Monday, September 9, 2013

राजपूत और भविष्य : वास्तविक नेतृत्व - भाग-1

पांचवे अध्याय में राजपूत नेतृत्व की अयोग्यता पर कुछ प्रकाश डाल दिया गया है । राजपूत जाति के लिए नेतृत्व का प्रश्न अत्यंत ही महत्वशाली होने के कारण इस अध्याय में उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार किया जायेगा तथा एक आदर्श और सच्चे नेतृत्व की कसौटी के रचनात्मक पहलुओं को ध्यान में रखा जायेगा ।

जब हम पतन और उत्थान के संधि स्थल पर खड़े होकर उत्थान के मार्ग पर अग्रसर होने को पैर बढ़ाते हैं तब हमें सहसा जिस प्रथम आवश्यकता की अनुभूति होती है, वह है योग्य नेतृत्व। अन्तरावलोकन के अध्याय में बताया जा चुका है कि अब तक हमारी अधोगति का मुख्य कारण नेतृत्व रहा है। योग्य नेतृत्व स्वयं प्रकाशित, स्वयं सिद्ध और स्वयं निर्मित्त होता है। फिर भी सामाजिक वातावरण और देश-कालगत परिस्थितियां उसकी रूपरेखा को बनाने और नियंत्रित करने में बहुत बड़ा भाग लेती हैं। किसी के नेतृत्व में चलने वाला समाज यदि व्यक्तिवादी या रूढ़िवादी है तो उस समाज में स्वाभाविक और योग्य नेतृत्व की उन्नति के लिए अधिक अवसर नहीं रहता। जैसा की बताया जा चुका है, राजपूत जाति में नेतृत्व अब तक वंशानुगत, पद और आर्थिक सम्पन्नता के आधार पर चला आया है। वह समाज कितना अभागा है जहाँ गुणों और सिद्धांतों का अनुकरण न होकर किसी तथाकथित उच्च घराने में जन्म लेने वाले अस्थि-मांस के क्षणभंगुर मानव का अन्धानुकरण किया जाता है। सैंकड़ों वर्षों से पालित और पोषित इस समाज के इन कुसंस्कारों को आज दूर करने की बड़ी आवश्यकता है।

कोई भी व्यक्ति तभी तक महान है जब तक वह महान सिद्धांतों को क्रियान्वित करने वाला, उन पर आचरण करने वाला रहता है । पर ज्यों ही व्यक्ति सिद्धांतों से पतित होकर अवसरवादी बन जाता है। जीवात्मा रहित मानव शरीर केवल मात्र एक शव रहता है, और सिद्धांत रहित मानव भी केवल एक तुच्छ मानव मात्र रह जाता है। हमें किसी का अनुकरण करने से पहले यह जान लेना और समझ लेना आवश्यक है कि हम अनुकरण किन्ही सिद्धांतों का कर रहे हैं या व्यक्ति का। सिद्धान्तहीन व्यक्ति का अनुकरण हमें न मालूम किस गर्त में गिराकर समाप्त कर सकता है, और न मालूम किन परिस्थितियों में डालकर हमसे दूषित और लज्जास्पद कार्य करा सकता है। अतएव योग्य नेतृत्व की प्रथम कसौटी है- नेता का स्वयं का सिद्धांतवादी होना । उसका स्वयं का एक निश्चित सैद्धांतिक ध्येय होना आवश्यक है। उसका प्रत्येक कार्य उन्ही सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए | ऐसी दशा में जब हम नेता के प्रति श्रद्धा और सम्मान दर्शाते हैं तब वह श्रद्धा और सम्मान उसके व्यक्तित्व के सैद्धांतिक पक्ष के प्रति ही होता है। जब कोई व्यक्ति सिद्धान्तहीन हो जाता है तब उसके जड़ व्यक्तित्व की पूजा की बिलकुल आवश्यकता नहीं है। रूढ़िवादी और जड़बुद्धि समाज, ऐसी दशा में में नेता के जड़ व्यक्तित्व अर्थात उसके शारीरिक आकार-प्रकार वेश-भूषा, वंशगत कुलीनता और सामाजिक स्थिति का ही अनुकरण किया करता है, पर जागरूक और ज्ञानी समाज में इस प्रकार के नेतृत्व की सदैव के लिए मृत्यु हो जाती है। अतएव आवश्यकता इस बात की है कि हम व्यक्ति के स्थान पर सिद्धांतों की पूजा करना सीखें और उनका ही नेतृत्व स्वीकार करें। यहाँ पर हमें व्यक्ति-पूजा और वीर-पूजा के भेद को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए । जो व्यक्ति जीवनपर्यंत महान सिद्धांतानुसार आचरण करके अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देता है, अथवा अपने सिद्धांतों की रक्षा में प्राण विसर्जन करता है, वही व्यक्ति वीर की संज्ञा से आभूषित किया जा सकता है। ऐसे वीरों की पूजा करना हिन्दू संस्कृति की विशेषता है, पर जीवित व्यक्ति की पूजा करके उसका अन्धानुकरण हमें कदापि नहीं करना चाहिए ।

केवल मात्र सिद्धांतों की गठरी के भार को सिर पर ढ़ोने वाला व्यक्ति भी नेता नहीं हो सकता। आज समाज में ऐसे निष्क्रिय व्यक्तियों की कमी नहीं है जिनके छोटे से मस्तिष्क में अविरल रूप से टॉलस्टॉय, सुकरात और अरस्तु के दार्शनिक सिद्धांत चक्कर लगाया करते हैं, प्लेटो, रूसों, मार्क्स और लेनिन की राजनैतिक विचारधाराएँ जिनके बोद्धिक धरातल को मल्ल-युद्ध का अखाडा बनाये हुए हैं, शुक्र विदुर और चाणक्य नीति के श्लोक जिनकी जिव्ह्या की अग्रगणी पर सदैव नाचते रहते हैं और वेदों, उपनिषदों के सिद्धांत-वाक्य जिनकी अद्भुत स्मरण शक्ति की साक्षी देते रहते हैं । संसार भर के वादों विचारधाराओं और सामाजिक और राजनैतिक क्रांतियों की पृष्ठ भूमि और इतिहासों को नेता के लिए के लिए जानना उतना आवश्यक नहीं है जितना अपने अनुयायियों के मनोवैज्ञानिक स्तर को समझ कर व्यवस्थित प्रणाली द्वारा उनके पथ-प्रदर्शन की व्यावहारिकता को जानना आवश्यक है। आज राजपूत समाज में इस प्रकार के नेताओं की कमी नहीं है जो समाज की सांस्कृतिक, रूढिगत राजनैतिक, आर्थिक और परिस्थिति जन्य विशेषताओं और आवश्यकतों को समझे बिना ही अपने-अपने नेतृत्व की भूख को शांत करना चाहते हैं। जब अस्पष्ट विचारधारा और अपूर्ण कार्यप्रणाली वाले इन नेताओं के कार्यों का प्रथम प्रयास विफल हो जाता है तब समाज को पीछे नहीं चलने का दोष देकर, उसके प्रति घृणा और क्रोध को लेकर ऐसे नेताओं के नेतृत्व का दीपक सदैव के लिए बुझ जाता है। वास्तव में समाज कोई भेड़ बकरी नहीं है जो चाहे जिसके पीछे हो जाये। जो व्यक्ति अपने निश्चित सिद्धांतों को सामाजिक सिद्धांतों के रूप में रखकर उन्हें सामाजिक जीवन में ढालने की क्षमता रखता हो, समाज उसी के पीछे चलने को तत्पर रहता है। वह महात्मा किस काम को जो केवल केवल अमृत की बातें तो करता है पर उसका आस्वादन नहीं करा सकता और वह नेता भी किस काम का जो केवल सिद्धांतों के बातें तो कहता है पर उन्हें समाज-जीवन में रूपांतरित कर सामाजिक ध्येय की पूर्ति के लिए व्यावहारिक मार्ग प्रस्तुत करने की क्षमता नहीं रखता|

क्रमश:..........

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