Monday, June 10, 2013

राजपूत और भविष्य : अन्तरावलोकन भाग- 4

भाग 3 से आगे ......
राजपूत जाति की एक मुख्य आंतरिक कमजोरी उसकी आर्थिक विषमता रही है| आर्थिक विभाजन के अनुसार राजपूत जाति को तीन भागों में बांटा जा सकता है| अरबपति और करोड़पति राजा-महाराजाओं से लेकर अर्द्ध-नग्न और अर्द्ध-भूखा श्रमिक राजपूत परिवार रक्त और परम्परा की दृष्टि से एक ही समाज के अंग है| पर वास्तव में क्या उनकी सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मान्यताएं और आदर्श एक हो सकते है ? राजा-महाराजाओं और बड़े जागीरदारों के आर्थिक स्वार्थ देश के बड़े पूंजीपति-वर्ग के साथ और गरीब राजपूतों के आर्थिक स्वार्थ देश के कृषक और अन्य श्रमिक वर्गों के साथ है|
वर्तमान धारणा के अनुसार पहला वर्ग शोषक और दूसरा शोषित वर्ग की श्रेणी में आता है| एक सम्पत्तिवान और दूसरा सम्पत्तिहीन है| जब इन दो वर्गों के आर्थिक हित भिन्न-भिन्न है जब उनके आर्थिक उदेश्य भिन्न-भिन्न है तब राजनैतिक उदेश्य भी भिन्न-भिन्न होंगे| आर्थिक और राजनैतिक उदेश्य भिन्न-भिन्न होने के चलते आर्थिक और राजनैतिक कार्यक्रम और उन कार्यक्रमों को संचालित करने वाली संस्थाएं भी भिन्न-भिन्न होंगी| ऐसी दशा में केवल रक्त का दूरवर्ती संबंध राजपूतों को एक ध्वज के नीचे नहीं ला सकता| यदि वे सब एक ध्वज के नीचे आ भी जाते है तो एक वर्ग का निश्चित शोषण होता है; उसे साधन के रूप में ही प्रयुक्त किया जाता है| अब तक अमीर-वर्ग ने गरीब राजपूत-वर्ग को इसी भांति प्रयुक्त किया है| संगठन का मुख्य और प्राथमिक आधार उदेश्यों की एकता है| विभिन्न विरोधी उदेश्यों वाले व्यक्तियों को हम एक संगठन में कैसे ला सकते है ? विभिन्न आर्थिक श्रेणी के व्यक्ति एक सर्वमान्य उद्देश्य और कार्यक्रम को लेकर आज के इस युग में एक साथ कार्य नहीं कर सकते|

यही कारण है कि अमीर जागीरदार और साधारण श्रेणी के राजपूत-वर्ग ने मिलकर आज तक किसी भी शक्तिशाली संगठन को जन्म नहीं दिया है| राजपूत संगठन की दृष्टि से यह सौभाग्य का विषय है कि आज परिस्थितिवश यह आर्थिक विषमता शनै: शनै दूर होती जाती जा रही है| अशिक्षा तथा सामाजिक रूढ़ियाँ राजपूत जाति की ऐसी कमजोरियां है जिनके कारण सामाजिक जीवन आज गतिहीन बन रहा है| भारत को अन्य प्रगतिशील जातियों की अपेक्षा राजपूत जाति कहीं अधिक अशिक्षित है| इस अशिक्षा के कारण ही बहुत अंशों में अज्ञान की उत्पत्ति होती है और सिद्धांतों, घटनाओं और तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन नहीं हो सकता| इसलिए सामाजिक क्षेत्र में आज कई दुर्गुण और रुढियों के रूप में घर कर गये है| इसी कारण से राजनैतिक क्षेत्र में बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा शोषण होता रहा है तथा अनुकूल राजनैतिक सिद्धांतों को न समझ सकने के कारण समाज के राजनैतिक उदेश्य की पूर्ति नहीं हो सकती|

किसी भी राजनैतिक अथवा नैतिक सिद्धांत-प्रणाली को अब तक जनसमुदाय के गले नहीं उतारा जा सकता, जब तक कि उसमें उसे ग्रहण कर आत्मसात करने की क्षमता न हो| इस कार्य के लिए कम से कम सही, शिक्षा का होना आवश्यक है| शिक्षा प्रसार के लिए अब तक जो सरकारी और गैर-सरकारी प्रयत्न हुए है वे अपूर्ण, एकांकी और संगठन की मूल भावना के प्रतिकूल पड़ते है| यह नि:संकोच स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारी जातिय शिक्षण-संस्थाएं शिक्षा के वास्तविक और मूल उदेश्य की पूर्ति करने में पूर्ण असफल रही है| आज का शिक्षित वर्ग या तो व्यक्तिवाद और संकुचित मनोवृति-प्रधान है अथवा विश्व-प्रेम और मानवता के कल्याण के सिधान्तों की गठरी से अपने छोटे मस्तिष्क को बोझिल किये हुए है|

ये दोनों ही स्थितियां अपूर्ण और अवांछनीय है| आज केवल तर्क-प्रधान, स्वार्थी, अकर्मण्य, आलोचक शिक्षितों की हमें आवश्यकता नहीं है| शिक्षा का मूल ध्येय स्वाभिमान से जीवित रहना और गौरव से मरने की भावना उत्पन्न लगने वाला होना चाहिये| शूद्रों को कल्याणप्रद लगने वाली धर्म-निरपेक्ष और बनियों को सुहाती हुई अहिंसा की शिक्षा क्षत्रिय बालकों के किस काम की ? वह शिक्षा ही क्या जो स्वजाति-प्रेम, राष्ट्रीय गौरव और कुल-परम्परागत स्वाभिमान को जाग्रत करने की उदात्त भावना से परिपूर्ण न हो| व्यक्तित्व का बहुमुखी और सम्पूर्ण विकास करना ही शिक्षा का ध्येय हो सकता है| शिक्षा के द्वारा केवल रोटी अर्जन करना तो शिक्षा का दुरूपयोग मात्र है| शिक्षा हमारे परम्परागत गुणों को जाग्रत कर, हमारी स्वाभाविक मनोवृतियों को सुसंस्कृत और अर्द्ध-विकसित मानवी शक्तियों को पूर्ण करने वाली होनी चाहिये|

No comments:

Post a Comment