Saturday, November 30, 2013

"महान धर्म : निराली परम्परा" भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

भारत में राजपूत जाति के उत्थान की प्रथम और अंतिम शर्त है ध्येय की एकता । भारत के प्रत्येक राजपूत का, चाहे वह किसी भी प्रान्त में, किसी भी स्थान पर क्यों न रह रहा हो, केवल एक ही ध्येय होना चाहिये । चाहे गरीब हो या अमीर, बुद्धिजीवी हो या श्रमिक, प्रत्येक धंधा करने वाले राजपूत का ध्येय केवल मात्र एक ही होना चाहिए । आज राजपूत समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता यही होगी कि हिमालय से लगाकर सुदूर दक्षिण तक और बंगाल, आसाम से लगा कर पंजाब, सिंध के राजपूतों को ध्येय के प्राकृतिक सम्बन्ध में बाँध दिया जाय। और फिर उन्हें समझा दिया जाय कि तुम्हारा केवल मात्र यही एक सच्चा और वास्तविक ध्येय है; केवल मात्र यही एक उद्देश्य हो सकता है, केवल मात्र इसी ध्येय में, तुम्हारी इहलौकिक उन्नति और पारलौकिक कल्याण निहित है । और आगे यह और अनुभव करा दिया जाय कि इसी ध्येय से च्युत होने के कारण, इसे विस्मृत करने के कारण आज तुम्हारी यह अधोगति हुई है । अपने ध्येय की एकता, श्रेष्टता, व्यावहारिकता, वैज्ञानिकता, शाश्वतता, प्रकृति-अनुकूलता और सर्व गुण-सम्पन्नता का सिक्का प्रत्येक क्षत्रिय के मस्तिष्क में जमा देना समाज-उत्थान की पहली शर्त होगी। अपने ध्येय के इन गुणों को समझने के लिए हमें गंभीरता से विचार करना पड़ेगा। इस सृष्टि के जड़ और चेतन प्रत्येक पदार्थ के अस्तित्व का कोई न कोई कारण अवश्य होता है । इसी प्रकार सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ की रचना, स्थिति, गति और लय का भी कारण होता है । बिना कारण के कार्य असंभव है । इसी प्रकार प्रत्येक कार्य का परिणाम भी होता है । बिना परिणाम के भी कार्य असंभव है । अस्तित्व कारण और परिणाम के सहित होता है; अस्तित्व है तो उसका कारण भी होगा और परिणाम भी । प्रत्येक पदार्थ का परिणाम उसके कारण का विकसित रूप होता है । अस्तित्व का कारण निश्चित होता है, अतएव उसका परिणाम भी निश्चित ही होगा। किसी भी पदार्थ के अस्तित्व का यही निश्चित परिणाम उसकी स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें होती हैं । ये ही स्वभावजन्य और प्रकृतिजन्य विशेषतायें उस पदार्थ का ध्येय अथवा उद्देश्य होती है । अतः उद्देश्य निश्चित होता है, वह बनाने से नहीं बनता ।

अब हम यदि मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करें तो ज्ञात होगा कि मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका कारण बन जाता है । इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका परिणाम भी बन जाता है, इसीलिए मनुष्य जीवन के अस्तित्व में आने के पूर्व ही उसका उद्देश्य या ध्येय भी निर्मित हो जाता है। जीवन का ध्येय जीवन के प्रारंभ होने से पूर्व ही बन जाता है और जब मनुष्य जन्म लेता है तो उसकी प्रकृति में ध्येय पहले से ही निर्मित रहता है । जन्म के उपरांत यदि अनुकूल वातावरण मिल जाता है तो मनुष्य अपने स्वभावजन्य विशेषताओं का पूर्ण विकास कर ध्येय की प्राप्ति कर लेता है और प्रतिकूल वातावरण में वह पथ-भ्रष्ट होकर ध्येय-प्राप्ति से बिछुड़ जाता है ।

मनुष्य का किसी भी माता-पिता के घर जन्म लेना आकस्मिक घटना मात्र नहीं है, अपितु यह किसी निश्चित, नियमित प्रणाली का परिणाम होता है। हम चाहें तो इसे पूर्व जन्मों के कार्यों या संस्कारों का फल कह सकते हैं । मनुष्य जब जन्मता है तो उसके साथ उसके पूर्व जन्म के संस्कार भी जन्मते हैं और साथ के साथ उसके रक्त में माता-पिता से प्राप्त परम्परा भी होती है । यह परम्परा माता-पिता को उनके माता-पिता और पूर्वजों से प्राप्त हुई होती है, अतः जब-जब मनुष्य इस संसार में जन्म लेता है तो उसके साथ ही एक अति प्राचीन परंपरा अर्थात उस व्यक्ति की उसकी और पूर्वजों की अनुभूत विशेषतायें भी साथ जन्म लेती हैं । इस परंपरा के पालन करने के स्वरुप और अवस्था का नाम ही हमारी संस्कृति है और इन परंपरागत संस्कारों के मूर्तिमान-स्वरुप संस्कृति की श्रद्धापूर्वक रक्षा व पोषण करने का नाम ही स्वधर्म है।

इस प्रकार मनुष्य के जन्म के साथ उसकी परम्परा से कुछ गुण प्राप्त होते हैं और उन्ही गुणों के वशीभूत होकर मनुष्य जीवन में कर्म करता है । ये ही गुण उसके स्वभाव का स्वरुप बन जाते हैं, अतः प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव, गुण और कर्म निश्चित रहते हैं । इस प्रकार अपने गुण, कर्म व स्वभाव के अनुकूल कार्य करना ही प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म है और यही स्वधर्म व्यक्ति का साध्य अथवा उद्देश्य होता है।

आर्य सिद्धांतनुसार इस सृष्टि कि रचना त्रिगुणात्मक माया के वशीभूत हो कर हुई |सत्व ,राज और ताम के वशीभूत हो कर हर मनुष्य काम करता है |इन्ही गुणो में से कम या अधिक गुणो को मनुष्य परंपरा और पूर्व संस्कारों से प्राप्त करता है और इन्ही गुणो के अधर पर भारतीय मनीषियों ने वर्ण -व्यवस्था द्वारा प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभाविक कर्म अर्थात स्वधर्म कि विविचाना कि है |गीतकार के अनुसार परपरागत स्वाभाव और र्पाकृति से जो व्यक्ति अंतःकरण का निग्रह ,इंद्रियों का दमन, बहार-भीतरी शुद्धि,धर्म के लिए कष्ट सहन करना .क्षमावान ,मन, इंद्रियों और शरीर कि सरलता ,आस्तिक बूढी ,शास्त्र-विषयक ज्ञान और परमात्मा तत्त्व का अनुभव करने वाला हो वह ब्राह्मण है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही शूरवीरता ,तेज़,धैर्य ,चतुरता,युद्ध में न भागने का स्वाभाव ,दानशीलता,ईश्वरभाव आदि गुण हो वो क्षत्रिय है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही खेती ,गौपालन ,क्रय-विक्रय आदि करने के गुण हों वह वैश्य है |जिस व्यक्ति में स्वाभाव से ही सेवा करने का गुण हो वह शुद्र है |इस प्रकार ब्राह्मण के लिए ब्राह्मण धर्म, क्षत्रिय के लिए क्षात्र-धर्म ,वैश्य के लिए वैश्य -धर्म और शुद्र के लिए शुद्र-धर्म क्रमशः उनके स्वधर्म अथवा स्वाभाविक कर्तव्य हैं |और यही स्वधर्म प्रत्येक व्यक्ति का ध्येय अथवा उद्देश्य हो सकता है ,अतएव क्षत्रिय के लिए उद्देश्य क्षत्रिय धर्म |क्षात्र धर्म कि विस्तृत व्याख्या करने से पहले उसकी तात्विक प्रकृति को समझ लेना आवश्यक होगा |

सतोगुण मुख्यतः ज्ञान व चेतना -प्रधान ,रजोगुण इच्छा व क्रिया-प्रधान तथा तमोगुण अज्ञान व जड़ता -प्रधान है |ज्ञान व चेतना का अज्ञान और जड़ता से चिरकाल से संघर्ष चलता आया है |इसे ही हम सत्य और असत्य ,धर्म और अधर्म,न्याय और अन्याय ,प्रकाश और अंधकार ,भलाई और बुराई ,सद्गुणो और दुर्गुणो अथव दैवी और दानवी संघर्ष के नाम से पुकारते रहे हैं |तमोगुण सदैव से ही सतोगुण को पराजित करके उसे आकारांत करना चाहता है |बीच में रजोगुण पड़ता है अतएव तमोगुण का पहला संघर्ष रजोगुण से ही होता है |दूसरे शब्दों में हम केह सकते हैं कि रजोगुण-प्रधान कर्म करने वाले सांसारिक लोग तमोगुण -प्रधान आसुरी शक्ति द्वारा पहले पराजित होकर दानव बन जाते हैं,तन उनका आक्रमण सतोगुण पर होता है |सतोगुण स्वयं इच्छा और क्रिया से रहित होने के कारन तमोगुण के सामने अकेला ठहर नहीं सकता,अतएव उसे रजोगुण कि सहायता लेनी ही पड़ती है और रजोगुण को स्वयं अपने अस्तित्व के लिए सतवोन्मुखी होकर सैट कि सहायता करनी पड़ती है |इसलिए तो क्षात्र-वृति के बिना ब्राह्मण के सत्व-वृति का जीवित रहना कठिन है |ऐसी दशा में तो वह तमोभाव द्वारा आक्रांत होकर शूद्रत्व के निकृष्टतम गुणो को प्राप्त हो जाता है और इसीलिए जिस देश में क्षत्रिय न हों वहाँ ब्राह्मण का निवास करना वर्जित कहा गया है |इसी सिद्धांत के अनुसार सत्व राज कि सृस्टि करनी चाहिए और राज को सदैव सत्व कि रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए |जब यह मर्यादा भंग हो जाती है तभी समाज विश्रृंखलित होकर पतनोमुखी बन जाता है|

क्रमश:........

Friday, November 29, 2013

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- अंतिम (राजपूत और भविष्य)

भाग - ४ से आगे...
इसी भाँति वास्तविक साम्यवाद की चरम स्थिति के दो आवश्यक पहलू राज्यहीन और व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की स्थापना केवल एक ऐसी आदर्श कल्पना मात्र कही जा सकती है जो कभी भी पूरी नहीं हो सकती। इस प्रकार राज्यविहीन समाज की कल्पना हिन्दू तत्वज्ञ बहुत पहले ही कर चुके थे। इस प्रकार की व्यवस्था की स्थापना के लिए ब्रह्मनिष्ठ, ज्ञानी, वासनाजयी और त्यागी व्यक्तियों के समाज-निर्माण का बहुत ही परिश्रम और संस्कारमयी प्रणाली द्वारा प्रयत्न भी किया गया। वास्तव में इस प्रकार के (Stateless Society) समाज की रचना और स्थापना इस प्रकार के श्रेष्ठ चारित्र्य से ही सम्भव हो सकती है। इस प्रकार के समाज में सब व्यक्ति परस्पर स्नेहपूर्ण, स्वार्थ-रहित होकर समाज का निर्माण और धारण करते हैं। ऐसी समाज के लिए राज-सता, दण्ड-नियम आदि के बंधन अनावश्यक होते हैं. यही अवस्था कृत-युग के नाम से पुकारी गई है। इस अवस्था का शास्त्रकारों शास्त्रकारों ने यों वर्णन किया है -
न राज्यं न च राजाˢˢसोन्न दण्डो न च दण्डिकः ।
धर्मेणेव प्रजाः सर्वा रक्षन्तिस्म् परस्परम् ।।

आज के साम्यवाद में जिस राज्यहीन सरकार की कल्पना की गई है, वह धर्महीन होने के कारण कितनी अराजकता और अनैतिकतापूर्ण और भयंकर होगी, उसकी कल्पना आसानी से की जा सकती है. हिन्दू शास्त्रकारों ने भी जब तक यह वांछनीय अवस्था प्राप्त न हो तब तक राजसता का होना आवश्यक मान लिया था और उस पर धर्म अथवा धर्मपरायण व्यक्तियों का नियंत्रण रख दिया, जो सब प्रकार से स्वार्थ-निरपेक्ष, निडर और ब्रह्म-रूप से समाज को देखने वाले समदर्शी होते थे। आज के साम्यवाद की राज्यहीन समाज की कल्पना अपूर्ण और अव्यावहारिक होने के साथ ही साथ धर्मविहीन होने के कारण अतीव भयंकर भी है। इसी भांति व्यक्तिगत सम्पतिहीन समाज की कल्पना भी वास्तविक नहीं है।

इनके अतिरिक्त साम्यवादियों की अन्य धारणायें और मान्यतायें भी असत्य हैं। द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत और सृष्टि की जड़ अथवा स्थूल से उत्पति आदि की धारणायें बच्चों की सी बातें हैं। संसार द्वंदात्मक है अवश्य पर वह भौतिक र्रोप से शोषित और शोषक, मजदूर और पूंजीपति का द्वन्द न होकर तात्विक रूप से सत्य और असत्य, न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म, चेतन और जड़, प्रकाश और अंधकार का द्वन्द है। शोषित और शोषक तथा मजदूर और पूंजीपति का विभाजन तो बहुत ही मोटी बुद्धि का कार्य है। इसी द्वंदात्मक भौतिकवाद के अंतर्गत भौतिक साम्य की स्थापना भी एक असम्भव कल्पना मात्र है। समता अथवा साम्य आत्मिक गुण है, अतएव उसकी भौतिक रूप से प्राप्ति असम्भव है। आत्मा तक साम्यवादी दर्शन की पहुँच ही नहीं है। आत्मा और ईश्वर की सत्ता को वह स्वीकार ही नहीं करता, अतएव आत्म-साम्य आदि सत्य और उच्च सिद्धांतों तक साम्यवादी सोच भी नहीं सकते।

वास्तव में आज की साम्यवादी व्यवस्था दलगत अधिनायकवाद के अंतर्गत एक समाजवादी व्यवस्था है जो मनुष्य की घृणा, काम, हिंसा, प्रतिशोध, सांसारिक सुख आदि की पाशविक वृतियों को उतेजित करके सदैव सता हाथ में रखने की चेष्टा किया करती है। इस व्यवस्था के अनुसार व्यक्ति को आवश्यक भौतिक सुविधायें तो प्राप्त हो जाती हैं पर उसकी आत्मा कुण्ठित हो जाती है और स्वतंत्रता आदि गुणों का विनाश विनाश हो जाता है। इस व्यवस्था के अंतर्गत व्यक्ति पूर्णतः पशुवत् और यन्त्रवत् होकर अधिनायकवाद को पुष्ट और जीवित रखने का साधन मात्र बन जाता है। अधिनायकवाद चाहे व्यक्तिगत हो अथवा संस्थागत, अतीव ही भयंकर और राक्षसी प्रवर्ति-प्रधान होता है। आस्तिकवाद की दया, उदारता, क्षमा, न्याय, सत्य आदि सद्गुण इस नास्तिक साम्यवादी अधिनायकवाद के लिए सर्वथा असत्य तत्व है। एक बार यदि यह व्यवस्था स्थापित हो जाती है तो इसका उन्मूलन बाह्य शक्ति की सहायता के बिना असम्भव सा होता है। अज्ञान और असंतोष में इसके कीटाणु अधिक पनपते हैं, अतएव इसकी एक-मात्र चिकित्सा ज्ञान-प्रसार और भौतिक रूप से संतोष की प्राप्ति है। वास्तव में आज की प्रचलित साम्यवादी व्यवस्था इस पृथ्वी पर नारकीय व्यवस्था है जो वर्तमान प्रजातंत्रीय समाजवाद और सामान्य प्रजातन्त्रवाद से कहीं अधिक भयानक है। इस व्यवस्था की तुलना हम मध्ययुगीन इस्लामी व्यवस्था से कर सकते हैं। जिस प्रकार एक आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मियों के अस्तित्व को सहा नहीं जा सकता, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी विरोधी दलों के अस्तित्व के लिए कोई स्थान नहीं है। आदर्श इस्लामी राज्य में विधर्मी और विजातीय तत्व केवल इस्लाम के प्रचार और प्रसार के लिए उपयुक्त साधन और सामग्री समझे जाते हैं, इसी भाँति साम्यवादी व्यवस्था में भी गैर-साम्यवादी लोग साम्यवाद के प्रचार और प्रसार के लिए केवल साधन मात्र होते हैं। एक आदर्श इस्लामी राज्य में राज्य के महत्वपूर्ण पदों और स्थानों पर केवल मुसलमान ही पदासीन हो सकते हैं इसी भाँति इस साम्यवादी व्यवस्था के अंतर्गत राज्य के समस्त महत्वपूर्ण पद और स्थान साम्यवादीयों के लिए ही सुरक्षित रहते हैं। एक विधर्मियों से घृणा करता है तो दूसरा गैर-साम्यवादियों से घृणा करता है। एक इस्लाम का डंका संसार में बजाना अपना परम पवित्र कर्तव्य समझता है तो दूसरा साम्यवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव को बढ़ने में अपनी सार्थकता समझता है। सैद्धांतिक कट्टरता, गैरों के लिए घृणा, हिंसा और असहिष्णुता में इस्लाम और साम्यवाद के आदर्श एक समान ही हैं। इतनी समानता होने के उपरांत इस्लाम एक आस्तिक व्यवस्था और साम्यवाद एक नास्तिक व्यवस्था है। इस्लाम के अंतर्गत मुसलमानों के व्यक्तिगत अभ्युदय के लिए मार्ग पूर्ण रूप से खुला रहता है, पर साम्यवाद के अंतर्गत व्यक्तिगत स्वतंत्रता नाम की कोई वस्तु नहीं है। वह एक बहुत बड़ा कारावास है जिसके अंतर्गत अयक्ति को यंत्रवत कार्य करते रहना पड़ता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस साम्यवादी व्यवस्था से प्रजातंत्री व्यवस्था कहीं अधिक बुद्धिमतापूर्ण एवं कल्याणकारी है।

भारत के लिए पश्चिमी प्रजातन्त्रवाद, समाजवाद अथवा साम्यवाद में से कोई भी शासन-प्रणाली उपयुक्त नहीं है। यहाँ के लिए तो केवल वर्ण-व्यवस्थानुसार शासन-प्रणाली ही श्रेयस्कर है। वर्ण-व्यवस्था में इन वादों के गुणों का समावेश और दोषों का परिहार हो जाता है। वर्ण-व्यवस्था शास्त्रोक्त व्यवस्था है और शास्त्र किसी एक, दो या चार-पाँच व्यक्तियों द्वारा भौतिक सुखों के चिंतन में बनाई गई पुस्तकें मात्र नहीं हैं। वे इस पृथ्वी पर ईश्वरीय आज्ञा का लिपिबद्ध अथवा भाषा-बद्ध स्वरुप हैं। वे हज़ारों वर्षों के हज़ारों त्यागी और तपस्वियों के मनन, चिन्तन, अनुभव और आत्म-ज्ञान की साक्षी स्वरुप हैं। शास्त्रोक्त होने के कारण वर्ण-व्यवस्था ही मूल रूप से हमारे लिए ग्राह्य और श्रेयष्कर हो सकती है।

संसार के सब वादों में सर्व प्राचीन प्रजातन्त्रवाद है, जिसका जन्म अमेरिका के स्वातंत्र्य संग्राम और राज्य क्रांति के पश्चात हुआ है। इसकी अधिक से अधिक आयु पौने दो सौ वर्षों की है। समाजवादी व्यवस्था तो बीसवीं शताब्दी की कल्पना मात्र है और साम्यवाद की आयु चालीस वर्ष से अधिक नहीं है। अतएव कोई भी दृढ़तापूर्वक नहीं कह सकता कि इन वादों में कितना स्थायित्व और सत्य है। पर वर्ण-व्यवस्थानुसार समाज-व्यवस्था की आयु हज़ारों वर्षों की है। जिस व्यवस्था का पतन होने में लगभग तीन-चार हज़ार वर्ष लगे हों, उसकी दीर्धायु का सरलता से अनुमान लगाया जा सकता है। पतनावस्था में भी वर्ण-व्यवस्था के शाश्वत सिद्धांत पश्चिमी वादों से कहीं अधिक व्यावहारिक और श्रेयस्कर हैं। अतएव वर्ण-व्यवस्था पूर्ण परीक्षित, पूर्ण वैज्ञानिक, शास्त्रोक्त और व्यावहारिक होने के कारण भारत के लिए एक मात्र ग्राह्य और उपयुक्त व्यवस्था है। यह भारत की अपनी मौलिक विशेषता है और यदि सुचारु रूप से इसकी पुनः स्थापना कर दी जाय तो संसार के बहुत से देश पश्चिमी वादों से अपना पिण्ड छुड़ा कर निश्चित रूप से इसकी और आकर्षित हो जायेंगे। भारत पुनः संसार के गुरुत्व पद पर प्रतिष्ठित हो जायेगा। वह माली कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपने उधान में उत्पन्न केलों को बेचकर बाहर से लाल मिर्च लाकर खायेगा और वह ग्वाला कितना मुर्ख होगा जो दूध के मूल्य में मदिरा खरीद कर पीयेगा। इसी भांति वह देश कितना अभागा और अज्ञानी होगा जो अपनी मौलिक विशेषताओं को छोड़कर दूसरों के अनुकरण द्वारा उन्नति करना चाहेगा।

इस वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत क्षात्र-परम्परा अत्यधिक महत्वशाली व्यवस्था है। क्योंकि वर्ण-व्यवस्था की स्थापना, उसके आदर्श, मर्यादा आदि की रक्षा का दायित्व मूल रूप से क्षात्र-वृति पर है। अतएव सर्वप्रथम हमें क्षात्र-धर्म के उत्थान के रूप में सोचना चाहिए। क्षात्र-धर्म के उत्थान से तात्पर्य किसी जाति विशेष के उत्थान से नहीं, वरन शास्त्रोक्त वर्ण-व्यवस्था के उत्थान से है। क्षात्र-परंपरा ही वास्तव में सेवा का दिव्या आधार है। इसकी उन्नति में ब्राह्मण, वैश्य, शुद्र की समान रूप से उन्नति निहित है, इसकी उन्नति में सम्पूर्ण मानवता की उन्नति निहित है और यही आज भारत राष्ट्र के लिए सर्व हितकारी, सर्वकल्याणकारी और सुन्दर योजना है।

*********

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ४ (राजपूत और भविष्य)

भाग - ३ से आगे
'जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता-शासन' एक आकर्षक वाक्य अवश्य है पर यह कल्पना वस्तुस्थिति से कोसों दूर है. इस व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का भाग्य बुद्धिमान, नि:स्वार्थ और सच्चे जन-भक्तों के हाथों में न आकर उन अवसरवादी लोगों के हाथों में आ जाता है जो साधन-संपन्न, मिथ्या-भाषी, प्रचार-पट्टू और येन-केन-प्रकारेण जनता को मुर्ख बनाने की कला में अधिक निपुण होते हैं. वास्तव में पेशेवर राजनीतिज्ञ और राजनैतिक गुण्डे इसमें अधिक सफल होते हैं. इस व्यवस्था के अंतर्गत बहुमत-प्राप्त दल को ही राज्य-संचालन का भार दिया जाता है. जिन लोगों के मतों से बहुमत का निर्माण होता है, वे वास्तव में समझते ही नहीं कि राज्य-संचालन क्रिया एक कला और बुद्धिमतापूर्ण कार्य है और जिनको वे मत देने जा रहे हैं वे इस कला को जानते हैं अथवा नहीं। वास्तव में प्रजातन्त्रवाद जनता के अज्ञान का दुरूपयोग है. बहुमत सदैव नारों, अभद्र उपायों और सामयिक घटनाओं से ही प्रभावित रहता है. वह कभी भी दूरदर्शी, चिंतनशील और बुद्धिमान नहीं हो सकता। इस व्यवस्था के अंतर्गत धारासभाओं और संसद के बहुमत-प्राप्त दलों के अधिकांश धरासाभाई और संसद-सदस्य या तो शासन-संचालन के मूल सिद्धांतों को समझते ही नहीं या संस्थान अनुशासन और ऐसे ही अन्य कारणो से उदासीन होकर केवल सत्तारूढ़-मंत्रिमंडल की हाँ में हाँ मिलाते रहते हैं. वास्तविक रूप से मंत्रिमंडल के सदस्य और विशेषतः प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री ही वास्तविक शासक होता है. इस प्रकार यह शासन जनता द्वारा न होकर अंतिम रूप से एक या कुछ व्यक्तियों द्वारा ही होता है, उसी बहुमत-प्रधान वर्ग, जाति अथवा संप्रदाय के हितों को संरक्षण और प्रोत्साहन देने वाले कानून ही धारा-सभाओं आदि में बनाये जाते हैं. वे कानून अन्य वर्गों अथवा जातियों को चाहे समूल नष्ट करने वाले हों तो भी सत्तारूढ़ दल इसकी चिन्ता नहीं करता। इस प्रकार यह व्यवस्था जनता के लिए न होकर सदैव उन लोगों के लिए होती है जिनके मतों से एक दल सत्तारूढ़ होता है|

प्रजातन्त्रवाद में सिद्धांतत: सत्तारूढ़ दल सम्पूर्ण जनता अथवा मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होता है, पर जनता का कोई एक व्यक्तित्व, प्रतिनिधि नहीं होता और न वह जनता एक मस्तिष्क से सोच और समझ ही सकती है. जनता के प्रति जिम्मेवारी का अर्थ है किसी के भी प्रति जिम्मेवारी नहीं। यही कारण है कि सत्तारूढ़ दल सदैव अनियंत्रित, निरंकुश और गैर-जिम्मेवार होता है. वह सदैव एकपक्षीय और दलगत स्वार्थपूर्ति के कार्यों का कानूनों द्वारा वैधीकरण करता रहता है.

इस व्यवस्था के अंतर्गत दलगत राजनीति के पनपने के कारण कभी भी पक्षपातरहित कार्य नहीं हो सकता। सत्तारूढ़ दल सदैव अपने दल और दल के व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने कि योजनायें क्रियान्वित करता रहता है. जनहित अथवा देशहित की भावना की अपेक्षा उसके सामने अपने दल और दलविशेष को आगामी चुनावों में सफल बनाने की भावना अधिक कार्य करती रहती है। आज हम जन कल्याण के लिए जितने भी कार्यक्रम देख रहे हैं वे वास्तव में जन कल्याण के कार्यक्रम न होकर मुख्या रूप से सत्तारूढ़ दल द्वारा चुनाव जीतने के व्यवस्थित उपाय मात्र हैं।

व्यवस्थापिका सभा (Legislative Functions) का और कार्यपालिका(Executive Functions) का कार्य एक ही दल के हाथों में होने के कारण सदैव राजकीय सत्ता का दुरूपयोग होता रहता है। सत्तारूढ़ दल पूर्ण निरंकुश और सर्वाधिकार-संपन्न होने के कारण अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून बना कर देश पल बलात लादा करता है. बहुमत-प्राप्त दल में भी बहुमत तो अज्ञानियों और मूर्खों का होता है, अतएव थोड़े से बुद्धिजीवी लोग अपनी इच्छाओं और मान्यताओं को कानून द्वारा सम्पूर्ण देश पर लादा करते हैं और उस दल के बहुमत का निर्माण करने वाले सदस्य प्रलोभन, मूर्खता अथवा दलगत अनुशासन के कारण चन्द बुद्धिजीवियों का प्रकट रूप से विरोध करने का साहस नहीं कर सकते। इस प्रकार प्रजातन्त्रवाद में एक दो व्यक्तियों की इच्छायें और मान्यतायें सम्पूर्ण देश कि इच्छा और मान्यता बना दी जाती हैं तथा विधि-निर्माण और विधि का प्रयोग एक ही दल के हाथों में होने के कारण प्रशासन के दोनों ही अंग निरंकुश और कालांतर में भ्रस्ट बन जाते हैं।

जिस देश में राजनैतीक संस्थायें अधिक होती हैं, उस देश में तो स्पष्ट रूप से प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत जनता के अल्पमत का ही शासन होता है। इसी भाँती यदि सत्तारूढ़ दल में भी परस्पर गुटबाज़ी हुई तो भी शासन अल्पमत का ही होता है, क्योंकि बहुमत के अंदर बहुमत का तात्पर्य सदैव अल्पमत ही हुआ करता है।

प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत के सामने केवल तीन ही मार्ग होते हैं. या तो वह अपने सिद्धांतों को छोड़कर बहुमत या सत्तारूढ़ दल में मिल जाय, या अपने अल्पमत को शनै: शनै: बहुमत में रूपांतरित कर दे, या सदैव कुण्ठित होकर बहुमत की दासता करता रहे। सैद्धांतिक अल्पमत को विविशत: तीसरा ही मार्ग अपनाना पड़ता है। इस प्रकार सिद्धांतों के ऊपर आधारित अल्प-संख्यकों के लिए सैद्धांति उन्नती का कुछ भी अवसर नहीं रहता। अन्य शासन-प्रणालियों की भाँति प्रजातन्त्रवाद अप्राकृतिक, अधिक खर्चीली, अयोग्य और भ्रस्ट शासन-व्यवस्था है. मितव्ययिता, प्रशासनिक दक्षता, क्षिप्रता, ईमानदारी आदि से यह व्यवस्था कोसों दूर रहती है।

न्यायपालिका (Judiciary) को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखने का सिद्धांत आज सर्वमान्य सा हो गया है, पर भारत में हम न्यायपालिका को पूर्ण स्वतंत्र नहीं कह सकते। उच्चन्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनका पृथक्करण सत्तारूढ़ दल के ही हाथों में है। इसके अतिरिक्त कई आयोगों आदि का न्यायाधीशों को अध्यक्ष बनाना तथा अवकाश के उपरांत उन्हें अन्य प्रलोभनों के पद देने की नीति ने आज अधिकांश न्यायाधीशों को केवल सत्तारूढ़ डाक का कृपाकांक्षी मात्र बना रखा है। न्यायपालिका तभी स्वतंत्र कही जा सकती है जब निर्धारित योग्यता और अनुभव वाले व्यक्तियों ला न्यायाधीशों के रूप में जनता द्वारा चुनाव हो और उनके कार्यकाल की अवधि निश्चित हो। इस प्रकार भारत में आज एक ही दल कानून बनता है, वही कानून को कार्यान्वित करता है और उसी के द्वारा नियंत्रित न्याय-व्यवस्था कानूनों के अंतर्गत न्याय करती है। यह सम्पूर्ण प्रणाली दोषपूर्ण है। इस प्रकार की प्रणाली में विरोधी पक्षों और विचारों को निष्पक्ष न्याय मिला दुर्लभ है।

भारतीय प्रजातंत्र के नाम पर जनता की पिछली ग़ुलामी की प्रतिक्रिया का लाभ उठा कर बुद्धिजीवी-वर्ग आज सर्वे-सर्व बन बैठा है. थोड़े से मनचले बुद्धिजीवी तत्वों की स्वार्थपूर्ति का साधन होने के कारन आज लोगों की इस प्रणाली में श्रद्धा कम होती जा रही है। देश का चेतन मस्तिष्क इसका अब बहिष्कार करने लग गया है। वह इस व्यवस्था से यहाँ तक उब गया है कि अन्य कोई भी स्पष्ट व्यवस्था उसके सामने न होने के कारण वह इससे कहीं अधिक निकृष्ट साम्यवादी व्यवस्था तक को अपनाने के लिए तैयार हो गया है। पूर्व और दक्षिण का साम्यवादी अभ्युदय इसी सत्य की और इंगित करता है। इस प्रणाली के अंतर्गत जितना व्यय और परिश्रम, प्रदर्शन और प्रचार किया जाता है उतना यदि वास्तविक रूप से जनहितकारी योजना पर किया जाय तो बहुत कुछ कल्याण हो सकता है।

इसी भांति आज की समाजवादी व्यवस्था भी एक विदेशी कल्पना और भारतीय वातावरण के सर्वथा विपरीत विचारधारा है। इस व्यवस्था के अंतर्गत अर्थोपार्जन के समस्त बड़े साधनों पर राज्य का अधिकार हो जाने अथवा उनका राष्ट्रीयकरण हो जाने के कारण सत्तारूढ़ दल और भी अधिक शक्ति-संपन्न और निरंकुश हो जाता है। ऐसी व्यवस्था में निरंकुश सत्तारूढ़ दल को पदच्युत करने का जनता के पास कोई भी साधन नहीं रहता। चुनाव-प्रणाली अधिक खर्चीली होने के कारण जनता के सच्चे और ईमानदार सेवक न तो चुनावों द्वारा ही सर्व-साधन-संपन्न सत्तारूढ़ दल को पृथक कर सकते हैं और न किसी अन्य साधन द्वारा ही उसे हटाया जा सकता है। यही कारण है कि एक बार सता हाथ आ जाने के उपरांत प्रत्येक महत्वाकांक्षी सतारूढ़ दल अपने प्रभाव को अक्षुष्ण रखने के लिए सदैव समाजवादी व्यवस्था की स्थापना किया करता है। समाजवादी व्यवस्था प्रजातन्त्रवाद के अंतर्गत सामान्य व्यवस्था से कहीं अधिक कठोर और जन-जीवन को अधिक नियंत्रित और प्रभावित करने वाली व्यवस्था है। इसमें दलगत अधिनायकवाद के पनपने की बहुत सम्भावना रहती है. इस प्रकार के प्रजातंत्रीय समाजवाद अथवा अधिनायकवाद में चुनाव आदि होते अवश्य हैं पर वे केवल प्रदर्शन और संसार के अन्य देशों को भुलावे में डालने के लिए ही होते हैं। इस प्रकार के उपायों को काम में लिया जाता है जिससे प्रत्येक बार सतारूढ़ दल ही विजयी होता है। हमें भय है कि आज का भारतीय प्रजातंत्री समाजवाद भी यही रूप न धारण कर ले।

क्रमश :......

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- ३ (राजपूत और भविष्य)

भाग -२ से आगे
वर्ण-व्यवस्था का आधार, मनुष्य की जन्मजात प्रवर्ति और प्रकर्ति होने के कारण, इसके अनुसार कार्य का विभाजन अत्यंत ही मनोवैज्ञानिक रूप से हुआ है. वंशानुगत, परम्परागत और स्वभाव के अनुकूल होने के कारण मनुष्य शीघ्र ही अपने-अपने कार्यों में निपुणता प्राप्त कर लेते हैं. न समाज में बेकारी की समस्या रहती है और न वर्ग-द्वेष ही. सबके सामने जन्म से ही धंधा रहता है. इसीलिए किसी को भी अपने पैतृक अधिकारों से च्युत करने कि आश्यकता नहीं रहती। प्रत्येक आवश्यकता की पूर्ती की इसमें गारंटी रहती है। शिक्षा का आधार प्रकर्ति, स्वभाव और सहज प्रवर्तियों को मान कर मनोवैज्ञानिक रूप से शिक्षा और काम देने के कारण प्रत्येक उन्नत राष्ट्र आज ज्ञात अथवा अज्ञात रूप से वर्ण-व्यवस्था कि वैज्ञानिकता को अपना रहा है, पर आश्चर्य इस बात का है कि इस व्यवस्था का आदि स्रष्टा भारत इस व्यवस्था से दिनोदिन दूर हटता जा रहा है।

वर्ण-व्यवस्था की व्यवहारिकता, सरलता, वैज्ञानिकता और सर्वहितकारिता तब तक समझ नहीं आ सकती, जब तक हम आर्य-धर्म के अंतर्गत कर्मवाद को अच्छी प्रकार से समझ नहीं लेते। आर्य-दर्शन के अनुसार कर्म मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिया गया दायित्व है. यदि मनुष्य अपने इस दायित्व को कुशलतापूर्वक पूर्ण कर देता है, तो वह अपने अस्तित्व की सार्थकता को पूर्ण कर लेता है. मनुष्य को ईश्वर द्वारा दिये गये इस दायित्व के अंतर्गत ही उसके इस लोक और परलोक सम्बन्धी सब कर्म और कर्त्तव्य आ जाते हैं. शेष उसके लिए करने को कुछ भी नहीं रहता। इस दायित्व को पूरा करने अथवा न करने, इससे त्यागने या अपनाने में मनुष्य स्वतंत्र अवश्य रहता है पर अपने कर्मो का फल वह अपनी इच्छा के अनुरूप ही प्राप्त करे, यह उसके वश की बात नहीं होती। वह फल भोगने में परतंत्र रहता है. अतएव जिस फल रुपी वस्तु पर उसका कोई अधिकार ही नहीं, उसकी चिंता किये बिना ईश्वर द्वारा सोंपे हुए कार्य को कर्त्तव्य समझ कर करते रहना ही निष्काम-कर्मयोग का सिद्धांत है। इस सिद्धांत से दो बातें प्रतिपादित होती हैं-प्रथम यह कि यह कार्य ईश्वरप्रदत्त कार्य है. अतएव इसको करना हमारा परम कर्त्तव्य है. जब एक मनुष्य किसी उच्चाधिकारी या मालिक द्वारा बताये हुए कार्य को उसे खुश करने के लिए पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करता है तब वह सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रसन्न करने के लिए उसका कार्य क्यों नहीं पूर्ण मनोयोग, शक्ति और चतुराई से करेगा। नेपोलियन के वीर सिपाहियों कि यह तीर्व इच्छा रहती थी कि एक बार वह उनकी और देख ले, फिर तो वे धधकती हुई अग्नि में भी कूद पड़ेंगे - एक बार नेपोलियन उन्हें नाम से सम्बोधित करके आज्ञा दे दे, फिर तो वे काल से भीड़ जायेंगे। जब नेपोलियन के सिपाही अपने लौकिक मालिक के प्रति इतने सच्चे और कर्त्तव्यशील थे तब हम अपने सर्वशक्तिमान मालिक के प्रति क्यों नहीं सच्चे और कर्त्तव्यशील हों. इस प्रकार कर्म को ईश्वरीय आदेश समझ कर, ईश्वरीय इच्छा की पूर्ती के निमित पूर्ण करने से किसी भी प्रकार की रुकावट, अव्यवहारिकता, बेईमानी और बहानेबाजी सामने नहीं आ सकती। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य द्वारा सौंपे गए दायित्व से तो छिप कर अथवा झूठ बोल कर बच सकता है पर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी ईश्वर द्वारा दिए गए दायित्व से वह कैसे बचेगा? कर्मवाद में जो दूसरी बात प्रतिपादित होती है वह है फल भोगने में परतंत्रता। जो हम कार्य करते हैं उनका फल मिलेगा तो अवश्य, पर वह फल हमारी इच्छा के अनुरूप ही होगा, यह आवश्यक नहीं है. इस सिद्धांत को हृदयंगम कर लेने से पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष, छीना-झपटी और वर्ग-संघर्ष आदि कभी भी नहीं होंगे। मनुष्य जो कर्म करता है, उसके लिए जो कुछ फल उसे ईश्वरीय विधान के अंतर्गत मिलता हो, वह मिल कर रहता है. इस प्रकार कि सांसारिक धारणा बना लेने के उपरांत असंतोष नाम की कोई वास्तु नहीं रहती। असंतोष ही दुःख है.

कर्मवाद के ये ही दो पहलु वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत प्रत्येक कार्य और प्रणाली को नियन्त्रित और परिचालित करते रहते हैं. इन सिद्धांतो को मानकर नहीं चलने से वर्ण-व्यवस्था या अन्य कोई भी व्यवस्था सफल, व्यावहारिक और स्थाई नहीं हो सकती। वर्त्तमान समाज-गठन उसके संस्कार और वातावरण इस व्यवस्था को प्रचलित करने के लिए उपर्युक्त नहीं है. इस व्यवस्था को प्रचलित करने के पूर्व वर्षों पर्यन्त अनुकूल सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना पड़ेगा। शिक्षा, संस्कारों और विधि-नियमों द्वारा मनुष्यों के नैतिक और चारित्रिक स्तर को इस धरातल तक उठाना पड़ेगा, योजनाबद्ध रूप से एक सामाजिक क्रांति का आह्वान और आयोजन करना पड़ेगा, वर्त्तमान पीढ़ी के विकृत संस्कारों और मानसिक धरातल को सुधार कर तथा विकसित करके नवीन साँचे में ढालना होगा और नई पीढ़ी को मनोवैज्ञानिक रूप से नई व्यवस्था के लिए तैयार करना पड़ेगा। तभी जाकर इस व्यवस्था के अंतर्गत कार्य करने की क्षमता और कौशल का प्रादुर्भाव हो सकेगा।

वर्ण-व्यवस्था और उसके द्वारा कार्य संचालन की तुलना में आज का प्रजातन्त्रवाद अत्यंत ही अभावग्रस्त एवं अपूर्ण व्यवस्था है. वास्तव में प्रजातन्त्रवाद को मूर्खवाद कहना चाहिए, क्योंकि यह बहुमत का शासन होता है और बहुमत बहुधा मूर्खों का ही हुआ करता है. भारतीय प्रजातन्त्रवाद को तो हम निश्चित रूप से मूर्खवाद कह सकते हैं. राज्यों की धारासभाओं और संसद में ऐसे व्यक्तियों का बाहुल्य है जो विधान अथवा कानूनी बारीकियों को लेशमात्र भी नहीं समझ सकते। जिन पर कानून द्वारा देश का भाग्य-निर्माण करने का दायित्व हो वे यदि कानून के प्रारंभिक ज्ञान के प्रारंभिक सिद्धांतों से ही शुन्य हो तो यह देश के लिए कितने दुर्भाग्य की बात है. कुछ मनचले बुद्धिजीवी लोग इस प्रकार के अज्ञानी और स्वार्थी लोगों को आगे करके स्वार्थों की सदैव पूर्ति किया करते हैं. भारतीय जनता का अस्सी प्रतिशत अंग ऐसा है जो स्वयं राजनैतिक दृष्टि से उचितानुचित का निर्णय नहीं कर सकता। वह प्रलोभन, भय, अज्ञान और दबाव के कारण सदैव से ही पथ-भ्रस्ट होते आया है. साधन-संपन्न, प्रचार-पट्टू, पेशेवर, बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञों का गिरोह इसी प्रकार की निर्धन, भोली, अज्ञानी, भावुक और कर्त्तव्या-कर्त्तव्य के प्रति अचेत जनता से अधिक मत प्राप्त कर लेते हैं और इसी बहुमत के आधार पर वे केंद्र और प्रांतों में सरकारें बनाकर देश के पूर्ण भाग्य-विधाता बन बैठते हैं.

इसी प्रकार की स्थिति से अनैतिकता और अनाचरण कि सृष्टि होती है. भारत में वर्त्तमान समय में प्रचलित चुनाव-प्रणाली अनैतिकता और भ्रस्टाचार का एक ठोस और ज्वलंत उदाहरण है. सत्तारूढ़ दल द्वारा भय, प्रलोभन, दबाव, और हथकंडों से अशिक्षित, गरीब, रूढ़िवादी और उदासीन जनता से मत प्राप्त करना सरल अवश्य है, पर इससे मतदाताओं का नैतिक स्तर जिस सीमा तक गिरता जा रहा है, वह चिन्तनीय है. एक और मतदान होने जा रहा है, दूसरी और सत्तारूढ़ दल द्वारा जलबोर्ड के रूपये बाँटे जाते हैं, पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत सड़कों का काम शुरू कराया जाता है, पंचों और मुखियाओं को तकाबी के रूपये दिए जाते हैं और इसी प्रकार विकास और तरक्की के नाम पर मतदाताओं को प्रलोभन दिया जाता है. पंचवर्षीय योजना, निर्माण और विकास के कार्यों पर जितना धन आम चुनाव अथवा ज़िला बोर्ड, तहसील आदि चुनावों के कुछ महीने पहले से और उन चुनावों के समय खर्च किया जाता है उतना धन कदाचित कुछ स्थायी योजनाओं के अतिरिक्त पूरे पाँच वर्षों में भी खर्च नहीं किया जाता। देश के बुद्धिमान लोगों की दृष्टि में पंचवर्षीय योजना आज चुनाव जीतने का एक हथकंडा मात्र समझी जेन लगी है. विकास और निर्माण की योजनाओं में और अन्य सभी प्रकार से खर्च होने वाला धन भारत के समस्त नागरिकों का है. उसे केवल एक संस्था विशेष को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च करना एक और जहाँ सत्ता का दुरूपयोग है दूसरी और वह भारत के समस्त करदाताओं के साथ विश्वासघात भी है. ठीक इसी समय विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले मतदाताओं और उमीदवारों पर मुकदमों और कुर्की का भूत सवार किया जाता है.

कानून में एक उमीदवार द्वारा चुनावों में खर्च की जाने वाली धन राशि सीमित है, पर संस्था द्वारा किसी एक व्यक्ति के धरा-सभा के चुनाव के लिए यदि एक लाख (या फिर करोड़ों) भी खर्च कर दिए जाते हैं तो उसे चुनौती नहीं दी जा सकती। आज की सत्तारूढ़ संस्था भ्रस्टाचार और अनैतिकता का खुल्लम-खुल्ला अड्डा है. वह पूंजीपतियों, व्यवसाइयों, राजा-महाराजाओं और उन सबसे जो सत्ता का सहारा पाकर अनुचित रूप से मालामाल हो रहे हैं, लाखों रूपये चंदे के रूप में वसूल करती है. पूंजी-पतियों को चुनाव के टिकट बेचे जाते हैं. यह अतुल धन-राशि चुनावों के समय अपनी संस्था को सत्तारूढ़ करने के लिए खर्च की जाती है. एक-एक कांग्रेसी धारासभाई उमीदवार चुनाव के समय 10 - 15 (आज 100 -200) मोटर-गाड़ियों का प्रबंध और 50-60(आज कल करोड़ों) हज़ार तक रूपये खर्च कर देता है. बेचारे विरोधी उम्मीदवारों के पास इससे शतांश भी सुविधायें नहीं रहती। जितने रूपये एक व्यक्ति द्वारा चुनाव जीतने के लिए खर्च किये जाते हैं, उससे कई गुणा अधिक सत्तारूढ़ होने के उपरांत कमा लिये जाते हैं। यह कमाई खून-पसीने की न होकर नि:संदेह बेईमानी और भ्रस्टाचार की होती है. कांग्रेसी उम्मीदवारों द्वारा आम-चुनावों में इस प्रकार अन्धाधुन्ध खर्च करने के कारण प्रत्येक मतदाता अपने मत को बेचना चाहता है. गांवों के भोले लोग जो कुछ वर्ष पहले रिश्वत देना और लेना एक नैतिक अपराध समझते थे, वे अब प्रत्यक्षतः रिश्वत लेकर वोट देने के अतिरिक्त अब दूसरी भाषा में बोलते भी नहीं हैं. चुनाव अब इस प्रकार के मतदाताओं के लिए कमाई का एक उपाय बन गया है. इससे देशव्यापी अनैतिकता और भ्रस्टाचार को जो प्रोत्साहन मिलता है, वह अकथनीय है। जो संस्था चंदे आदि के रूप में दूसरों से रिश्वत लेकर उसे अनैतिक ढंग से खर्च करती है वह अपने सदस्यों को रिश्वत लेने और अनैतिकता से चुनाव जीतने से रोक भी कैसे सकती है. इसी भाँती सरकारी कर्मचारियों के दबाव और प्रभाव को जिस रूप में काम में लिया जाता है, वह भी कम अशोभनीय नहीं है. आज से दस वर्ष पूर्व भारत का सामान्य नागरिक यह कल्पना भी नहीं करता था कि सत्य और नैतिकता के पुजारी गाँधीजी और नेहरूजी की कांग्रेस सत्ता-प्राप्ति के लिए इतने निम्नस्तर तक उतर आवेगी। इसे प्रजातन्त्रवाद कि अपूर्णता कहा जाय अथवा उसका दुर्भाग्य?

जो व्यक्ति केवल प्रजातन्त्रवाद के आकर्षक सिद्धांतों की परिधि में ही सोचते हैं और उसके व्यावहारिक स्वरुप का चिंतन नहीं करते उनके लिए प्रजातन्त्रवाद शासन-प्रणाली सर्वश्रेष्ट हो सकती है, पर प्रजातंत्र के लुभावने सिद्धांतों के व्यावहारिक स्वरुप को देख लेने के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे बिना नहीं रह सकते कि प्रजातंत्र के सिद्धांत या तो व्यावहारिक सत्य का बाना पहन ही नहीं सकते या व्यावहारिक सत्य तक पहुँचते-पहुँचते वे अपना मौलिक स्वरुप स्थिर न रख सकने के कारण अत्यंत ही विकृत और दूषित हो जाते हैं. सिद्धांतत: यह शासन-प्रणाली उत्तम कही जा सकती है पर व्यवहारत:इसमें कई दोषों का पनप जाना अवश्यम्भावी है.

क्रमश :........

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- २ (राजपूत और भविष्य)

भाग-१ से आगे....
क्षात्र-धर्म अपने को राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता की संकुचित सीमाओं में आबद्ध नहीं रखता। भलाई, सत्य, न्याय, धर्म आदि कहीं भी, किसी भी राष्ट्र में क्यों न हो, वे रक्षणीय हैं और बुराई, अन्याय, असत्य, अधर्म आदि कहीं भी क्यों न हों वे सब ताड़नीय और दण्डनीय हैं। बुराई आदि असाधु प्रवर्तियाँ चाहे स्वराष्ट्र में हों अथवा पर-राष्ट्र में, चाहे स्वजाति में हों अथवा पर-जाति में, उनके विनाश के लिए क्षात्र-वृति को सदैव तत्पर रहना चाहिए और इसी भांति भलाई और साधू-वृत्तियाँ चाहे जिस राष्ट्र अथवा जाति में हों, क्षात्र-वृत्ति द्वारा वे रक्षणीय है। आज हम राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता के रूप में न सोच कर सत्य अथवा भलाई की स्थापना और उन्नती के रूप में सोचने लग जाएँ तो संसार का राग-द्वेष और तनाव बहुत कुछ मात्रा में कम हो सकता है. इस प्प्रकार कि राष्ट्र-निरपेक्ष भावना से जहाँ एक और राष्ट्रीयता के दुर्गुणो से बचाव होता है, वहाँ दूसरी और युद्ध के समय केवल असत्य और बुराई के पक्ष-पोषक लोगों का ही विनाश होता है. तब न सर्व-विनाशकारी आणविक अस्त्रों के निर्माण की आवश्यकता रहती है और न ही उनके प्रयोग और नियंत्रण की ही। यही राष्ट्र, जाति संप्रदाय-निरपेक्ष-परम्परा क्षात्र-परंपरा है। अतः क्षात्र-परंपरा के उत्थान की आज के इस अशांति और अविश्वास के युग में संसार-कल्याण के लिए सबसे अधिक आवश्यकता है. पर उन्नती कि व्यवहारिक उपलब्धि के लिए राष्ट्र का अस्तित्व आज आवश्यक हो गया है. जब राष्ट्र का अस्तित्व आवश्यक है तब उसके प्रति किसी न किसी रूप में जिम्मेवारी और कर्त्तव्य भी आवश्यक है. तात्विक दृष्टि से क्षात्र-धर्म को समझने से ज्ञात होगा कि इस प्रकार सब बुराइयों से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म के अंतर्गत ही आ जाता है. इस प्रकार कि बुराइयों और अपूर्णताओं से रहित राष्ट्रवाद क्षात्र-धर्म का ही एक पोषक अंग है. फिर भी ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्र-निरपेक्ष धर्म हो सकता है पर धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र नहीं।

इसी प्रकार क्षात्र-परंपरा एक मजहब-निरपेक्ष परंपरा है. आर्य-धर्म का दृष्टिकोण इतना व्यापक और विशाल है कि उसे वास्तव में मानव और प्राणी-धर्म कहना चाहिए। इस आर्य-धर्म के अंतर्गत क्षात्र-परंपरा तो किसी भी भांति के मजहबी बंधन को स्वीकार नहीं करती। स्वधर्मी और स्वजाति की बुराई, अन्याय आदि क्षात्र-वृति द्वारा दंडनीय और परधर्मावलम्बियों की भलाई की भलाई और न्याय की वृतियाँ रक्षणीय हैं. क्षात्र-परंपरा हिन्दू, मुस्लिम, बौद्ध आदि के दृष्टिकोण से न देखकर भलाई और बुराई के दृष्टिकोण से सदैव देखती है. यही कारण है कि क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत मुसलमानों आदि विधर्मियों की रक्षा करने में सर्वस्व तक का बलिदान किया गया है. दीन,असहाय, शरणागत, सज्जन और साधू चाहे जिस देश, जाति, धर्म के क्यों न हों, क्षात्र-परंपरा द्वारा वे सदैव रक्षणीय और अभिमानी, दुष्ट और आततायी चाहे जिस जाति, देश, धर्म के अनुयायी क्यों न हों, सदैव दण्डनीय है। इतनी उदार परंपरा संसार के किसी भी धर्म के अंतर्गत नहीं हो सकती। इसी भाँति क्षात्र-परंपरा किसी व्यक्ति विशेष का भी पक्षपात नहीं करती। अधर्मी व्यक्ति चाहे पितामह, पिता, गुरु, चाचा, मामा, भाई, पुत्र, पौत्रादि ही क्यों न हो वे सब दण्डनीय हैं। यह परंपरा किसी परिस्थिति-विशेष के उत्पन्न होने से पैदा नहीं होती, वरन यह एक साश्वत परंपरा है जो सब गुणो और परिस्थितियों में समान रूप से महत्वदायी है।

अतः क्षात्र-परंपरा के अंतर्गत न्याय और सत्य, देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति और मजहब-निरपेक्ष है। वे सब के लिए सब युगों में, सब मजहबों में और देशों में समान रूप से प्राप्य है. वास्तव में क्षात्र-धर्म के अंतर्गत चेष्टाएँ ईश्वरीय विधान में सहायक होने वाले कर्म हैं और इसलिए क्षात्र-धर्म ईश्वरीय-धर्म, ईश्वरीय-विधान, सर्वजन-हिताय, सर्वजन-सुखाय, सर्व-कल्याणकारी योजना है।

इस क्षेत्र-परंपरा की पुनः स्थापना का वास्तविक अर्थ है वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना। केवल वर्णाश्रम धर्म ही ऐसी योजना है जो भारत के लिए सर्वश्रेष्ट हो सकती है। इस व्यवस्था के अंतर्गत सत्ता किसी एक के हाथ में संगृहीत न होकर उसका पूर्ण और संतुलित विभाजन रहता है. अतः निरंकुश और सत्ता के दुरूपयोग का कभी अवसर ही नहीं आता. आज की धारा-सभाओं और संसदों आदि का कार्य वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत उन लोगों के हाथ में रहता था जो सांसारिक कार्यों में पूर्ण पक्षपातरहित, निर्लिप्त और व्यक्तिगत रूप से पूर्ण तटस्थ रहते थे। इससे कभी ऐसे कानून बनाये ही नहीं जा सकते जो अन्यायपूर्ण, एक-पक्षीय और किसी व्यक्ति या दलगत स्वार्थों की पूर्ति करने वाले मात्र हों. आक का प्रजातंत्र बहुमत द्वारा संचालित होता है. व्यावहारिक दृष्टि से यह बहुमत अल्पमत के प्रति सदैव आततायी और आक्रमणकारी रहता है। इसलिए प्रजातन्त्रवाद में अल्पमत को सदैव बहुमत की चक्की में पिसते रहना पड़ता है। पर वर्णाश्रम-व्यवस्था के अंतर्गत बनने वाले प्रत्येक कानून का आधार बहुमत न होकर शास्त्र होता है. शास्त्रोक्त आधार का अर्थ है सत्य, न्याय और समानता के शाश्वत सिद्धांतों का आधार। यदि हम शास्त्रों को ईश्वर-कृत न भी मानें तो भी उनके निर्माता ऐसे महापुरुष थे जिनका अनुभव और ज्ञान, चिंतन और मनन और जिनकी पक्षपात-रहित सर्व कल्याणकारी भावना आज के धारा-सभाई और संसद के सदस्यों से लाखों गुना बढ़कर थी। इस प्रकार शास्त्रों को आधारभूत मान कर, शाश्वत सिद्धांतों को आधारभूत मान कर पूर्ण त्यागी, तपस्वी, विद्वान, सत्ता के मोह से सर्वथा उदासीन, सांसारिक कार्यों से निर्लिप्त और तटस्थ सर्वभूतों का कल्याण चाहने वाले ब्रह्मणो के हाथों से राष्ट्र के विधान और कानून बनाने का दायित्व आजाने से न कभी जल्दबाज़ी का भय रहता है, न पक्षपात का और न किसी के अहित व् अकल्याण का ही. इसी भांति आज कि कार्यपालिका (Executive) अथवा शासन सञ्चालन का दायित्व क्षत्रियों पर रहता है. क्योंकि उनको मनमाने ढंग से कानून बनाने का किंचित मात्र भी अधिकार नहीं होता। अतः ब्रह्मणो द्वारा निर्मित कानूनों को निरपेक्ष और निर्लिप्त भाव से कार्यान्वित करना मात्र उनका कर्त्तव्य रहता है. आज की संसदीय प्रणाली (Parliamentary Democracy) के अनुसार कानून बनाने और उसे कार्यान्वित करने का अधिकार एक ही दल के हाथों में होने के कारण बड़ा अनर्थ होता है. एक ही दल के हाथ में दोनों कार्य आ जाने के कुछ प्रशासनिक सुविधाएँ तो अवश्य प्राप्त हो जाती हैं पर इससे व्यक्तिगत और दलगत भावना और भ्रस्टाचार का बोलबाला हो जाता है. इस प्रकार का बहुमत-प्राप्त साल सैद्धांतिक आधार पर स्थापित अल्पमत को तो कुचल ही डालता है. भारत जैसे देश में इस प्रणाली द्वारा अल्प-मतों को किसी भी दशा में न्याय नहीं मिल सकता। पर वर्ण-व्यवस्था के अनुसार विधि-निर्माण और उसका प्रयोग सर्वथा दो पृथक-पृथक घटकों के हाथ में होने के कारण शासक-दल का आततायी, भ्रष्टाचारी, निरंकुश, और संकुचित मनोवृति युक्त होने का खतरा कभी भी पैदा नहीं होता है. इसी भांति अर्थ का उत्पादन व् वितरण भी शासक वर्ग क्षत्रिय के हाथ में नहीं रहता इससे वह कभी भी सर्व-शक्ति संपन्न प्रभु नहीं बन सकता। क्षत्रियों का शासन-संचालन के निमित अर्थ के लिये सदैव वैश्य पर अवलम्बित रहना पड़ता है. कानून बना कर किसी भी सम्पत्ति या धन पर अधिकार करने का उसको अधिकार होता ही नहीं। इसलिए क्षत्रिय कभी भी अपनी सत्ता का दुरूपयोग नहीं कर सकता। ऐसे ही हाथों में न्याय रहने से सब को पक्षपात रहित न्याय मिल सकता है. वास्तव मने न्यायपालिका और न्यायाधीशों को पूर्ण निर्लिप्त और सर्वोच्च सत्तावान होना चाहिए। आज के प्रजातंत्रीय देशों तक में न्यायधीशों की चोटी बहुमत-प्रधान शासक-दल के हाथों में होती हैं. इसलिए आज की न्याय-पालिकायें न स्वतंत्र हैं, न निर्लिप्त, न पक्षपातरहित और न सर्वोच्च सत्ता-संपन्न ही। आज का युग अर्थ-प्रधान युग है. जिनके हाथों में अर्थ का उत्पादन है वे सर्वेसर्वा बन सकते हैं. पर वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत यह शक्ति भी पनप नहीं सकती, कारण कि अर्थ का उत्पादन जिन वैश्यों के हाथों में होता है उनके हाथों में न तो कानून बनाने वाले पूर्ण त्यागी और तपस्वी ब्राह्मणों को खरीदने की ही सामर्थ्य होती है, न शक्तिशाली क्षत्रियों से सत्ता छीनने की शक्ति। आज के युग में जिस प्रकार बनियों ने कानून-निर्माता बहुमत दल के नेताओं को खरीद रखा है वैसे वे वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत ब्राह्मणों को खरीद कर अपने पक्ष में कानून नहीं बना सकते।

सेवा और श्रम का कार्य शूद्रों के दायित्व में रहता है, पर चूँकि उनके हाथों में अन्य साधन नहीं होते और उनके संख्या-बल और मतों का का कोई महत्व नहीं रहता, इसलिए वे आज के युग कि भाँति समाज पर हावी नहीं हो सकते। इस प्रकार ब्राह्मण कानून और विधान आदि का दायित्व अपने ऊपर लेकर न्याय, रक्षा, अर्थ, श्रम आदि के लिए अन्य वर्णो पर आश्रित रहते हैं। वैश्य अर्थ के उत्पादन और वितरण के दायित्व को अपने ऊपर लेकर अन्य सब आवश्यकताओं के लिए शेष वर्णो पर आश्रित रहते हैं. वर्ण-व्यवस्था के अनुसार समाज-शरीर का प्रत्येक अंग एक दूसरे का सहायक और पूरक होता है. न कोई वर्ण किसी से बड़ा होता है और न छोटा, न श्रेठ और न नीच. सब वर्ण अपने-अपने गुण, कर्म और स्वभावानुसार कार्य करते रहते हैं. किसी पर किसी का प्रतिबन्ध नहीं होता।

इस प्रकार इस विभक्तिकरण के अनुसार विधि-निर्माण सत्ता, राज-सत्ता और द्रव्योत्पादन शक्ति पृथक-पृथक रहती हैं. धन एक शक्ति है और राज-सत्ता भी एक शक्ति है। दोनों ही शक्तियों के एकत्रित होने पर मदोन्मादक शक्ति और भी प्रबल होकर अन्याय और अत्याचार की सृष्टि करती है.एक ही व्यक्ति, व्यक्ति-समूह अथवा संस्था के हाथ में इन दोनों शक्तियों के केंद्रित हो जाने से शेष समस्त समाज सर्वथा दीन, ग़ुलाम और असहाय बन कर भाग्य और पराजयवादी बन जाता है. फिर इस अत्याचार की प्रतिक्रियास्वरूप उसमे विद्रोही भावना पनप उठती है. समाज वर्गों में बाँट जाता है और यही दुखी वर्ग सत्ता के विरुद्ध विद्रोह कर बैठता है. इसीलिए वर्ग-संघर्ष उत्पन्न होकर समाज कि शांति और सुख का नाश होता है. इस प्रतिक्रियास्वरूप यही विद्रोही वर्ग सत्तावान बन कर धर्म, संस्कृति का घोर शत्रु बन कर पूर्ण नास्तिक और जड़वादी बन जाता है. इस विध्वंशावस्था से बचा कर समाज को चिर-शांति देने के लिए राज-सत्ता को धनहीन और धन-सत्ता को राज-सत्ताहीन रख कर दोनों को परावलम्बी, अन्योनाश्रित करके दोनों के ऊपर त्यागी, स्वार्थ-निरपेक्ष, न्यायपूर्ण, धर्मात्मा व्यक्तियों का नियंत्रण स्थापित कर देने से, सत्ताधारी अथवा धनवान में से कोई भी समाज के साथ अन्यायपूर्ण व्यवहार नहीं कर सकता। यही हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत समाज-रचना की मौलिक और सुन्दर व्यवस्था है.

क्रमश :.....

सर्वजन-हिताय : सर्वजन-सुखाय - भाग- १ (राजपूत और भविष्य)

यह निर्विवाद सत्य है कि क्षात्र-धर्म से बढ़कर अन्य कोई भी धर्म, वाद अथवा उद्देश्य क्षत्रियों के लिए इस संसार में श्रेष्ट नहीं है। अब देखना यह है कि क्षात्र-धर्म के उत्थान में न केवल क्षत्रियों का ही अपितु समस्त राष्ट्र और मानवता का कल्याण निहित है। वह श्रेष्ठता ही किस काम की जो एक वर्ग या जाती के लिए कल्याणप्रद और दूसरों के लिए हानिप्रद हो।

क्षात्र -धर्म के उत्थान का अर्थ है - कर्म में उच्चकोटि कि नि:स्वार्थता, कर्त्तव्यपरायणता और कर्तापन के घमण्ड के प्रति उदासीनता। आज राष्ट्रीय जीवन में एक भयंकर कुप्रवृति घर कर गयी है और वह प्रवर्ति है स्वार्थ - भाव से कर्म करना। 'हम आज़ादी कि लड़ाई में जेल गए थे इसलिए इस प्रजातंत्रीय भारत में मंत्री बनना हमारा पहला अधिकार है' यह भावना आज प्रत्येक कांग्रेसी के दिल में काम कर रही है। योग्यता, निपुणता, अनुभव आदि पदों कि कसौटी न हो कर जेल-यात्रा पदों कि कसौटी समझी जा रही है। परिणामत: आज शासन में स्थान-स्थान पर अयोग्यता, स्वार्थपरायणता और भ्रस्टाचार को देखा जा सकता है। कोंग्रेसियों का जेल आदि जाने का त्याग वास्तव में बनियों जैसा एक सौदा मात्र था। क्षात्र - परंपरा में इस प्रकार के स्वार्थ का कोई स्थान नहीं है। जो कुछ भी त्याग आदि किया जाता है, वह इसलिए नहीं कि उसके द्वारा बाद में किसी अच्छे फल की प्राप्ति होगी, बल्कि इसलिए किया जाना चाहिए की त्याग करना हमारा कर्त्वय है। हमारे आस्तित्व की सार्थकता ही इसी में है कि हम त्याग करके जीवित रहें। यह हमारे सत्ता के स्वामी का आदेश है। अतएव त्याग के पीछे जो फल-प्राप्ति कि इच्छा रखते हैं वह निम्न कोटि का बनिया वृती - प्रधान कर्म है। आज राष्ट्र में इस प्रकार कि त्यागमयी परंपरा को पुनर्जीवित करने कि आवश्यकता है जो बिना किसी प्रकार के प्रतिफल कि इच्छा किये हुए निरंतर रूप से कर्म करती रहे। यही त्यागमयी और कर्त्तव्य - परायण परंपरा क्षत्रिय परंपरा है।

कांग्रेसी दृष्टिकोण के कारण एक भयंकर प्रवर्ति देश में और पनप गयी है। आज इस प्रवर्ति ने देश के सम्पूर्ण जीवन को व्याधिगृस्त कर रखा है। यह प्रवर्ति है आत्म-प्रदर्शन कि सहज प्रवर्ति। इसी प्रवर्ति का विकृत रूप तमोगुणी व्यक्तिवाद और मिथ्याभिमान के रूप में प्रकट होता है। इसी व्यक्तिवाद के कारण अहंभाव पनप कर व्यक्ति को सर्वथा मदान्ध, निरंकुश और दुराग्रही बना देता है। इस प्रकार का व्यक्ति दुर्भाग्य से कभी सत्तारूढ़ हो जाता है तब सुन्दरतम शासन-व्यवस्था में भी विकृत रूप से व्यक्तिगत अधिनायकवाद पनप ही जाता है। भारत में आज इसी प्रकार की स्थिति है। आधुनिक युग में व्यक्तिगत समानता, स्वतंत्रता और अधिकारों कि माँग ने इस व्यक्तिवादी प्रवर्ति को और भी अधिक बेढंगे रूप में प्रोत्साहित कर दिया है।

जीवित व्यक्तयों को पूजने की यह व्यक्तिवादी भावना आज संसार में सर्वाधिक रूप में भारत में ही दिखाई पड़ रही है। गाँधीजी को ईश्वर का रूप, अवतार, युग-पुरुष और महापुरुष आदि से रूप में चित्रित और प्रचारित करना बनिया-प्रभुत्व को स्थिर एवं जीवित रखने कि एक नीति तथा उस समय की एक मनोवैज्ञानिक आवश्यकता मात्र थी। पर बाद में भारतीय बुद्धिजीवियों ने इसका अन्धविश्वास के साथ अनुकरण आरम्भ किया कि जिससे गाँधी-वाक्य, वेद-वाक्य, धर्म-वाक्य और किसी भी सर्वमान्य सिद्धांत से भी बड़ा समझा जाने लगा। आवश्यकता तो इस बात की थी कि गाँधीजी के स्वर्गवास के उपरान्त उनके सिद्धांतो को जीवन में मूर्त रूप से ढाला जाता। यही महापुरुषों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने और उनके ऋण से उऋण होने की एक मात्र प्रणाली है, पर हुआ इसके ठीक विपरीत । गाँधीजी कि मृत्यु के उपरांत उनके नाम को और भी जोर-शोर और व्यापकता से प्रचारित किया गया । यह इसलिए नहीं की आज के उनके अनुयायी उनके सिद्धांतो का अनुकरण करते हैं, बल्कि इसलिए कि अपने राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए उनका नाम और ख्याति से लाभ उठाया जा सके । वास्तव में गाँधीवाद तो उनकी मृत्यु के साथ ही मर गया था । जो कुछ भी उसका प्रभाव शेष था उसे उनके अनुयायियों ने उन्ही के नाम का ढिंढोरा पीटते हुए समाप्त कर दिया । आज आवश्यकता इस बात कि नहीं है कि गाँधीजी के नाम प्रचार से राजनैतिक स्वार्थों की पूर्ति की जाय, पर आवश्यकता इस बात की है कि उनके सिद्धांतो और विचारों को व्यवहारिक स्वरुप दिया जाय । वास्तव में इसी प्रकार जीवित व्यक्तियों कि पूजा और मृत व्यक्तियों के सिद्धांतो की अवहेलना के कारण अधिनायकवादी प्रवर्ति पनपती है । जो राष्ट्र सिद्धांतों के स्थान पर व्यक्तियों कि पूजा करते हैं उनका पतन किसी भी क्षण सम्भव हो सकता है । यह व्यक्तिवादी प्रवर्ति अन्य के महत्त्व को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकती । जब अन्य लोग भी कर्म-क्षेत्र में उतर पड़ते हैं तब उनकी और व्यक्तिवादियों कि महत्वाकांक्षाएं परस्पर टकराने लग जाती हैं जिससे ईर्ष्या आदि भावों का जन्म होता है । जो इस व्यक्तिवादी अहम्-भाव की भावना को ठेस पहुँचाने वाले मार्ग में आते हैं, उन्हें उखाड़ फेंक दिया जाता है । जिन संस्थाओं में यह प्रवर्ति घर कर जाती है वहाँ व्यक्ति सर्वेसर्वा बन जाता है और सिद्धांत उस व्यक्ति के पीछे-पीछे चलना आरम्भ कर देते हैं ।

क्षत्रिय परंपरा इस प्रकार के अहम्-प्रधान व्यक्तिवाद को अत्यंत ही तुच्छ दृष्टि से देखती है, तथा कर्तापन की भावना को कभी भी प्रोत्साहित नहीं करती । वास्तव में सम्पूर्ण कर्म, प्रकर्ति के गुणो द्वारा वसीभूत होकर किये जाते हैं; ज्ञानी और अज्ञानी सब की चेष्टायें प्रकर्ति के वश रहती हैं तथा मनुष्य तो केवल साधन-मात्र होने के कारण श्रेय का भागी बन जाता है । यही क्षत्रिय परम्परा है । कहने कि आवश्यकता नहीं कि इस परंपरा का पुनर्जन्म आज राष्ट्र और मानवता के लिए कितना हितप्रद हो सकता है।

आज समस्त संसार शांति और युद्ध संधि-द्वार पर खड़ा है । दिन प्रति-दिन शांति कि आशा क्षीण और युद्ध की आशंका प्रबल होती जा रही है । सब राष्ट्र अपना-अपना अस्तित्व बचाने के लिए प्रयतनशील हैं । युद्ध की यह ज्वाला ईसा की बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही समस्त संसार को क्षुब्ध कर रही है । शांति के जितने भी उपाय निकाले जाते हैं वे सब निष्फल हो जाते हैं । शांति के उपायों कि इस निष्फलता का कारण है राष्ट्रों की परस्पर-विरोधी महत्वाकांक्षाएं और स्वार्थ । बीसवीं शताब्दी में ये महत्वाकांक्षाएं संसार पर नवीन रूप से प्रभुत्व स्थापित करने की भावना के रूप में प्रकट हुई हैं । प्रत्येक सबल राष्ट्र आज राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से शेष संसार को अपना आश्रित और अनुगामी देखना चाहता है । राष्ट्रों की इस मनोवृति का बीज हम राष्ट्रीयता और राष्ट्रों कि पृथक सत्ता को दिए जाने वाले महत्व के रूप में देख सकते हैं । पोप के धार्मिक प्रभुत्व को समाप्त करने के लिए यूरोप में राष्ट्रवाद का जन्म हुआ । राष्ट्रवाद के जन्म के साथ ही साथ राष्ट्रीयता, राष्ट्रभक्ति, राष्ट्रप्रेम आदि भावनाओं को भी जन्म देना आवश्यक समझा गया और कालांतर में राष्ट्र एक धर्म और सिद्धांत के रूप में अपना लिया गया । यूरोप के देशों में चिरकाल से चली आ रही जातीयता ने राष्ट्र और राष्ट्रीयता का नवीन बाना पहन लिया । राष्ट्रोन्नति अथवा राष्ट्र के राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रसार और प्रभुत्व के लिए किया गया प्रत्येक वैध और अवैध, मानुषिक और अमानुषिक तथा उचित और अनुचित कार्य उच्चकोटि का देश-भक्तिपूर्ण कार्य समझा जाने लगा।

बीसवीं शताब्दी में आते-आते इसी राष्ट्रीयता ने अपने नग्नरूप को विशिष्ट सिद्धांतो के निचे छिपाना शुरू कर दिया । नए-नए वादों का अविष्कार होने लगा । इटली का राष्ट्रवाद, फासिज्म, जर्मनी का नाज़ीवाद, रूस का साम्यवाद और इंग्लैंड, फ्रांस और अमेरिका का प्रजातंत्र वाद के रूप में प्रकट होकर सामने आने लगा । शक्ति को अधिक और दृढ बनाने के लिए सामान आदर्श और सिद्धांतो वाले राष्ट्रों के गुट भी बनने लगे । इस प्रकार फासिस्ट और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवादी दो गुट मुख्य रूप से द्वितीय विश्व - युद्ध से पहले बन चुके थे। आज भी साम्यवादी और प्रजातांत्रिक राष्ट्रवाद के रूप में दो शक्तिशाली गुट संसार में बने हुए हैं । वस्तुत: इन वादों और साम्राज्यवाद में कोई मौलिक अंतर नहीं है। दोनों की मूल प्रवर्ति संसार पर प्रभुत्व स्थापित करने की ही रही है।

इस राष्ट्रवाद अथवा राष्ट्रीयता की भावना से पृथक-पृथक राष्ट्रों को जहाँ लाभ पहुंचा है वहाँ मानवता की बड़ी हानि हुई है । प्रतिस्पर्धा की भावना से राष्ट्रों ने भौतिक उन्नति तो बहुत अधिक की पर स्वराष्ट्र की महता और राष्ट्रीय प्रभुत्व कि बढ़ाने की भावना के कारण विश्व में अधिक कटुता, संदेह और द्वेष फैला है. एक राष्ट्र वाले अपने को, अपनी राजनैतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक मान्यताओं और प्रणालियों को दूसरों से श्रेष्ठ समझ कर उन्हें गुलाम बनाने का प्रयत्न करते हैं तथा उनका राजनैतिक और आर्थिक शोषण करना चाहते हैं. इन प्रयत्नों का प्रतिकार होता है और परिणाम में विश्व-युद्ध, विश्व-अशांति और विश्व-संकट उत्पन्न होकर मानवता के लिए विनाश की साज-सज्जा तैयार हो जाती है. इस राष्ट्रवाद का प्रलयकारी रूप तब सामने आता है जब एक योद्धा -राष्ट्र दूसरे योद्धा -राष्ट्र के समक्ष नागरिकों का निर्दयतापूर्वक विनाश करने लग जाता है। राष्ट्रवाद यह मान कर चलता है कि शत्रु-राष्ट्र में बसने वाले समस्त नागरिक दुष्ट, अन्यायी और शत्रु हैं। अतएव शत्रु-राष्ट्र को हारने के लिए उन सबका विनाश आवश्यक है। भले और बुरे, सज्जन और दुष्ट की सीमा-रेखा का आभाव हो जाता है। जब एक राष्ट्र परास्त हो जाता है तब उसके समस्त नागरिकों को पराजय के परिणाम-स्वरुप ग़ुलामी और अन्य व्याधियॉँ भुगतनी पड़ती हैं। वास्तव में यह दशा अत्यंत ही अन्यायपूर्ण और अवास्तविक है. प्रत्येक राष्ट्र में सज्जन और दुष्ट, दोषी और निर्दोष सब प्रकार के मनुष्य बसते हैं. अतएव न्याय और सत्य की रक्षा के लिए केवल दुष्टों और अपराधियों का ही विनाश होना चाहिए, सज्जनों और निर्दोषों का नहीं। पर आज का राष्ट्रवाद इस बुराई से बच नहीं सकता।

इस प्रकार आज के इस राष्ट्रवाद में दो बुराइयां मूल रूप से पनप रहीं हैं. संसार की अशान्ति और युद्धों के भय के लिए यह राष्ट्रवाद जिम्मेवार है और इसी राष्ट्रवाद के कारण युद्ध के समय भले और बुरे दोषी और निर्दोष नागरिकों का सामान रूप से उत्पीड़न किया जाता है. इन दोनों बुराइयों को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को मान्यता दी जेन लगी है, तथा राष्ट्रसंघ और सुरक्षापरिषद् आदि का निर्माण किया गया है। पर ये दोनों ही मार्ग अपूर्ण और अपर्याप्त हैं, क्योंकि ये रोग के कारणो को दूर न करके केवल ऊपरी उपचार मात्र का प्रयत्न करते हैं।

अत: आज मानवता को इस राष्ट्रवाद से उत्पन्न भयंकर दोषों से बचाने की सबसे बड़ी आवश्यकता है. संघर्ष अथवा युद्धों को बन्द करने के समस्त प्रयत्न अवास्तविक और असत्य है. त्रिगुणात्मक माया द्वारा संसार की रचना होने के कारण भलाई और बुराई, सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म, न्याय और अन्याय में संघर्ष अवश्यम्भावी है. जब तक यह संसार रहेगा तब तक न्यूनाधिक मात्रा में भलाई और बुराई, सत्य और असत्य भी अवश्य रहेंगे और इसीलिए इन दो विरोधी शक्तियों में संघर्ष भी अवश्यम्भावी है. यही सत्व और तम का संघर्ष है जो चिरकाल से होता आया है और चिरकाल तक होता रहेगा। अतः युद्ध या संघर्ष को बंद करने की बातें या तो केवल किन्ही राजनितिक स्वार्थों की पूर्ती के लिये किया जाने वाला ढकोसला मात्र है या संसार के राजनीतिज्ञों की बुद्धि का दिवालियापन। इस द्वंदात्मक संसार में से द्वन्द अथवा युद्ध को मिटाने की आवश्यकता नहीं है और न कोई शक्ति युद्धों को लम्बे समय तक बंद ही कर सकती है, पर आवश्यकता इस बात की है कि इस द्वंदात्मक संसार में आज राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत की स्थापना की जाय. संघर्ष में यह राष्ट्र-निरपेक्ष सिद्धांत ही क्षात्र-वृति और क्षात्र-परंपरा है|

क्रमश:........

Wednesday, October 30, 2013

परिचय - ४ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -३ से आगे...
संसार की अन्य किसी भी जाति की भांति आज हमें भी अपनी संस्कृति, विश्वासों और परम्परा सहित जीवित रहने का पूर्ण अधिकार है| हमें भी इस विशिष्टता की रक्षा के लिए स्वभाग्य-निर्णय करने और स्वभाग्य-निर्णय करने के लिए संघर्ष करने का नैतिक, वैधानिक और सामाजिक अधिकार है| स्वभाग्य-निर्णय की हमारी यह धारणा पूर्ण रूप से न्याय-संगत, औचित्यसंगत और युक्ति-युक्त है| इस बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा हमारी जो अधोगति अब तक की जा चुकी है उसका दिग्दर्शन इसी पुस्तक में आगे चल कर कराया जायेगा| यहाँ तो केवल इतना समझना होगा कि आत्म-रक्षा की हमारी इस भावना और चेष्टा को किसी भी अवस्था में शिथिल न होने दिया जाये; स्वभाव-निर्णय करने के हमारे इस न्यायसिद्ध अधिकार को कभी भी आँखों से ओझल न होने दिया जाये तथा एक जाति और राष्ट्र के रूप में उठने और आत्म-निर्णय करने के हमारे अधिकार को दी जाने वाली प्रत्येक चुनौती का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया जाये|

एक और हमारे सामने ऐतिहासिक अवशेषों, साहित्य, कला, संस्कृति आदि के रूप में प्रेरणादायक कर्तव्य याद दिलाने और हमें अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराने वाली अत्यंत ही प्रभावशाली जीवित सामग्री अतुल मात्रा में विद्यमान है और दूसरी और जब हम अपनी वर्तमान रहन-सहन, मनोदशा आदि को देखते है तब पैरों के नीचे से भूमि खिसक जाती है| और आँखों के सामने अँधेरा छा जाता है|

राजपूत जाति अब तक मार्ग-दर्शन के लिए राजा-महाराजाओं के मुंह की और ताकती आ रही है| ये राजा-महाराजा ही हमारे वंशानुगत नेता रहे है| वे ही हमारी राजनैतिक चेतना और क्रियाशीलता का अब तक मेरुदंड रहते आये है| मुझे इन्हीं राजाओं में से बहुतसों से सम्पर्क में आने का अवसर मिला है| राजस्थान के एक अति प्रतिष्ठित राजंश.....साहब के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ| वे गौशाला खोलकर दूध बेचने की योजना बना रहे थे; एक अन्य महाराजा भेड़ पालने के उपयुक्त स्थलों की खोज में थे; एक और महाराजा देश के समाचार-पत्रों को पढ़कर पंचवर्षीय योजना में खोये हुए थे; एक विदेश-भ्रमण के लिए साज-सज्जा तैयार कर रहे थे तथा हाड़ौती के एक महाराजा मेरे जैसे व्यक्ति के मिलने में अदृश्य भय और आशंकाओं से प्रकंपित थे| इन हमारे जन्म-जात और वंशानुगत नेताओं से मिलने के उपरांत मुझे यह चौपाई स्मरण हो आई,-

जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरति देखी तिन तैसी|

यहाँ पर प्रभु-मूर्ति देखने का तो प्रश्न नहीं है पर स्वयं की मूर्ति देखने का प्रश्न है| जिसकी जैसी भावना होती है और उसी प्रकार वह व्यक्ति कर्म करता है| जो जैसा कर्म करता है वैसा बनता भी है| दूध बेचकर ग्वाला का धन्धा करने वाले, भेड़ पालकर गडरिया की दक्षता प्राप्त करने वाले, प्रचार के सस्ते साधनों से प्रभावित होकर अपने सिद्धांत बनाने वाले, वर्ष के अधिकांश समय विदेशी-भ्रमण करने वाले और आस-पास के पवन की खड़बड़ाहट मात्र से डर और दुबक कर महलों में बंद रहने वाले राजा-महाराजाओं से क्या आशा की जाये कि वे क्षत्रियोचित ढंग से जीवन व्यतीत करने की क्षमता रखते है, तथा हमें राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता व हिम्मत रखते है| जिनके वंशों से दूसरों को प्रेरणा मिलती आई है स्वयं आज बिना किसी प्रेरणा के अंधकार में भटक रहे है|प्रेरणा की समस्त सामग्री विद्यमान होते हुए भी आज राजाओं का सा जीवन व्यतीत न करके ग्वाला और व्यवसायी बनाना चाहते है| अपने वास्तविक कर्तव्य और राज्य-लक्ष्मी को भूलकर अन्य प्रकार से प्रसाधनों को अपनाकर निम्न जीवन व्यतीत करने के लिए तत्पर हो उठाना, पतन और पराजय को मन, वचन और कर्म से स्वीकार करना है|

राजा-महाराजाओं से भी हीनतर दशा अमीर और बड़े जागीरदारों की है| उनमें से कुछ बिल्कुल विरक्त होकर, पतन और पराजय को कर्म-सन्यास के रूप में स्वीकार कर अपने जीवन की घड़ियाँ व्यतीत कर रहे है| जागीरों की समाप्ति से जहाँ उन्हें प्रतिशोधात्मक प्रेरणा मिलनी चाहिये थी वहां उसकी समस्त क्रियाशीलता ही समाप्त हो गई| दुसरे प्रकार के अमीर जागीरदार अपने अपने व्यवसायों में लगे हुए है| दुर्लभता और सौभाग्य से प्राप्त क्षति-पूर्ति रुपयों को गिन-गिनकर देख लेने मात्र से आत्म-संतुष्टि कर अधिक कमाने की चिंता में निमग्न है| शहरों के निवास और अपनी व्यावसयिक पृथकता के कारण उनके घर अनैतिकता के अड्डे बनते जा रहे है| एक तीसरे प्रकार का अमीरों का गुट विरोधियों के समक्ष आत्म-समर्पण कर उन्हें जी-जान से प्रसन्न करने में लगा हुआ है| वह उनकी शक्ति को बढ़ाकर आत्म-घाती नीति को अपना चुका है| अनैतिकता और आत्म-पतन की चरम सीमा पर पहुंचा हुआ यह अमीर वर्ग धीरे-धीरे शेष राजपूत समाज से पृथक होकर किसी नवीन वर्णसंकर जाति को जन्म देगा| गरीब राजपूत अपने पेट की ज्वाला शांत करने में लगे हुए है| उनका भी नैतिक पतन कम नहीं हुआ है| उनमें से कई परिवार शनै: शनै: जरायम-पेशा कौमों में परिवर्तित हो रहे है| राजपूत समाज का शिक्षित वर्ग सबसे अधिक निष्क्रिय, स्वार्थी और साहस-विहीन है| उनकी शिक्षा पर किया व्यय और श्रम व्यर्थ ही गया| वह शिक्षा, शिक्षा ही नही जो मनुष्य को भीरु, स्वार्थी और निष्क्रिय बना कर जातीय-गौरव और स्वाभिमान से वंचित कर दे|

इस प्रकार आज सम्पूर्ण राजपूत जाति उद्देश्यविहीन होकर जर्जर और खोखली बन चुकी है| पराजित मनोवृति, निराशा और निरुत्साह दिनोंदिन बढ़ते जा रहे है| प्रेरणा के इतने प्रभावशाली उपकरण होते हुए और एक महान जाति की सम्पूर्ण विशेषताओं के रहते हुए भी आज राजनैतिक-चेतना और कर्तव्य-ज्ञान लेशमात्र भी नहीं है| राजपूत जाति के इस निष्क्रियपूर्ण मौन का एक मात्र कारण यही है कि हम अपने स्वाभाविक कर्तव्य को भूल चुके है| ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण से जो महत्त्वकांक्षा उत्पन्न हुई है, युद्ध-स्थलों से जो संदेश प्राप्त हुए है, साहित्य ने जो अनुभूति प्रदान की है, इतिहास ने जो कर्तव्य-शिक्षा दी है और कला-कौशल और संस्कृति ने जिस सत्य का उदघाटन किया है उन्हीं के आधार पर मैंने यह पुस्तक लिखी है- इसलिए कि इसके द्वारा राजपूत जाति को अपने कर्तव्य, स्थिति और स्वरूप का वास्तविक ज्ञान कराया जाये|

आयुवान सिंह शेखावत

परिचय - ३ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग-२ से आगे....
विराट पुरुष के अपने विराट स्वरूप की अभिव्यक्ति जिस कौशल-वैचित्र्य और चतुराई के साथ भारतवर्ष में की है, वह अद्वितीय है| यहाँ का विविध-रूपा प्राकृतिक सौन्दर्य परमोत्कृष्ट है| इसी भांति मनुष्य ने भी भारतवर्ष में अपने सूक्ष्म-सौन्दर्यमय जीवन की विभिन्न कलाओं के रूप में जो अभिव्यक्ति की है, वह भी अद्वितीय और परमोत्कृष्ट है| यहाँ पर जीवन के प्रत्येक सूक्ष्म और सुन्दर व्यापार को कला के रूप में ग्रहण किया गया है| इसीलिए यहाँ पर कलाओं की संख्या चौसठ तक पहुँच गई है|

इन कलाओं का विकास विभिन्न जातियों और व्यक्तियों द्वारा अवश्य हुआ है पर इनकी रक्षा एक मात्र क्षत्रियों द्वारा ही हुई है| सब प्रकार के कलाकार और कलावंत राज-दरबार में ही आश्रय ग्रहण करते थे| राज्याश्र्यों में फलिफूली ये ही विभिन्न कलाएँ हिन्दू सभ्यता का उच्च स्वरूप हमारे सामने प्रस्तुत करती है| क्षत्रिय स्वयं कलाकार, कलावंत, कलाओं के पारखी और प्रोत्साहन देने वाले होते थे| मैं यदि यह दावा करूँ कि संसार की कोई एक जाति इतनी कलामर्मज्ञ और कला-प्रिय नहीं रही है जितनी कि क्षत्रिय जाति रही है तो अत्युक्ति नहीं होगी|

यही नहीं, ललित कला के रूप में पुकारी जाने वाली कलाओं पर तो राजपूत जाति की विशिष्ट छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व के पूर्व भारतवर्ष में कला के क्षेत्र में भारतीयता थी| यही भारतीयता क्षत्रिय अथवा राजपूत कला थी और यही राजपूत कला हिन्दू-कला थी| इस्लाम के आगमन के उपरांत फारस और अन्य इस्लामी देशों की कलाओं और कलाओं के प्रति उनकी मान्यताओं और आदर्शों का यहाँ जब आगमन और मौलिकता को अक्षुष्ण रखने के लिए अपना जो पृथक स्वरूप स्थिर रखा, उनका वही पृथक स्वरूप आज भी राजपूत-कला के नाम से विख्यात है| उस समय राजपूतों ने भारतीय कला की आत्मा और शरीर को विशुद्ध, मौलिक और सुरक्षित रखा| इतना ही नहीं, उन्होंने उस समय कला के नये स्वरूपों और उसकी शैलियों का भी अविष्कार किया| जीवन की परिवर्तन और बढती हुई आवश्यकताओं और मान्यताओं के अनुसार कला को नवीन सांचे में ढाला और उसे नवीन रूप प्रदान किया| इस प्रकार राजपूतों ने न केवल इस्लाम और अन्य विदेशी आक्रान्ताओं की विध्यवंसात्मक आंधी से भारतीय कला को सुरक्षित ही रखा, अपितु उन्होंने स्वयं ने नवीन कला को जन्म दिया; उसके नवीन स्वरूपों की उदभावना की तथा समय और परिस्थिति के अनुसार उसका विकास और वर्धन किया| स्थापत्य और शिल्प कला में राजपूत-रूचि ने एक विशेष प्रकार की शैली का रूप धारण कर लिया, जो आज भी भारत के एक कोने से दुसरे कोने तक फैले हुए मंदिरों, दुर्गों और भवनों की बनावट की विशिष्टता और सूक्ष्मता के रूप में देखी जा सकती है| मूर्ति-कला का स्वर्ण युग भारत में बौद्ध-काल था| उसके उपरांत विकसित होने वाली मूर्ति-कला पर एक मात्र राजपूतों की रूचि, मान्यता और संस्कृति की छाप है| इस्लामी प्रभुत्त्व की युवावस्था तक आते आते तो उच्च कोटि की मूर्तियों का निर्माण एक मात्र राजस्थान तक ही सीमित रह गया था| चित्रकला में तो राजपूत शैली विश्व-विख्यात है ही| प्राचीन भित्ति-चित्र कला को न केवल राजपूतों ने सुरक्षित ही रखा है, अपितु उसमें मौलिक और सुन्दर कल्पनाओं का समावेश कर नव-जीवन और नव-स्वरूप भी दिया है| वर्तमान चित्रकला के अध्ययन में राजपूत-शैली अपना विशेष महत्त्व रखती है| इसी भांति प्राचीन भारतीय नृत्य और संगीत न केवल राजपूतों का आश्रय पाकर सुरक्षित ही रहा है, अपितु वह उनके द्वारा और भी अधिक सुन्दर और विकसित हुआ है| भारतीय नृत्य कला में राजपूत-नृत्य एक विशिष्ट और मौलिक शैली है| इसी भांति राग-रागनियाँ, वादन और गायन आदि संगीत के सभी क्षेत्रों में राजपूत-रूचि अपना विशिष्ट स्थान रखती है| काव्य को यदि हम कला के रूप में ग्रहण करें तो भी और उसे कला के रूप में ग्रहण न करें तो भी प्रत्येक दशा में वह राजपूतों का चिर ऋणी है| अन्य भारतीय साहित्य और काव्य भी इतनी प्रचुर मात्रा में है कि उसका कोई एक व्यक्ति अपने जीवन-काल में अध्ययन भी नहीं कर सकता| जिस कला का राजपूतों द्वारा संरक्षण, उदभव और विकास हुआ, वह स्वरूप मौलिकता, प्रभाव आदि गुणों में सर्वांग सुन्दर और स्वस्थ है| संसार के किसी भी सभ्यतम देश की कलाओं से उसकी तुलना की जा सकती है| वह अति सभ्य और सुसंस्कृत जाति और समाज की अभिव्यक्ति करने में आज पूर्ण समर्थ और सबल है|

मैं फिर उसी प्रश्न को दोहराता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने आज तक इन विभिन्न कलाओं के रूप में फैली और बिखरी हुई राजपूत जाति की महानता को देखा और समझा ही नहीं है ? यदि किसी ने देखा है तो उसके हृदय में इस महान जाति की महानता के प्रति श्रद्धा और उसके पतन के प्रति विक्षोभ क्यों नहीं उत्पन्न हुआ ? ये कलाएँ हमें अपनी महानता और सजीवता का स्मरण दिलाती है| ये हमें भविष्य में महानता से च्युत होकर क्षुद्रत्व सहित जीवन यापन करने की प्रेरणा नहीं देती है वरन एक सबल और महान जाति के रूप में अपने गौरव को सुरक्षित रखते हुए जीवित रहने का हमसे आग्रह करती है| इन कलाओं का दिग्दर्शन कर लेने के उपरान्त हमारी एक सबल जाति के रूप में जीवित रहने की लालसा और बढ़ जाती है| हम अब किसी भी दशा में महानता से पतित होकर नीच और क्षुद्र जीवन व्यतीत करने के लिए तैयार नहीं हो सकते| हमें इन कलाओं का आग्रह स्वीकार करना ही है; यही हमारा अंतिम और एकमात्र निर्णय होगा|

अब हमें संस्कृति के आधार पर राजपूत जाति के स्थान को ढूँढना होगा| शास्त्रीय परिभाषा के अनुसार भूषण-भूत सम्यक कृति अथवा चेष्टा ही संस्कृति कही जा सकती है| दुसरे शब्दों में मनुष्य के लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय के अनुकूल आचार-विचार ही संस्कृति है| हिन्दुओं के इसी लौकिक-पारलौकिक सर्वाभ्युदय का आधार वर्णाश्रम-व्यवस्था है| अतएव वर्णाश्रम धर्म के अनुसार क्षत्रिय आचार-विचार ही क्षात्र-धर्म और उसकी चेष्टाएँ क्षत्रिय अथवा राजपूत संस्कृति है| इस प्रकार महान और व्यापक हिन्दू संस्कृति के अंतर्गत राजपूतों की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति है| यह विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कलाकौशल, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक और पारिवारिक व्यवस्थाओं के कारण और भी सबल और पुष्ट बनी है| जिस समय आज की अन्य सभ्य जातियों में सामाजिकता की भावना केवल बीज रूप में ही उदय हुई थी, उस समय क्षत्रिय सुव्यवस्थित और सुन्दरतम शासन-प्रणाली को कार्यन्वित कर चुके थे| राजधर्म और शासन-व्यवस्था के उन मूलभूत और सर्वमान्य सिद्धांतों से वे उस समय परिचित थे जिस समय आज की अन्य जातियां केवल छोटे-छोटे झुंडों में रहना तक नहीं सीख पाई थी| सत्ता के विकेंद्रीकरण और व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ने पृथक्करण की उपादेयता के व्यावहारिक सिद्धांतों से वे दस हजार वर्ष या उससे भी कहीं पहले परिचित हो चुके थे| संसार की अन्य जातियों की राज-व्यवस्था और शासन-प्रणाली की भांति क्षत्रियों की अपनी राज्य-व्यवस्था और शासन-प्रणाली है और अब तक संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं और शासन-प्रणालियों से क्षत्रियों की राज्य-व्यवस्था सर्वाधिक सफल, सुदीर्घ और स्थाई सिद्ध हुई है| क्षत्रिय एक प्रकार की शासन-व्यवस्था का प्रतिनिधित्त्व करते है जिसका गत ढाई तीन हजार वर्ष से लगातार पतन हो रहा है और आज यह पतितावस्था में भी नव-निर्मित और नव-स्वीकृत संसार की सभी राज्य-व्यवस्थाओं से किसी दशा में गिरी हुई नहीं कही जा सकती| क्षत्रियों की शासन-व्यवस्था पर मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है| यहाँ तो केवल मात्र इतना ही बताना शक्य है कि क्षत्रिय एक ऐसी जाति है जिसकी स्वयं की राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली है तथा ये राज-नियम, राज्य-विधान और शासन-प्रणाली सभ्य संसार के इतिहास में सबसे अधिक समय तक प्रचलित रही तथा सबसे अधिक कल्याणकारी और सफल सिद्ध हुई|

इसी भांति राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संगठन के प्रति राजपूतों का अपने दृष्टिकोण को सम्यक प्रकार से समझ कर क्रियान्वित करने के उपरांत देश में गरीबी, भुखमरी और पूंजी-जनित व्याधियां उत्पन्न हो ही नहीं सकती| इस विषय पर भी मैंने इसी पुस्तक में अन्यत्र प्रकाश डाला है, अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इसी प्रकार इतने लंबे समय में जहाँ राजपूतों ने एक और भारतीय संस्कृति की रक्षा की वहां दूसरी और उन्होंने अपनी स्वयं की विशिष्ट संस्कृति का भी निर्माण किया| यह विशिष्ट राजपूत संस्कृति आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में परिलक्षित होती है| आज राजपूत संस्कृति नाम की एक पृथक और स्वतंत्र वस्तु बन चुकी है| राजपूतों का लौकिक और पारलोकिक अभ्युदय अथवा कल्याण के प्रति अपना स्वयं का दृष्टिकोण है और वह दृष्टिकोण अत्यंत ही व्यावहारिक तथा सर्वांग सुन्दर तथा पूर्ण परीक्षित है| इस विशिष्ट संस्कृति की विशिष्टता और महानता पर भी इस पुस्तक में अन्यत्र विचार किया जायेगा; यहाँ तो केवल इतना ही प्रतिपादित करना है कि राजपूत एक ऐसी जाति है, जिसकी स्वयं की एक पूर्ण विकसित और स्वतंत्र संस्कृति है| इस राजपूत संस्कृति को साहित्य, भाषा, इतिहास की त्यागमयी परम्पराओं, कला-कौशल, राज्य-व्यवस्था, रहन-सहन आदि के रूप में बनाने में कितना अधिक समय लगा है? इसके बनाने और रक्षित करने में अब तक कितना अधिक मूल्य चुकाना पड़ा है ? इस समस्त समय, परिश्रम और बलिदानी को सही रूप में नापने का आज हमारे पास कोई यंत्र नहीं है| और इस समस्त त्याग, परिश्रम और बलिदान के उपरांत जो संस्कृति निर्मित हुई है, वह कितनी महान उज्जवल और गौरवमयी है| उसे देखकर हमारा मस्तक लज्जा से झुक नहीं जाता है वरन गर्व से ऊपर उठता है| तब क्या परमोज्ज्वल संस्कृति को नष्ट होने दिया जाये ? यदि नहीं, तो उसकी रक्षा के लिए हमने अब तक क्या किया ? अज्ञान, स्वार्थ, कायरता और निर्बलता के कारण आज हम स्वयं इस संस्कृति को नष्ट होने में योग दे रहे है| हृदय पर हाथ रखकर पूछिये अपनी आत्मा से कि मेरे इस कथन में वास्तविकता है अथवा नहीं ?

विशिष्ट साहित्य, विशिष्ट इतिहास, विशिष्ट कला, विशिष्ट रहन-सहन, रीति-रिवाज, विशिष्ट राजनैतिक, सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक योजना, विशिष्ट जीवन-दर्शन, विशिष्ट पारलौकिक अभ्युदय की मान्यता, विशिष्ट संस्कृति और विशिष्ट आदर्श मान्यताएं और परम्परा होने के कारण राजपूत न एक वर्ग है, न एक वर्ण है और न एक समुदाय अथवा मत ही है, वरन यह एक पूर्ण विकसित जाति है और जाति से भी बढ़कर एक पूर्ण विकसित राष्ट्र है| अतएव राजपूतों को भविष्य में एक जाति और राष्ट्र के रूप में जीवित रहने और आगे बढ़ने का प्रयत्न करना चाहिये| तथा उन्हें अपने राष्ट्रीय जीवन, भाषा, साहित्य, इतिहास, संस्कृति आदि की रक्षा और वृद्धि में किसी भी बात की कमी नहीं रखनी चाहिये| और आज जब भारत के बुद्धिजीवियों द्वारा नियंत्रित और प्रभावित यह जनतंत्र अथवा बहुमतवाद हमारे प्रति आततायी होकर हमें समाप्त करने में पूर्ण-रूपेण सचेष्ट है, तब हमें आत्म-रक्षा के रूप में अपनी इस विशिष्टता को और भी दृढ़ता और आग्रहपूर्वक बनाये रखना चाहिये|

क्रमश:...

परिचय - २ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

भाग -१ से आगे........
इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण यह मेरा रुचिकर विषय रहा है| साहित्य की भांति ऐतिहासिक सामग्री भी किसी जाति के जीवन का मूल्यांकन करने के लिए पूर्ण समर्थ और सबल कसौटी है| पाश्चात्य विद्वानों ने इतिहास का जिस प्रकार आदि-युग, पाषाण-युग, धातु-युग आदि के रूप में काल-विभाजन किया है, वह भारतीय इतिहास पर पूर्णरूपेण लागू नहीं हो सकता| यह काल-विभाजन विकासोन्मुखी पश्चिमी सभ्यता पर पूर्ण घटित होता है, जो यह मान कर चलती है कि उनके आदि पूर्वज असभ्य और पशुवत जीवन व्यतीत करते थे और अब वे क्रमिक रूप से सभ्यता की और बढ़ रहे है| वे बंदरों से मनुष्य हुए है और हम देवताओं से मनुष्य हुए है| हमारा आदि युग किसी पाषाण और असभ्य युग का बोध न करा कर हमें सत-युग का बोध कराता है जिसमें मनुष्य को पूर्ण बनाने वाला मानव-अस्तित्त्व का परम आभूषण धर्म अपने चारों चरणों सहित विद्यमान था| देवत्त्व से पतित और रूपांतरित होकर मनुष्यत्त्व प्राप्त करने के कारण हम आज ह्रासोन्मुख सभ्यता का प्रतिनिधित्त्व करते है| यही कारण है कि हमें पूर्वजों पर अधिक गर्व है और हम जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विगत संस्कृति से प्रेरणा ग्रहण करते है| देवत्त्व से च्युत होने के कारण पुन: देवत्त्व की प्राप्ति का निर्दिष्ट लक्ष्य हमारे सामने है| हमारे समस्त आचार-विचार मनुष्यत्व से देवत्व और अपूर्णता से पूर्णता की और ले जाने वाले होते है; पर पाश्चात्य संसार के सामने पूर्णता का ऐसा कोई आदर्श नहीं है| यही कारण है कि वे अपने भावी लक्ष्य के प्रति अस्पष्ट और अनिश्चित है| वे अपने असभ्य पूर्वजों पर शर्मिंदा है और गत असभ्य युग की और प्रेरणा के लिए न देखकर सदैव भविष्य की और ताकते रहते है| पर भविष्य की कोई निश्चित, स्पष्ट और पूर्ण रुपरेखा उनके सामने न होने के कारण वे नाना प्रकार के प्रयोगवादों में ही फंसे रहते है| पाश्चात्य रंग में रंगे हुए आज के अधिकांश भारतीय बुद्धिजीवी भी अपने पूर्वजों पर शर्मिंदा, प्राचीन संस्कृति से खिन्न और रुष्ट है| और इसीलिए वे स्वयं आज प्राचीन संस्कृति को समाप्त कर, किसी नये युग का प्रवर्तन कर, भावी संतानों द्वारा युग-प्रवर्तक और आदर्श महापुरुष के रूप में पूजित होना चाहते है|

सतयुग का इतिहास हमें वैदिक वांगमय के रूप में देखने को मिलता है| वैदिक और उत्तर वैदिक साहित्य में तत्कालीन जीवन-दर्शन, समाज-व्यवस्था आदि का सांगोपांग चित्रण मिल जाता है| त्रेता और द्वापर युगों के इतिहास से तो समस्त पौराणिक साहित्य भरा पड़ा है| रामायण और महाभारत उसी इतिहास के दो अमूल्य ग्रंथ है| महाभारत-काल के पूर्व का हजारों वर्षों का इतिहास ब्राह्मणमय और राजनैतिक और सामाजिक इतिहास क्षत्रियमय है| महाभारत काल के पश्चात् का लगभग डेढ़ हजार वर्ष का इतिहास भारतीय इतिहास की दृष्टि से अंधकार का युग कहा जा सकता है| पर यह बताने की तनिक भी आवश्यकता नहीं है कि उस समय समस्त भारत और आस-पास के प्रदेशों पर क्षत्रियों का सार्वभौम प्रभुत्त्व था| मौर्यकाल से भारत का तिथिवार-क्रम-बद्ध इतिहास उपलब्ध है| मौर्यकाल से लगा कर इस्लाम के आक्रमण तक भारत वर्ष की क्षत्रिय जाति सार्वभौम प्रभुत्त्व-संपन्न जाति रही| ऐतिहासिक घटनावली का दिग्दर्शन मैंने आगे के अध्याय में करा दिया है अतएव यहाँ विस्तृत रूप से लिखने की आवश्यकता नहीं है|

इस्लामी प्रभुत्त्व के समय में भी जौहर और शाका करके जीवित रहने वाली, मर-मर कर पुनर्जीवित होने वाली क्षत्रिय जाति का इतिहास हिन्दू भारत का इतिहास था| संसार के प्राचीनतम सभ्य देश भारत के इतिहास में से क्षत्रिय इतिहास निकालने के उपरांत शेष कुछ भी नहीं बचता है|

इस समस्त इतिहास को पढ़ लेने के उपरांत मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इस संसार में क्षत्रिय जाति के अतिरिक्त कदाचित ही कोई जीवित जाति होगी जिसके इतिहास की इतनी सुदीर्घ परम्परा हो| जिस जाति का इतना उज्जवल दीर्घ और गौरवमय इतिहास हो वह भावी इतिहास बनाने में इतनी तटस्थ, निर्लिप्त और उदासीन कैसे रह सकती है| मैं पुन: वही प्रश्न करता हूँ कि क्या किसी राजपूत ने अभी तक भारतीय इतिहास की इस गौरवमयी श्रंखला का अध्ययन किया ही नहीं है ? यदि किसी ने इस गौरवमय इतिहास का सम्यक रूप से अध्ययन किया है तो उसके हृदय को अशांत और विक्षुब्ध कर मथ देने वाली पीड़ा का अभी तक उदय क्यों नहीं हुआ ? इतिहास विदेशियों के लिए घटनाओं की जानकारी के लिए लिखे जातें है पर स्वजनों के लिए वे प्रेरणा और आदर्श ग्रहण करने के लिए होते है| जिन जातियों का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं, उन जातियों का यदि जीवन अस्त-व्यस्त, लक्ष्य-भ्रष्ट और उनकी प्रगति की रुपरेखा अनिश्चित, अस्पष्ट और परमुखापेक्षी हो तो यह समझ में आने वाला तथ्य है| पर जिस जाति के पास धरोहर के रूप में इतना स्फूर्तिमय और गौरवशाली इतिहास हो, वह अपना कर्तव्य निश्चित नहीं कर सकती, यह महान आश्चर्य की बात है| आज राजपूतों को कर्तव्य-ज्ञान कराने की क्या आवश्यकता है ? उन्हें तो केवलमात्र सम्यक रूप से इतिहास का ज्ञान करा देना चाहिये|

मैंने इतिहास को इसी प्रकार कर्तव्य-पुस्तक के रूप में पढ़ा है| उसकी तिथियों, घटनावली और तथ्यों का ज्ञान हमारे लिए विशेष उपादेय नहीं है| हमें तो उससे प्रेरणा ग्रहण कर राष्ट्र के भावी इतिहास-निर्माण में सक्रीय भाग लेना है| इतिहास की इस प्रचुर सामग्री को देख कर मैं यह विश्वास करने के लिए कभी बाध्य नहीं हो सकता कि हजारों वर्षों से गौरवशाली इतिहास का निर्माण करने वाली यह राजपूत जाति पददलित और पतित होकर समाप्त हो जायेगी| मैं यह कैसे स्वीकार करूँ कि अनुपम वीरता, अतुल पराक्रम, अद्वितीय साहस, महान त्याग और बलिदान की यह परम पवित्र पयस्विनी परम्परा इस युग में विलुप्त होकर सदैव के लिए अन्तर्धान हो जायेगी! नहीं, हम कदापि समाप्त नहीं होंगे; समाप्त हो नहीं सकते, संसार की कोई शक्तिशाली अथवा धूर्त शक्ति हमें मिटा नहीं सकती| इसी विगत इतिहास के मूलभूत सिद्धांतों की पुनरावृति कर, गौरव से जय-घोष करने के लिए हमें दृढ़तापूर्वक तैयार हो जाना होगा| पूर्वजों के हजारों वर्षों के अथक परिश्रम और बलिदान को व्यर्थ जाने देना आज के इस युग की सबसे बड़ी कायरता और निर्लज्जता होगी और इसीलिए विघटन करने वाली विरोधी शक्तियों को रोने दो; चिल्लाने दो; उनके विरोध को धैर्य, साहस, दृढ़ता और निर्दयतापूर्वक कुचलते हुए आगे बढ़ जाओ| हमने जीवन के किस अंग पर अपनी अमिट छाप नहीं छोड़ी है? मनुष्य जब अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की प्रिप्ती और पूर्ति के उपरांत जीवन के जिस सूक्ष्म स्वरूप की रुपरेखा बनाता है, वही सौन्दर्य की सृष्टि का सत्यमय व्यापार है| स्थूल आवश्यकताओं से छुटकारा पाकर वह जीवन के सूक्ष्म और सुन्दर उपकरणों को जुटाता है; जीवन की अभिव्यक्ति सत्यं, शिवं और सुन्दरम के रूप में करना चाहता है| मनुष्य की यही सृजनात्मक प्रक्रिया उसे पशुत्त्व से मनुष्यत्त्व प्रदान करती है| मानव-जीवन की यही सृजनात्मक और उल्लासपूर्ण अभिव्यक्ति विभिन्न कलाओं के रूप में प्रस्फुटित होकर इस विराट संसार की अभिव्यक्ति के साथ एकाकार हो जाती है| और यह वास्तव में उचित भी है; क्योंकि मनुष्य उसी महान कलाकार का इस संसार में प्रतिनिधित्त्व करता है| उस महान कलाकार की अभिव्यक्ति और मनुष्य की अभिव्यक्ति वास्तव में एक ही अभिव्यक्ति के दो भिन्न-भिन्न रचनात्मक पहलू है| मानव द्वारा सृजित कलाओं का यही विविध रूप उसकी सभ्यता और प्रगति की स्थिति और स्वरूप को सही रूप से नापने और तौलने का एकमात्र यंत्र है|

क्रमश:....

परिचय -१ : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

पिछले भाग से आगे......
विश्व साहित्य के आदि काव्य-ग्रंथ बाल्मीकि रामायण को दो बार पढ़ डाला| तुलना के लिए साथ में करोड़ों हिन्दुओं के परम श्रद्धेय ग्रंथ तुलसीकृत रामायण को भी पढ़ गया| राम-राज्य के आदर्श से अचम्भित हो उठा और गौरव से मस्तक उन्नत हो गया| कितनी सुन्दर समाज-व्यवस्था, कितनी आदर्श परिवार-व्यवस्था, कितनी निष्कपट राज्य-व्यवस्था, कितनी कल्याणकारी अर्थ-व्यवस्था और इन सब व्यवस्थाओं को नियंत्रण में रखने वाली कितनी उच्च और महान धर्म-व्यवस्था थी ? आज भी भारत उन्हीं व्यवस्थाओं से गर्व कर सकता है|

और ये व्यवस्थाएं मेरे पूर्वजों द्वारा निर्मित, रक्षित और संचालित थी| मैं आज पुरुषोतम भगवान् राम की देह और परम्परा का प्रतिनिधित्त्व करता हूँ| ओह ! मैं कितना अभागा, मूढ़मति और अल्पदर्शी हूँ कि इस प्रकार की सर्वंगीण सुन्दर परम्परा के प्रतिनिधित्त्व का दम भरने वाला होकर भी आज के इन विदेशी, विजातीय, अल्पजीवी और अपूर्ण वादों के फंदे में फंस गया| मेरी आत्मा व्यग्रतापूर्वक किसी की खोज कर रही थी; वह मुझे अनायास ही रामायण में मिल गया, इच्छित फल की प्राप्ति से पूर्ण सुख मिला|

इसके उपरांत विश्व-साहित्य के अनुपम ग्रन्थ महाभारत को भी दो बार पढ़ डाला| भारतीय साहित्य में महाभारत एक अथाह सागर के समान गहराई और विशालयुक्त ग्रंथ है, जिसमें जितनी डुबकियाँ लगाईं जाये उतने ही अनुपम रत्न प्राप्त होते है| इसी महाभारत रूपी महासागर में गीता जैसा अमूल्य रत्न भी है जिसका मूल्यांकन न कोई संसार का जौहरी अब तक कर सका है और न ही कर सकता है|

इसी महाभारत में मेरे उन पूर्वजों की गौरव-गाथाओं और महिमा का वर्णन है जिन्होंने विश्वविजय किया था, जो इस भूखंड के चक्रवर्ती सम्राट थे और उसी वंश के दीपक की लौ होते हुए आज............?

महाभारत का युद्ध भाइयों-भाइयों का साधारण गृह-युद्ध नहीं था, वह धर्म और अधर्म का युद्ध था---क्षात्र-धर्म के औचित्य और स्वरूप को स्थिर करने का उदाहरण था| यदि दुर्योधन पांडवों को पांच गांव भी दे देता तो वह नर संहार नहीं होता| वे पांच गांव पाण्डवों को कितने प्रिय थे ? उनपर उनका पैतृक अधिकार था; वे उनकी परम्परागत संपत्ति थी| पैतृक अधिकारों की रक्षा ही स्वधर्म की रक्षा है; पैतृक अधिकार ही जन्म सिद्ध अधिकार है| इन्हीं जन्म-सिद्ध अधिकारों की रक्षा और स्वाभाविक कर्तव्य-पूर्ति में कोई तात्विक अंतर नहीं होता है| इसी कर्तव्य-पूर्ति के लिए मर मिटने से स्वर्ग अनायास ही प्राप्त हो जाता है| पैतृक अधिकारों के लिए संघर्ष धर्म युद्ध का ही एक स्वरूप है और इसी धर्म-युद्ध का अवसर क्षत्रिय को दुर्लभता से प्राप्त होता है| इन्हीं पैतृक और परम्परागत अधिकारों की रक्षा के लिए महाभारत का धर्म-युद्ध लड़ा गया जिसमें अट्ठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हो गया, पर किसी ने भी धर्मराज युधिष्टर को पापी नहीं कहा| वास्तव में उनका पक्ष धर्म, न्याय, सत्य और औचित्य का ही था| और आज हमारे पैतृक और परम्परागत अधिकारों की क्या दशा है ? महाभारत की कहानी पढ़ी बहुतों ने है पर उससे सीखा कदाचित किसी ने कुछ भी नहीं|

महाभारत पढ़ लेने के उपरांत कोटि-कोटि हिन्दुओं के परम श्रद्धेय धर्म-ग्रन्थ श्रीमदभागवत को पढने की इच्छा प्रबल हुई| भगवत में गूढ़तम आध्यात्मिक और दार्शनिक सिद्धांतों को कितनी सरलता और वैज्ञानिकतापूर्वक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाया गया है| भागवत की कथाओं ने मुझे नवीन रूप से प्रेरणा दी| मेरे पूर्वजों को धर्म और दर्शन के अमूर्त सिद्धांतों को व्यावहारिक जीवन में ढाल कर मूर्त स्वरूप देने का कितना अधिक श्रेय है; यह सत्य इस ग्रन्थ को पढ़ लेने के उपरांत ही ज्ञात हुआ| परब्रह्म परमात्मा के रूप में जिस भागवत कृष्ण की भक्ति का भागवत में प्रतिपादन किया गया है, वे सौलह कला अवतार, दुष्ट-विनाशक भगवान् कृष्ण हमारे ही तो पूर्वज थे और आज हम उनकी संतानें दाने दाने को.............|

दो तीन पुराणों को पढ़ा| उनको पढ़ लेने के उपरांत एक ही धारणा की पुष्टि हुई कि मैं जिस परम्परा का, रक्त, जन्म और संस्कारों से प्रतिनिधित्त्व करता हूँ वह अतीव आदर्शवान, उच्च, निर्भीक और अद्वितीय है;- वह अधर्म, अन्याय, अत्याचार, असत्य, धूर्तता और उत्पीड़न के सामने झुकना और नतमस्तक होना जानती ही नहीं है| वह पराजय और पतन को विजय और उल्लास में बदलना तो जानती है पर उन्हें मन-वचन और कर्म से स्वीकार करना जानती ही नहीं है|

रघुवंशी राजाओं के गौरव की अमर गाथा और उज्जवल महिमा का वर्णन मैंने “रघुवंश” में पढ़ा| स्वाभिमान के अलौकिक आनंद से देह और आत्मा पुलकित हो उठी| वे परम यशस्वी रघुवंशी सम्राट मेरे पूर्वज थे| उनके गौरव और बड़प्पन की तुलना संसार में किससे की जा सकती है ? इसी महिमामय, गौरवमय और निष्कलंक वंश की उज्जवल कीर्ति का वर्णन करने में सरस्वती-पुत्र, कवि-कुल-कलम दिवाकर, कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी भावुकता, काव्य-मर्मज्ञता, कला-परिश्रम, शक्ति और वाणी की परम सार्थकता समझी| यदि मैं “रघुवंश” नहीं पढता तो जान ही नहीं सकता था कि मेरी वंश-परम्परा कितनी महान, उज्जवल और देदीप्यमान है|

उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य के कुछ और भी ग्रंथ पढ़े| उन सब में एक ही ध्वनी प्रतिध्वनित हो रही थी कि इस भू-मंडल पर मेरे पूर्वजों का चरित्र और व्यक्तित्त्व श्रेष्ठतम था| मुझे अनुभव हुआ, मैं उन श्रेष्ठतम महापुरुषों की निष्कृठतम संतान आज भारस्वरूप होकर दीनतापूर्वक क्षुद्र जीवनयापन कर रहा हूँ|

प्राकृत (पाली) और अपभ्रंश भाषाओँ और अमूल्य भाषाओँ का साहित्य पढने का अधिक सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| इन भाषाओँ में भी अथाह और अमूल्य साहित्य भरा पड़ा है| इन भाषाओँ का लगभग सभी उपलब्ध साहित्य बौद्ध और जैन धर्मावलम्बियों द्वारा सृजित और निर्मित है| अनुमान लगा सकता है कि इस साहित्य का वर्ण्य-विषय मुख्य रूप से मेरे ही पूर्वजों का चरित्र था| इसके नायक, पात्र, दृष्टान्त और उदाहरण सब वे ही थे| कारण कि जिस महान मानवी, बौद्ध और जैन मतों का प्रवर्तन इस संसार में कर्म-शुद्धि और अहिंसा का पाठ पढ़ाने के लिए हुआ था, वह क्षत्रिय-पुत्र भगवान् बुद्ध और महावीर द्वारा ही हुआ था| क्षत्रिय-परम्परा को बौद्ध और जैन-परम्परा के प्रति सदैव उदार और हितैषी रहना चाहिये तथा बौद्ध और जैन-परम्परा को सदैव क्षत्रिय-परम्परा के प्रति श्रद्धालु, नमनशील और कृतज्ञ रहना चाहिये|

हिंदी के आदि काव्य-ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो की प्रत्येक घटना राजपूत चरित्र से सम्बंधित है ही, इस पर अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं| इसके उपरांत हिंदी साहित्य के लगभग सभी महा-काव्यों, खंड-काव्यों और मुक्तक-काव्यों का मैंने अनुशीलन कर डाला| गध्य साहित्य के सभी प्रचलित स्वरूपों को पढ़ डाला| कुछ गुजराती और बंगला से हिंदी में अनुदित ग्रंथ भी पढ़े| हिंदी साहित्य में कल तक महाकाव्यों का धीरोदात नायक क्षत्रियों के अतिरिक्त और कोई हो नहीं सकता था| किसी भी महाकाव्य के नायक में जो शास्त्रीय विशेषताएँ होनी चाहिये, वे सब केवल क्षत्रिय नायक में ही मिल सकती है| वीरगाथा-काल, सगुण भक्ति-काल और रीति-काल का प्रधान नायक किसी एकाध अपवाद को छोड़कर क्षत्रिय के अतिरिक्त और कोई नहीं है| आधुनिक काल में भी कई महाकाव्यों और खण्डकाव्यों के नायक क्षत्रिय ही है| पाश्चात्य शैली औरविचारधारा के आगमन के फलस्वरूप अब जाकर कहीं साहित्य में काल्पनिक और सामान्य नायकों का आयोजन होने लगा है| इस प्रकार क्षत्रिय-चरित्र से साहित्य, जीवन ग्रहण करते आया है; क्षत्रिय जीवन से वह प्रेरणा लेता आया है और क्षत्रिय-परम्परा की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करते और महिमा गाते हुए आया है| मेरे पूर्वजों के निर्मल और अलौकिक चरित्र का गान करके कितने ही काव्य-प्रेमी महाकवि बन गए है| राष्ट्रकवि मैथिलिशरण गुप्त के शब्दों में-

राम, तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है|


भगवान् राम के आदर्श चरित्र का जिन्होंने जिस भाषा में, वर्णन कर दिया वे सभी संसार-साहित्य के उच्च कोटि के महाकवियों की श्रेणी में आ गए|

और यदि हम आदि-काल के पिंगल और तत्पश्चात पिंगल-मिश्रित काव्य का रसास्वादन करें तो उसमें जिस रोज और चमत्कारपूर्ण ढंग से क्षत्रिय-महिमा का वर्णन किया है,- वह किसी भी मरणासन्न, मृत-प्राय जाति को जीवनदान देने में पूर्ण समर्थ है| डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य का एक एक अक्षर राजपूत शौर्य, तेज, वीरत्त्व, उदारता और बड़प्पन की महिमा गा-गा कर स्वयं-सार्थक और चमत्कृत हो उठा है| यदि डिंगल काव्य और राजस्थानी साहित्य को हम अपनी जातिगत निधि मानकर श्रद्धापूर्वक उसकी पूजा करें तो भी उसके महत्त्व की स्वीकृति पूर्ण रूप से नहीं हो सकती|

इस वसुंधरा के वक्षस्थल पर क्षत्रिय जाति को छोड़कर कोई अन्य जाति विद्यमान न होगी, जिसके पीछे इतना साहित्य-बल हो; इतनी साहित्यिक प्रेरणा हो और जिसकी गौरव-गरिमा का वर्णन इतने व्यापक विशुद्ध, अटूट और प्रभावपूर्ण ढंग से हुआ हो| साहित्य का एक वाक्य, काव्य का एक शब्द राष्ट्रों का भाग्य-निर्माण और उनकी कायापलट करने में समर्थ हो सकता है| डिंगल काव्य के एक एक छोटे से दोहे ने अनेक बार ऐतिहासिक प्रवाह को बलपूर्वक मोड़कर दूसरी दिशा में बहा दिया; डूबती हुई गौरव की नाव को किनारे लगा दिया; सम्मान और कुल-गौरव की रक्षा के लिए वीरांगनाओं को अग्नि-स्नान और वीरों को धारा-तीर्थ में स्नान कर दिया| प्रेरणा, जीवन, आदर्श और पूर्णता का कितना अखंड, अक्षय, निरंतर और मधुर स्रोत हमारे घर में ही प्रवाहित हो रहा है| कितने सुविशाल, सुदीर्घ, सबल, गौरवशाली और व्यापक साहित्य देवता का वरद हस्त हमारी पीठ पर है|

मैं यह स्वीकार करने के लिए कभी तैयार नहीं कि जिस जाति के पास इतनी अमूल्य और अटूट साहित्यिक निधि हो वह स्वयं अपना महत्वांकन नहीं कर सकती| मैं कभी भी विश्वास नहीं कर सकती कि इतनी तीव्र साहित्यिक प्रेरणा होते हुए, किसी भी जाति का पतन भी हो सकता है और यदि क्षणिक पतन हो भी जाता है तो वह तत्काल ही उठ नहीं सकती| हमें अंतिम रूप से निश्चित करना होगा कि हम पतन और पराजय की इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर सकते; अपमानित और दीन बनकर जीवित नहीं रह सकते| इस साहित्य का अनुशीलन कर लेने के उपरांत कोई पतन, पराजय और दासता का अपमान सहते हुए जीवित भी रह सकता है? यह कल्पनातीत है और इसीलिये मेरा दृढ़ विश्वास है कि या तो राजपूत जाति को गौरवपूर्ण ढंग से जुंझते हुए सदैव के लिए समाप्त होना होगा या उसे पुन: उठ कर एक बार और विजय-श्री का मंगलमय उदघोष करना पड़ेगा; तीसरा विकल्प हमारे सामने है ही नहीं| क्या अब किसी राजपूत ने इस साहित्य को पढ़ा ही नहीं ? इस साहित्य ने मेरे मानस-प्रदेश पर एक विचित्र प्रकार की हलचल मचादी है| मैं चाहता हूँ कि प्रत्येक क्षत्रिय का मानस-प्रदेश इसी प्रकार की हलचल का केंद्र बन जाय|

क्रमश:.....

परिचय : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

बसंत ऋतू के उद्दीपक वातावरण से पुलकित होकर एक दिन मैं ऐतिहासिक स्थलों का भ्रमण करने निकला पड़ा| भग्नावशेष के रूप में विद्यमान कुछ अति प्राचीन दुर्गों को देखा; कुछ मध्यकालीन दुर्गों में घूमा और उत्तर मध्यकालीन दुर्गों के ऐतिहासिक भवनों का भी ह्रदय में प्रवाहित भावनाओं के चतुर्मुखी बवंडर की उपेक्षा करते हुए निरिक्षण किया| दो चार से अधिक युद्ध-स्थलों का भ्रमण नहीं कर सका|

दिल्ली के पाण्डवों के किले ने मूक भाषा में न मालूम मुझसे कितने प्रश्न पुछ डाले| पर मैं उनमें से एक का भी उत्तर नहीं दे सका| उस दुर्ग के संस्थापक विश्व-विजयी पाण्डवों की स्थिति और अपनी स्थिति के अंतर को ढूंढता हुआ वहां से निकल पड़ा| वीर-शिरोमणि पृथ्वीराज का किला मुझे देखकर क्रुद्ध हो उठा; उसकी झुलसाने वाली उच्छवासों को मैंने अनुभव किया| उसमें मैं घूमा अवश्य पर किसी आल्हादपूर्ण प्रसन्नता के साथ नहीं, हृदय में बैठी लज्जा के द्रवित होकर पिघलने की क्रिया को अनुभव करते और उस हल्की-हल्की उष्णता से तपते हुए| एक समय का भारत का भाग्य-विधायक तारागढ़ विवशता-पूर्ण मौन धारण किये हुए दिखाई पड़ा| पर उसके निश्चल और वक्राकार शरीर की कुंठित आत्मा में बैठे मौन-संदेश को मैंने पढ़ और समझ लिया| मैंने हृदय का समस्त साहस बटोर कर वीरों के परम पवित्र तीर्थ-स्थान चितौड़गढ़ में प्रवेश किया;- सोचा था, दो-चार दिन तक इसी में ठहरूंगा पर वहां एक क्षण भी नहीं ठहर सका| उसका क्रोधपूर्ण अट्ठाहस हृदय को दहलाने वाला था| उसके अंतर्पदेश में आज भी जौहराग्नि धधक रही है| वह पीड़ित, घायल, उपेक्षित अपमानित और श्री-विहीन होते हुए भी अन्याय, अत्याचार, अधर्म और परतंत्रता का मुकाबिला करने में मुझे पहले जितना ही समर्थ लगा|| मेरी निर्बल, पतित, भीरु और अज्ञानी आत्मा में इतना साहस कहाँ था कि उसके उपालम्भों का उत्तर दे सकता; उलटे मुंह लौट जाना पड़ा;- एक भी बात उसकी सुनी और समझी नहीं| रणतभंवर में मुझे पग-पग पर महाप्रलय से टक्कर लेने वाले हठी हमीर की पवित्र आत्मा के दर्शन हुए| हमीर का हठ राजपूत-गौरवाकाश का उज्ज्वलतम नक्षत्र है| इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को दे अथवा सुदृढ़ रणतभंवर दुर्ग को ? मेरी सम्मति में इस गौरव का श्रेय हठी हम्मीर को ही देना उचित होगा| क्योंकि-

पतली भींत किलैह, मांयज सांवत सूरमा|
भेली नांह भिलैह, रावत उभां राजिया||
जाड़ी किले सफील, मांयज नर निबला हुवै|
ढूंढो ढहता ढील, रती न लागै रजिया||


शूरवीरों द्वारा रक्षित निर्बल दुर्ग भी अजेय होता है पर निर्बल रक्षकों द्वारा रक्षित सुदृढ़ दुर्ग भी सरलता से ढह जाता है| ऊँटाला दुर्ग और कुम्भलगढ़ को दूर से देखकर ही प्रणाम कर लिया| उन्हें अपना निर्लज्ज, गौरव-रहित और अयोग्य मुंह दिखलाने का साहस नहीं बटोर सका| उलाउद्दीन की सेना के छक्के छुडाने वाले जालौर दुर्ग में प्रवेश कर विरमदेव सोनगरा की गौरवगाथा के चिंतन में निमग्न था कि मरुधराधीश मानसिंह जी का दृढ़ निश्चय सुनाई पड़ा-

आभ फटै धरा उल्टै, कटै बकतरां कौर|
सिर टूटै धड़ तड़फडै, जद छूटै जालौर ||


यह अमर आन और स्वाभिमान का मन्त्र आज भी कानों में गूंज रहा है| भारत के उत्तरी-पश्चिमी द्वार के रक्षक जैसलमेर दुर्ग को सूर्यास्त की मरणासन्न किरणों के काले प्रकाश में देखा| श्री-हीन वैधव्य की भांति एक उदासीन परत उस पर छा रही थी, जिसके नीचे गौरव और कीर्ति निरंतर दबे से जा रहे थे| जोधपुर दुर्ग, बीकानेर दुर्ग, आमेर दुर्ग, अलवर दुर्ग, बूंदी दुर्ग और राजस्थान के इन विगत गौरव के स्मृतिचिन्हों के अनेक रूपों को देखकर मैं लज्जा से सिहर उठा, विवशता से रो उठा, दीनता पर क्रोधित और निर्बलता पर झुंझला पड़ा|

मैंने सोचा, कीर्ति के इन भग्नावशेषों, गौरव के इन स्मृति चिन्हों, राज्य-वैभव के इन साकार प्रतीकों, सम्मान और स्वाभिमान के खुले अध्यायों और कर्तव्य-पालन की इन प्रभावशाली कहानियों को क्या अब तक किसी राजपूत ने देखा ही नहीं है, सुना ही नहीं है, समझा ही नहीं है, इन पर चिंतन और मनन किया ही नहीं है ? कदाचित देखा सभी ने है पर सुना नहीं, सुना अवश्य है पर समझा नहीं, और यदि किसी ने इन्हें समझा भी है तो इन पर चिंतन और मनन नहीं किया है| इन्हें देखने के लिए आँखों, सुनने के लिए जिन कानों, समझने के लिए जिस हृदय और चिंतन-मनन के लिए जिस मस्तिष्क की आवश्यकता होती है, कदाचित ये सब हम लोगों के पास नहीं है| यदि यह बात नहीं होती तो प्रेरणा के इन साक्षात् और साकार स्वरूपों के होते हुए भी हम आज इस प्रकार से अपमानित, श्री-हीन, दीन और कायरपूर्ण संतोषी बनकर नहीं रह सकते थे ? कभी भी शांत न होने वाली हृदय की वेदना से अब तक हमें चीत्कार उठाना था; अमर और कर्णभेदी चीख से पृथ्वी आकाश को गुंजायमान कर देना था; समस्त प्राणियों में कोलाहल उत्पन्न कर देना था| अमर काव्य के मूर्तिमान स्वरूप इन कीर्ति स्थलों की शक्ति की गहराई अथाह है| इस शक्ति का एक अणु-मात्र भी लेकर हम शक्तिमान बन सकते है| इस शक्ति से सशक्त होकर अब तक हमने विजय-घोष क्यों नहीं किया; उदबोधन का महाशंख क्यों नहीं बजाया; कर्म-क्षेत्र को रौंद क्यों नहीं डाला ? इन्हें देखकर हमारे में प्रबल महत्वाकांक्षा का उदय क्यों नहीं हुआ ? क्या हमारे पूर्वजों ने अपने रक्त से मिट्टी को सान कर इसका निर्माण नहीं किया था; क्या उन्होंने अपने सर्वस्व की आहुति देकर इनके सुरक्षा यज्ञों का आयोजन नहीं किया था और क्या उन्होंने स्वप्न में भी कभी यह सोचा था कि हम उनकी आज की अकूत और अयोग्य संताने परम पवित्र उनके स्मृति-चिन्हों से कुछ भी प्रेरणा ग्रहण न करके केवल विदेशी दर्शकों की भांति इन्हें तटस्थ और निर्लिप्त भाव से देखती मात्र रहेगी ?

इन ऐतिहासिक खंडहरों के निर्माण-काल का अनुमान लगाने वालों की आज कमी नहीं है; इनकी सुदृढ़ता, स्थापत्य और शिल्प-कला का बखान करने वाले दिनों दिन बढ़ते जा रहे है, इनके अन्दर घटित ऐतिहासिक घटनावली को भी क्रम-बद्ध रूप से लिपिबद्ध किया जा सकता है पर इनसे सामाजिक महत्वाकांक्षा की प्रेरणा ग्रहण कर और उज्जवल जीवन और अमर-मृत्यु का पाठ दोहरा कर विगत गौरव की पुन:स्थापना करने वालों की आज नितांत आवश्यकता है|

मुझे इन्हीं ऐतिहासिक स्थलों से कुछ महत्वाकांक्षा प्राप्त हुई है| वह महत्वाकांक्षा क्या है, थोड़ी देर पश्चात् बताऊंगा| “धर्म-क्षेत्र”, कुरु-क्षेत्र की पुण्यमयी धूलि को मस्तक पर चढाने का अभी सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है| राजस्थान से बाहर के अन्य युद्ध-स्थल भी अभी तक नहीं देख पाया हूँ| कन्हवा के युद्ध-स्थल का भी केवल मानचित्र ही देखा है| भारत की थर्मापल्ली हल्दीघाटी की चप्पा चप्पा भूमि देख आया हूँ| अन्य युद्ध स्थल भी कुछ देखें है; कुछ नहीं, पर उन सबको देखकर क्या करूँगा ? मैं सर्वज्ञ तो नहीं पर उनके संदेश को तो यहाँ बैठा-बैठा ही सुना सकता हूँ| वे सब एक ही भाषा में बोलेंगे, एक ही भाव होगा और एकसी उनकी हमारी निर्बलता और विवशता पर प्रतिक्रिया| लो, यहाँ बैठे ही मैं आपको बता दूँ- उनका संदेश होगा|

“हमारे वक्ष स्थलों पर धर्म युद्ध में परिणाम की चिंता किये बिना प्राण-विसर्जन करने वाले वीरों की संताने होकर तुम कायरता को क्यों हृदय से लगाये बैठे हो ? उठो, स्वाभिमान से जीवन व्यतीत करो और समय आने पर वीरोचित ढंग से मृत्यु का आव्हान करो !” पर प्रश्न यह है, - क्या हम उनसे शिक्षा ग्रहण करते है ? क्या कभी हम मनन करते है कि इस पुण्य भूमि भारत की चप्पा चप्पा भूमि को रक्त से सानने वाले हमारे पूर्वजों के चरित्र की विशेषताएँ क्या थी ? इन युद्ध-स्थलों में वे क्यों लड़े, कटे और मरे थे ? इन प्रश्नों पर यदि हम गंभीरता-पूर्वक किंचित मात्र भी मनन करते तो कायरता के इस बाने को अभी तक फेंक देते और पग-पग पर धर्म-युद्ध का दुर्लभ समय उपस्थित देखकर भी उससे विमुख न होते| मैं इन्हीं युद्ध-स्थलों से प्राप्त संदेश का आभास-मात्र आपको दिखलाने का प्रयत्न करूँगा|

ऐतिहासिक स्थलों के भ्रमण के उपरांत हृदय के आशान्त सागर में निरुद्देश्य होकर कल्पना के डांड थपथपाने लगा| भावोन्मेश द्वारा उत्तेजित अवश्य हुआ पर इस प्रकार की मानसिक उत्तेजना किसी निश्चित शांति-सामग्री के अभाव में स्वत: शांत न होकर विचार-विकृति का रूप धारण कर लेती है| मैंने इसी शांति-सामग्री की प्राप्ति के लिए साहित्य का अनुशीलन आरम्भ किया| देव-वाणी संस्कृत भाषा से अनभिज्ञ होने के कारण उसके हिंदी रूपान्तरों से ही संतोष कर लेना पड़ा|

क्रमश:.....

प्रस्तावना : राजपूत और भविष्य (पुस्तक)

इस पुस्तक का उद्देश्य राजपूत जाती और उसके द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए एक महान और उज्जवल भविष्य का निर्माण करना है | इस महँ भविष्य की अधर -शिला अतीत और वर्तमान काल का ऐतिहासिक घटना -क्रम रखा गया है | अतीत और वर्तमान काल की सामाजिक मनोवृत्ति , ऐतिहासिक घटनावली और उनके स्वाभाविक वकास-क्रम का सम्यक रूप से दिग्दर्शन कर लेने के उपरांत ही भावी कार्यक्रम की रुपरेखा तयार की जा सकती है | इस लिए अद्याय १,२,३ और ४ में अतीत और वर्तमान की इस विषय से सम्बंधित घटनावली का दर्शन कराया गया है |अध्याय ५ और ६ में वह कच्ची सामग्री है जिसके आधार पर भावी महल का निर्माण होना है | अध्याय ९ में उस आदर्श नेतृत्व के गुणों और विशेषताओं पर विचार किया गया है जिसके द्वारा महान भविष्य का निर्माण संभव है ,तथा अध्याय १० में मार्ग में आने वाली कठिनाइयों और विरोध का महत्वांकन किया गया है | अध्याय ११ और १२ में ध्याय को प्राप्त करने के लिए कुछ रचनात्मक पहलूवों और प्रणाली पर विचार किया गया है |इस प्रकार पुस्तक की समस्त सामग्री इसके वर्ण्य -विषय _ अध्याय ७ और ८ ) के चरों ओर चक्कर कटती हुई किसी न किसी रो में उसी विषय की ओर उन्मुख हुई है |

अध्याय ७ और ८ में राजपूत जाती के कर्तव्य का शास्त्रीय ,राजनैतिक ,आर्थिक ,सामाजिक और सांस्कृतिक दिर्स्तिकों से विवेचन किया गया है |किसी भी जाती के पतन के मूल कारन अपने स्वाभाविक कर्त्तव्य की विश्मृति के रूप में ही देखा जा सकता है | मनुष्य का यही स्वाभाविक कर्तव्य उसका धर्म है |महाभारतकार के सब्दों में -

"धर्म एव हटो हन्ति ,धर्मों रक्षति रक्षितः |
तस्माद्धर्म नाट्य जामि,माँ नो धर्मों हतोव्वाधित ||"


(धर्म ही आहात (परित्यक्त ) होने पर मनुष्य को मरता है और वही रक्षित (पालित ) होने पर रक्षा करता है , अतः मैं ,धर्म का त्याग नहीं करता -इस भय से कही मर (त्यागा हुआ ) हुआ धर्म ,हमारा ही वध न कर डाले |

पिछले सैकड़ों वर्षों से राजपूत जाती के साथ भी ऐसा ही हो रहा है |एक पतोंमुखी जाती को उसके सामाजिक कर्त्तव्य और उसकी सामाजिक उपयोगिता का ज्ञान कराना उत्थान की पहली शर्त है |स्वधर्म -पालन ही हमारा स्वाभाविक कर्तव्य हो सकता है | यही स्वधर्म क्षत्रियों के लिए क्षत्र -धर्म है और इसी क्षत्र -धर्म का पालन करना हमारा सामाजिक कर्त्तव्य है |इसी सामाजिक कर्तव्य की पूर्ति के अंतर्गत सामाजिक ध्याय की प्राप्ति निहित है |

ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाओं का नाम ही क्रांति है| राजनैतिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली राजनैतिक चेष्टाएँ राजनैतिक क्रांति और सामाजिक ध्येय-प्राप्ति के लिए की जाने वाली परिवर्तनकारी चेष्टाएँ सामाजिक क्रांति कहलाती है| क्षात्र-धर्म एक राजनैतिक ध्येय है और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक भी| राजनैतिक ध्येय की प्राप्ति के लिए राजनैतिक क्रांति आवश्यक है, राजनैतिक क्रांति तक पहुंचना और समाज को उसके लिए तैयार करना सरल कार्य नहीं है| राजनैतिक क्रांति के पूर्व, सामाजिक-क्रांति आवश्यक है और सामाजिक-क्रांति के भी पूर्व विचार-क्रांति आवश्यक है, अतएव विचार-क्रांति का प्रथम सोपान है| जो व्यक्ति इन दोनों अवस्थाओं को पार किये बिना ही राजनैतिक-क्रांति का प्रयास करते है, उन्की असफलता निश्चित समझनी चाहिये|

सामाजिक-ध्येय की प्राप्ति के पूर्व सामाजिक को अनुकूल सांचे में ढालना आवश्यक है| सामाजिक जीवन को नये सांचे में ढालने का तात्पर्य है पुराने संस्कारों की भूमिका पर नये सामाजिक संस्कारों का निर्माण करना| नये सामाजिक संस्कारों के निर्माण के पूर्व सामाजिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है| दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की प्रक्रिया का नाम ही विचार अथवा दार्शनिक क्रांति है| अतएव किसी भी प्रकार की सामाजिक-क्रांति का आव्हान करने के पूर्व हमें अपने दृष्टिकोण को सब दिशाओं से हटा कर केवल एक ही केंद्र की और लगा देना चाहिये और वह केंद्र है हमारा ध्येय| राजनैतिक ध्येय के रूप में क्षात्र-धर्म का पालन करने के सिद्धांत को प्रभावशाली और व्यावहारिक बनाने के लिए राज्य-सत्ता की प्राप्ति आवश्यक है| सबसे पहले राज्य-सत्ता की प्राप्ति के लिए जो कार्य करना है वह है केवल राजपूत जाति के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना| प्रत्येक राजपूत को प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान पर, प्रत्येक परिस्थिति में और प्रत्येक कार्य करते समय केवलमात्र यही ध्यान में रखना है कि शासन करना हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है और इसीलिए हमें प्रत्येक संभव वैध उपाय द्वारा राज्य सत्ता पर अधिपत्य करना है| इस प्रकार के दृष्टिकोण के निर्माण की प्रक्रिया का नाम ही विचार-क्रांति है| कहने की आवश्यकता नहीं कि जिस दिन सम्पूर्ण जाति की विचारधारा में इस प्रकार का महत्त्वशाली परिवर्तन आ जायेगा, उसी दिन विचार-क्रांति पूरी होकर सामाजिक और राजनैतिक-क्रांति के लिए अपने आप मार्ग खुल जायेगा| इस समय केवल मात्र अपने दृष्टिकोण को इस ध्येय की और लगाने की आवश्यकता है|

समाज में इसी प्रकार की विचार-क्रांति लाने के लिए यह पुस्तक लिखी गई है|

राजपूत जाति के अब तक के भौतिक अध:पतन और उसकी मानसिक पराजय का पर्यवसान, उसकी आत्म-दुर्बलता और निराशामूलक मनोदशा के रूप में हुआ है| इसी निराशामूलक मनोदशा के परिणाम-स्वरूप पराजित मनोवृति व्यापक रूप से घर कर गई है| वीरता, दृढ़ता, धैर्य, कार्य-शक्ति, प्रयत्न, सच्चाई और महान गुणों के प्रति लोगों का विश्वास उठ रहा है और अवसरवादिता, स्वार्थ-साधन, कायरता, असत्य आदि आत्म-पतनकारी दुर्गुणों का दिनोंदिन समाज में जोर बढ़ रहा है| यह स्थिति वास्तव में ही भयावह है| इससे अनैतिकता की सृष्टि होती है और इसी अनैतिकता से नैतिक पतन आदि सब प्रकार की अधोगति होती है|

इस चतुर्मुखी पतन को रोकना का पहला उपाय है समाज को निश्चित, प्रगतिशील और सब दृष्टियों से कल्याणकारी ध्येय और वास्तविक कर्तव्य का ज्ञान करा देना| यही एक मात्र उपाय है जिसके द्वारा यह चतुर्मुखी पतन रोका जा सकता है| इसी दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए यह पुस्तक लिखी है|

सामाजिक उत्थान और प्रगति का आधार सामाजिक ध्येय ही हो सकता है| बिना ध्येय के सामाजिक प्रगति का प्रयास केवल अँधेरे में भटकने के सदृश निरर्थक है| यह ध्येय जितना व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगा, प्रगति भी उतनी ही व्यापक, महान, गुणकारी, स्थायी और सकारात्मक होगी| इस पुस्तक द्वारा राजपूत जाति को इसी प्रकार के ध्येय का ज्ञान कराने की चेष्टा की गई है|

विषय के अनुरूप ही इस पुस्तक की शैली अधिकांशतया विश्लेषणात्मक हो गयी है, जिससे भाषा कुछ कठिन और अभिव्यक्ति वक्र बन गई है| इस प्रकार के विषय के प्रतिपादन के लिए इसी प्रकार की शैली की आवश्यकता है| फिर भी विषय को अधिक स्पष्ट, ग्राह्य और सरल बनाने की कोशिश भी की गई है| ऐसा करने में कई स्थानों पर पुनरुक्ति भी हुई है, पर साधारण शिक्षित पाठकों की कठिनाई को ध्यान में रखते हुए इस प्रकार की पुनरुक्ति भी आवश्यक समझी गई है| आशा है इन सब कठिनाइयों के लिए पाठक मुझे क्षमा करेंगे|

लेखक राजस्थान के राजनैतिक आर्थिक और सामाजिक वातावरण से अधिक परिचित है| अतएव सामयिक राजनीति आदि विषयों का विवेचन करते समय यहाँ के वातावरण को मुख्य रूप से ध्यान में रखा गया है और यहाँ के वातावरण को ध्यान में रखते हुए ही कई सिद्धांतों को प्रतिपादित किया गया है| यदि अन्य राज्यों में राजपूतों की स्थिति कुछ भिन्न तथा घटना-चक्र का विकास कुछ भिन्न परिस्थतियों और रूपों में हुआ हो तो पाठक कृपया मुझे सूचित करें| अपने इसी अल्प अनुभव को ध्यान में रखते हुए मैंने अपनी समालोचना का आधार राजस्थान के वातावरण को ही मुख्य रूप से बनाया है, तथा यहाँ के जीवन से अधिक उदाहरण दिए है|

इस पुस्तक में वर्णवाद अथवा जातिवाद के आधार पर मुख्य रूप से विकासवाद और घटना-चक्र का विश्लेषण किया गया है| यह सब घटना-चक्र को आसानी से समझाने और इस पुस्तक में वर्णित ध्येय के प्रति अनुकूल शैली का निर्माण करने के लिए किया गया है| अंत में आकर इसी जाति अथवा वर्ण को वर्गवाद के रूप में बदल दिया गया है| यह इसलिए नहीं कि लेखक का वर्गवाद में है, वरन इसलिए कि वर्गवाद का अस्तित्त्व वर्तमान समाज की आवश्यकता हो गई है| अतएव समाज की उपलब्ध सामग्री को ही संवार कर हमें भावी भवन का निर्माण करना है| लेखक का दृढ़ विश्वास है कि सब प्रकार की वर्ग-घृणा को समाप्त कर विशुद्ध वर्ण व्यवस्था की पुनर्स्थापना से ही राष्ट्र का कल्याण हो सकता है| इस उद्देश्य का इस पुस्तक में सर्वत्र ध्यान रखा गया है| इस वर्ण व्यवस्था के रूढिगत दुर्गुणों का परिहार कर उसे अधिक वैज्ञानिक बनाने की आवश्यकता है| इसीलिए इस विषय में जो नवीन कल्पनाएँ की गई है उन्हें शास्त्रों का उलंघन नहीं समझना चाहिये| जो कुछ भी परिवर्तन करना है, वह न केवल नीति वश वरन आवश्यक भी करना है, इसलिए इस परिवर्तन का समर्थन करने वाले वैज्ञानिक और शाश्वत सिद्धांतों को समझने के साथ-साथ आज की राजनैतिक आवश्यकता को भी समझना आवश्यक है|

इस पुस्तक की मूल प्रति लिखे हुए लगभग तीन वर्ष हो चुके है| इन तीन वर्षों में राजपूत जाति की मनोदशा और परिस्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है| यदि यह पुस्तक पहले प्रकाशित हो जाती तो इस परिवर्तन के स्वरूप की रुपरेखा निर्माण करने में काफी सहायता मिलती, पर आर्थिक कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं हो सका| एक दिन दैवयोग से राजस्थान क्षत्रिय-महासभा के अध्यक्ष राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय तथा प्रोफ़ेसर मदनसिंह जी के समक्ष कुं. सवाई सिंह धमोरा ने इस पुस्तक की बात चलाई| तदुपरांत इन दोनों महानुभावों ने इस पुस्तक के कुछ अध्यायों को कुं. सवाईसिंह धमोरा से पढ़वाकर सुना| यह पुस्तक उन्हीं दोनों महानुभावों के परिश्रम, उनकी प्रेरणा, सहायता, विषय-मर्मज्ञता और भावुकता के परिणाम-स्वरूप ही पाठकों के सम्मुख आ सकी है| यही नहीं, राजा साहब श्री कल्याणसिंह जी भिनाय ने तो इस पुस्तक के प्रकाशन का दायित्व भी अपने ऊपर लिया है; वे इस पुस्तक के प्रकाशक है| इनके अतिरिक्त ठा.साहब केसरीसिंह जी पटौदी और ठा.साहब श्री सज्जनसिंह जी देवली ने भी इस पुस्तक के प्रकाशन में महत्त्वपूर्ण योग दिया है| मैं अभी तक यह निर्णय ही नहीं कर सका हूँ कि इन महानुभावों द्वारा मेरे प्रति बताई गई इस सहृदयता और सदभावना का प्रतिकार मैं किस रूप में दूँ| मैं समझता हूँ, प्रतिकार के रूप में इस कृपा के लिए धन्यवाद देना न पर्याप्त है और न ही उचित ही|

इस अवसर पर मैं साधना प्रेस जोधपुर के अनुभवी और कार्यकुशल व्यवस्थापक श्री हरिप्रसादजी पारीक को नहीं भूल सकता| इतने कम समय में और इस रूप में पुस्तक-प्रकाशन का समस्त श्रेय इन्हीं को है|

इस पुस्तक के लिखने में जिन ज्ञात अज्ञात विद्वानों के विचारों से सहायता ली गई है, उन सभी के प्रति मैं अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ|

मैं इस प्रयास में कहाँ तक सफल हुआ हूँ, कह नहीं सकता| इस पुस्तक द्वारा समाज की विचारधारा में यदि तनिक भी क्रांति आ जाये तो अपने परिश्रम को सफल समझूंगा|

कुं.आयुवानसिंह, हुडील
जोधपुर संवत २०१४

Monday, October 21, 2013

समस्या के रचनात्मक पहलू - अंतिम. (राजपूत और भविष्य)

भाग - २ से आगे.....

वर्तमान समय में शिक्षितों और अन्य युवकों में शस्त्र रखने के प्रति जो आलस्य और घृणा की भावना उत्पन्न होने लग गई है वह निस्सन्देह घातक है| शस्त्र रखने में शर्म करना अपने अपने अस्तित्व की सार्थकता के प्रति उपेक्षा करना है| अतएव प्रत्येक राजपूत को हर समय अपने साथ कोई न कोई शस्त्र अवश्य रखना चाहिये और विशेष अवसरों पर विशेष प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर जाना चाहिये| हमें यह कदापि नहीं भूलना चाहिये कि राजपूत और तलवार का साथ अटूट और पवित्र है| यही नहीं, तलवार स्वयं भगवती का रूप है और यदि हम उसकी रक्षा और उसका सम्मान अवश्य करेगी| जिन व्यक्तियों के पास लाइसेंस के शस्त्रास्त्र है उनको उन्हें सदैव अपने पास रखना चाहिये और जिनके पास इस प्रकार के शस्त्रास्त्र नहीं है उनको तलवार अथवा लाठी तो सदैव अपने पास रखनी ही चाहिये| दफ्तरों में काम करने वाले बाबुओं से लगाकर व्यस्क विद्यार्थियों तक को अपने पास छोटा-मोटा शस्त्र अवश्य रखना चाहिये| माता-पिताओं को अपने बालकों में शस्त्र बाँध कर चलने व शस्त्र रखने के संस्कारों का निर्माण करना चाहिये| बालिकाओं और स्त्रियों को भी अपने पास कोई न कोई छोटा शस्त्र रखने की आदत डालनी चाहिये|

जिस प्रकार सदैव शस्त्र रखना आवश्यक है, उसी प्रकार शस्त्रों का प्रयोग जानना भी उतना ही आवश्यक है| शस्त्रास्त्र केवल श्रृंगार और सजावट की वस्तुएं न होकर प्रयोग और व्यवहार की वस्तुएं होनी चाहिये| जिस शस्त्र को हम अपने पास रखें उसको दक्षतापूर्ण ढंग से प्रयोग में लाना भी हमें आना चाहिये| बिना प्रयोग जाने किसी शस्त्र को अपने पास रखना हास्यास्पद ही नहीं वरन प्राणों को संकट में डालना भी है| अभिभावकों को बचपन में ही बच्चों को यथासंभव शस्त्रों का प्रयोग सिखा देना चाहिये|

किसी भी समाजिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए आवश्यक है कि उस समाज का प्रत्येक व्यक्ति आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी और सबल हो| आर्थिक-स्वावलंबन आगे चलकर राजनैतिक स्वतंत्रता और स्वावलंबन को जन्म देता है- राज्य सरकार के कानूनों द्वारा इन वर्षों में राजपूतों की आर्थिक स्थिति पर भीषण प्रहार हुए है| अब तक राजपूतों के पास आर्थिक जीवन को सुरक्षित रखने वाले दो बड़े साधन थे- भूमि और नौकरी| इन दोनों साधनों को प्रभावित करने वाले वातावरण पर चौथे अध्याय में प्रकाश में डाला जा चुका है| इतना सब होते हुए भी राजपूतों के पास आज भी जीवन-निर्वाह का मुख्य साधन भूमि ही है| राजपूतों को भूमि के अतिरिक्त किसी अन्य साधन को स्थायी रूप से अपनाना ही नहीं चाहिये, क्योंकि भूमि से राजपूतों का पवित्र रागात्मक सम्बन्ध रहा है| आज की इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी राजपूतों को सदैव भूपति अथवा भूस्वामी बन कर रहने का ही प्रयास करना चाहिये| जिनके अधिकार में कृषि योग्य पर्याप्त भूमि न हो, उन्हें भूमि प्राप्त करने का अपना प्रयत्न जारी रखना चाहिए|

पर इस कृषि-कर्म में एक सबसे बड़ा खतरा है जिससे हमें सदैव सावधान रहना चाहिये| कृषि कार्य को पूर्णत: अपना लेने से स्वाभाविक क्षात्र-वृति का नाश होता है| तलवार पकड़ने वाले हाथों में हल पकड़ लेने पर तलवार और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा घट जाती है और हल और उसकी शक्ति के प्रति श्रद्धा बढ़ जाती है| तलवार के जीवट-पूर्ण, स्वाभिमानी और खौफनाक जीवन के स्थान पर भाग्यवादी, शांतिमय और हीन हल के जीवन का आरम्भ होता है| इससे क्षात्र-वृति शनै: शनै: वैश्य और शुद्र-वृति में बदल जाती है, रजोगुणी महत्वाकांक्षा और कीर्ति-उपार्जन की इच्छा का स्थान तमोगुणी लोभवृति और अधिक अन्न उपजाने की इच्छा ले लेती है| यही कारण है कि विजयी जाति सदैव से ही विजित जाति के क्षात्र-संस्कारों और वृति को समाप्त करने के लिए उसके हाथों में हल पकड़वाती है| राजपूतों को आज नहरी इलाकों में कृषि के लिए बसाने वाली योजना इसी प्रकार उनकी क्षात्र-वृति को नष्ट करने वाली योजना है| पर जीवनयापन का कोई अन्य उपाय उपलब्ध न होने के कारण हमारे सामने केवल खेती का ही धन्धा रह जाता है| अतएव इस खेती के धंधे को हमें साधनरूप में ही अपनाना है, साध्य रूप में नहीं| हल के साथ तलवार का संयोग कराना है और बलजीवी और श्रमजीवी शक्तियों का एकीकरण करके बलजीवी शक्तियों की ही प्रधानता स्थापित करनी है|

अतएव प्रत्येक राजपूत परिवार को अपने जीवनयापन के लिए मुख्य धंधे के रूप में कृषि को ही स्वीकार करना चाहिये| वस्तुस्थिति भी यही है कि राजपूतों के पास कृषि के अतिरिक्त और कोई धंधा है भी नहीं| पर इस कार्य को करते समय महाजनों के शोषण और रूढिगत कार्यों से सदैव सावधान रहना चाहिये|

आर्थिक दृष्टि से संपन्न राजपूत परिवारों को कृषि की उन्नति और आर्थिक उत्पादन के लिए वैज्ञानिक साधनों का प्रयोग करना चाहिए तथा अपनी संतानों को इस विषय की सर्वोच्च शिक्षा दिलाने की व्यवस्था करनी चाहिये| इस दशा में सरकारी सहायता का स्वागत कर उसे अधिकाधिक रूप में प्राप्त करने की चेष्टा करनी चाहिये| सामूहिक और सहयोगी कृषि-पद्धति को अब आर्थिक महत्त्व देने की आवश्यकता है| इस प्रणाली द्वारा श्रम और पूंजी की बचत होती है और उत्पादन भी अपेक्षाकृत अधिक होता है| साधारण फसलों की अपेक्षा व्यापारिक फसलों के उत्पादन की और अधिक ध्यान देना होगा| जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध नहीं है वहां सावन फसल बहुत अधिक मात्रा में बोनी चाहिये| वर्ष के अवकाश के दिनों में धनोपार्जन अथवा पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कुछ न कुछ करते रहना आवश्यक है| स्त्री समाज की श्रमशक्ति को भी इसी प्रकार उत्पादन के कार्यों में लगाना अब आवश्यक हो गया है, अतएव इस प्रकार की योजनाओं को कार्यान्वित करना आवश्यक है जिससे राजपूत स्त्रियाँ अपनी मर्यादा को सुरक्षित रखती हुई उत्पादन कार्यों में योग दे सके|

कृषि का सहयोगी दूसरा प्रभावशाली और उपादेय धन्धा पशु-पालन है| पशु-पालन की और हमारी रूचि होना आवश्यक है| कारण कि उसने कृषिकार्य में तो महत्त्वपूर्ण योग मिलता ही है पर साथ के साथ वे जीवन-निर्वाह के भी अनन्य साधन है| गाय और भैंस रखना प्रत्येक राजपूत की पारिवारिक आवश्यकता है| गायों और भैंसादि की उचित देख-रेख करना तथा पालन-पोषण और विकास के वैज्ञानिक और सही उपायों से हमारी जानकारी होना आवश्यक है| बैलों के लालन-पालन और उनकी उचित देख-रेख से बहुत अधिक आर्थिक लाभ होने की संभावना रहती है| भेड़-बकरी पालना भी बहुत अधिक लाभदायी है| इनकी नस्लों में सुधार करना तथा नये वैज्ञानिक तरीकों से उनका विकास करना हमें आना चाहिये| पशु-पालन से असंख्य लाभ है और कृषि-कार्य तो उनके बिना सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता| यह बड़ा ही खेद का विषय है कि आर्थिक दृष्टि से भार स्वरूप होने के कारण राजपूतों ने घोड़े पालना और रखना छोड़ दिया है| घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध हजारों वर्ष प्राचीन का है, अतएव थोड़ी सी कठिनाई के आते ही इस सम्बन्ध को भूल कर घोड़ों को घर से बाहर निकाल देना किसी भी दशा में उचित नहीं कहा जा सकता| घोड़ा जाति का जो राजपूतों पर महान उपकार है, उसे भूलकर एकदम कृतध्न हो जाना हमारी परम्परा के विरुद्ध एवं हमारे अस्तित्व के लिए भी महान घातक है| इस प्रश्न को लाभ और हानि की तराजू में न तोलकर विशुद्ध भावनात्मक और दूरदर्शी दृष्टिकोण से देखना चाहिये| जिस प्रकार शस्त्र और राजपूत का अटूट सम्बन्ध है, उसी प्रकार घोड़ों और राजपूतों का भी अभिन्न सम्बन्ध है| क्या कोई आर्थिक विवशता के वशीभूत होकर अपनी संतानों को त्याग देता है ? घोड़ों और राजपूतों का सम्बन्ध भी कुछ इसी प्रकार का है, अतएव जो राजपूत घोड़े रखने में समर्थ है उन्हें अपनी सामर्थ्य के अनुसार अधिक से अधिक घोड़े रखना चाहिये फिर घोड़ा इतना निरुपयोगी पशु भी नहीं है| यदि ठीक ढंग से उनका लालन-पालन किया जाये तो हजारों रूपये प्रति वर्ष उनसे आमदनी भी हो सकती है तथा और भी कई प्रकार से उनको उपयोग में लिया जा सकता है|

दूसरा महत्त्वशाली पशु ऊंट है| यह बैलों से बढ़कर मरुप्रदेश में जीवन-निर्वाह का साधन है| अच्छी नस्ल के ऊंट पालना और रखना बहुत ही उपयोगी व्यवसाय है| ऊंट की उपयोगिता और उस पर मितव्ययिता सर्वविदित है, अतएव ऊँटों के टोले (समूह) रखना और पालना लाभदायक है| जो राजपूत घोड़ा नहीं रख सकता उसे कम से कम एक ऊंट तो अपने घर में अवश्य रखना चाहिये| जो राजपूत इन दोनों पशुओं को एक साथ रख सकते है, वे बड़े भाग्यशाली है|

खेती और पशु-पालन के अतिरिक्त जीवन-निर्वाह का राजपूतों के लिए अन्य प्रभावशाली साधन नौकरी है| गत वर्षों में भारतीय सेना से निष्कासित होने के कारण आज हजारों राजपूत नवयुवक नौकरी की खोज में घूम रहे है| कांग्रेस सरकार का राजपूतों के साथ सौतेली माँ का सा व्यवहार होने के कारण आज के शिक्षित और नौजवान राजपूतों को नौकरी मिलना बहुत कठिन है| फिर भी अपनी योग्यता, रूचि और अवसर के अनुसार राजपूतों को प्रत्येक विभाग में नौकरी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये| अपने परम्परागत संस्कारों के कारण सेना और पुलिस विभागों में वे अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते है| अतएव राजपूतों को सेना में अधिकाधिक संख्या में भर्ती होने का प्रयास करना चाहिये| जिस किसी विभाग में वे जाये- अनुशासन, ईमानदारी, कार्यदक्षता और सच्चरित्रता में उन्हें उच्चाधिकारियों और सहयोगियों के सामने आदर्श रखना चाहिये| उन्हें सदैव ध्यान रखना चाहिये कि वे सब स्थानों पर महान राजपूत-चरित्र का प्रतिनिधित्त्व करते है| अतएव कोई ऐसा कार्य न कर बैठे जिससे उनकी महान परम्परा व जाति पर कलंक लग जाय| उच्च कोटि की कर्तव्यशीलता उनके नौकरी के जीवन का लक्ष्य होना चाहिये| नौकरी के अतिरिक्त भी कई स्वतंत्र और अर्द्ध-स्वतंत्र धंधे ऐसे है जिनसे आज हजारों राजपूत जीवनयापन कर रहे है| व्यापार, वकालत, डाक्टरी आदि इसी प्रकार के धंधे है| इन सब धंधों को करते हुए भी सामाजिक ध्येय की पूर्ति में योग देना प्रत्येक राजपूत का कर्तव्य है| मशीनरी और हुनर-प्रधान धंधों में अब राजपूतों को विशेष रूचि लेनी चाहिये|

नौकरी आदि से जीवनयापन की समस्या हो हल हो जाती है पर यह धंधा स्वेच्छा से अपने कन्धों पर विवशता और दासता की गठरी लादने के समान है| अतएव जो व्यक्ति समाज को अपना जीवन देने का व्रत लेते है उन्हें इन व्यक्तिवादी और उदारवादी धंधों में पड़ कर जीवन-निर्वाह के लिए अन्य धंधों को अपनाना चाहिये|

इस प्रकार हमें पहले अपने जातीय-जीवन को सुरक्षित रखते हुए और उसके माध्यम से सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में कार्य करते हुए सामाजिक जीवन को सबल बनाने की चेष्टा करनी चाहिये| ध्यान रहे, हम पहले अपने घर को व्यवस्थित करके ही आगे बढ़ सकते है|

-: समाप्त :-