बढ़ते ? गांवों की सामूहिक प्रगति करने के आधार पर हम क्यों नहीं सोच सकते ? फूट डालने और शोषण करने वाले तत्वों को वहां से मिलकर निकाल क्यों नहीं देते ?

क्रमश:....

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