Monday, November 12, 2012

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -2

भाग- १ से आगे.....

राजपूत जाति अपने रूढ़िवादी संस्कारों के करण इन्हीं राजाओं को अपना स्वामी और नेता समझती रही| उसने स्वतंत्र रूप से सोचने और कार्य करने की शक्ति को एकदम कुंठित कर दिया| किन्हीं विशेष परिस्थितियों में व्यवहृत और लाभदायक स्वामी-भक्ति की ओट लेकर राजपूत जाति राजाओं की अन्धानुगामी बनी रही| जिस प्रकार राजा लोग अंग्रेज प्रभु शक्ति के प्रति नमनशील होकर उसके उद्देश्य-साधन के लिए औजार बने रहे, उसी प्रकार राजपूत भी राजाओं के की स्वामी-भक्ति विश्वासपात्र बनकर उनके इशारों पर नाचते रहे| इसका वास्तविक अर्थ यह है कि वे जाने या अनजाने में राजाओं के प्रभु अंग्रेजों की नीति को दृढ और कार्य रूप में परिणित करने के साधन बने रहे| न उन्होंने तेजी से घटित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय घटना-चक्र को समझा और न देश की राजनैतिक और सामाजिक क्रांति के प्रति जागरूक रहकर ही यथासमय कोई कार्य किया| केवल विदेशी शक्ति के क्रीत दास बनकर कार्य करते रहना राजपूत नेतृत्व और जाति दोनों के लिए आज कितनी लज्जा की बात हो गई है|

राजाओं के पश्चात द्वितीय श्रेणी का नेतृत्व जागीरदारों और अमीरों के हाथों में रहा| यह नेतृत्व भी सीमित और परिस्थिति सापेक्ष रहा| जिन कुसंस्कारों और दुर्गणों के शिकार राजा लोग थे उन्हीं दुर्गुणों का शिकार यह सामंत-वर्ग रहा और है| जिस प्रकार अंग्रेज राजाओं और सामंतों से, राजा लोग सामंतों और उनके द्वारा साधारण राजपूत और अन्य प्रजा-जनों से तथाकथित प्रभु-भक्ति की आशा रखते थे, इसी भांति यह जागीरदार वर्ग भी साधारण राजपूत और उनके द्वारा अन्य वर्गों से स्वामी-भक्ति की आशा रखता था| इस प्रकार भोले राजपूत समाज के ऊपर न मालूम इन प्रभुओं की कितनी परतें थी| राजपूतों की इस स्वामी-भक्ति रूपी संस्कार जन्य दुर्बलता के कारण योग्यता और दूरदर्शिता को लेकर झोंपडियों से आगे बढ़ने वाले नेतृत्व के लिए मार्ग एकदम अवरुद्ध रहा है| यह राजपूत स्वाभाव की विशेषता है कि राजाओं, जागीरदारों अथवा विदेशियों तक के नेतृत्व को तो स्वीकार कर लेता है पर आर्थिक दृष्टि अपने समान अथवा निम्न श्रेणी से विकसित होने वाले नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता| परिणाम यह होता है कि इस समाज को सदैव अयोग्य नेतृत्व ही मिलता है|

जिस द्वितीय श्रेणी के जागीरदारी नेतृत्व की ऊपर चर्चा की जा चुकी है वह कई दृष्टियों से राजाओं के नेतृत्व से भी कहीं अधिक अयोग्य, सीमित और अल्पदर्शी रहा है| वास्तविकता तो यह है कि निहित स्वार्थप्रधान व्यक्तियों का नेतृत्व सदैव परिस्थिति सापेक्ष रहता है| अपने निहित स्वार्थों की अक्षुणता और सुरक्षा के लिए उन्हें सदैव प्रभु-शक्ति को प्रसन्न रखना पड़ता है| अतएव इस प्रकार का नेतृत्व स्वतंत्र और साहसी कदापि नहीं हो सकता| जागीरदार-वर्ग निहित स्वार्थ प्रधान होने के कारण समाज को साहसी और योग्य नेतृत्व दे ही नहीं सकता| ऐसा नेतृत्व अधिकांशत: विश्वासघाती और अवसरवादी होता है| इस कमी के अतिरिक्त अब तक का जागीरदारी नेतृत्व अहंभाव, स्वार्थी, भीरु, असहिष्णु एवं एकांकी रहा है|
अपने विभिन्न स्वार्थों की पूर्ति के लिए आज अधिकांश अमीर जागीरदार शेष राजपूत समाज की पीठ में छुरा भौंक कर तथा उद्देश्य के प्रति विश्वासघात करके सम्पूर्ण राजपूत जाति की पीठ में छुरा भौंक कर तथा उसके उद्देश्य के प्रति विश्वासघात करके सम्पूर्ण राजपूत जाति के प्रति आततायी सत्तारूढ़ दल में जाकर मिल गएँ है| उन्होंने राजपूत संगठन में कठिनता से पाटी जाने वाली दरारें उत्पन्न कर दी है| वे आज अपनी शक्ति, साधनों और दौड़ धूप द्वारा विरोधियों को मजबूत और स्वजनों को कुचलने में तल्लीन है| राजपूत संगठन में वे आज सबसे अधिक बाधक और घातक है| इस प्रकार स्वार्थी, नीच, जाति-द्रोही और अवसरवादी लोगों को मार्ग में से हटाकर आगे बढ़ने के लिए विशेष प्रयत्न और सूझ की आवश्यकता है| उन्हें रूपांतरित होना पड़ेगा नहीं तो उनके प्रभाव को समूल नष्ट करके उनके महत्त्व को ही समाप्त करना पड़ेगा| कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी प्रकार के नेतृत्व के पंजे में फंसने के कारण आज राजपूत जाति की यह अधोगति हुई है|

राजपूत जाति का तीसरे प्रकार का नेतृत्व मध्यवर्गीय शिक्षित लोगों का कहा जा सकता है| इस प्रकार के नेतृत्व में भी मोटे रूप से दो त्रुटियाँ है| प्रथम तो यह कि अभावग्रस्त परिस्थितियों में शिक्षित और पोषित होने के कारण ये लोग कालांतर में धनोपार्जन के पीछे इतनी बुरी तरह से पड़ जाते है कि जिससे उनका दृष्टिकोण एकदम व्यक्तिवादी और एकांकी बन जाता है| उचित नैतिक-शिक्षा और समाज-चरित्र के आभाव में इस प्रकार के व्यक्तियों के पग-पग पर पथभ्रष्ट होने अवसरवादी बनने के अवसर बने ही रहें है| ऐसे व्यक्ति अनुकूल अवसर आते ही समाज की पीठ में छुरा भौंक कर व्यक्तिगत स्वार्थ-पूर्ति की और उन्मुख हो सकते है| दूसरा आज का अधिकांश शिक्षित वर्ग असामाजिक दृष्टिकोण को लिए हुए है| वह आज स्वयं के लिए जीता, कमाता और कार्य करता है| इस प्रकार के स्वजीवी और व्यक्ति प्रधान मनोवृति वाले व्यक्तियों से नेतृत्व किसी भी दशा में नहीं हो सकता| समाज को ऐसे नेतृत्व से भी सावधान रहना चाहिए|

जो शिक्षित वर्ग अपने त्यागमय संस्कारों के कारण सामाजिक दृष्टिकोण को आगे लेकर बढ़ना चाहता है उसके मार्ग में दो कठिनाइयाँ विशेष रूप से आती है; साधन-विहीनता और राजपूत जाति की संस्कारजन्य दुर्बलताएँ| समाज के उचित पथ-प्रदर्शन के लिए योग्यता के बाद दूसरी शर्त यह है कि पथ-प्रदर्शक स्वयं आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो| आर्थिक परावलम्बन आत्म-लघुत्व की हीन भावना के साथ परिस्थिति-सापेक्षता को भी जन्म देता है| योग्य नेतृत्व के लिए ये दोनों ही परिस्थितियां घातक है| यदि पहले आर्थिक स्वावलम्बन का प्रयास किया जाता है तो उसकी कोई निश्चित अवधि नहीं है| साथ के साथ भावुक और स्वाभिमानी व्यक्ति समाज की दुर्दशा को देखते हुए निस्पृह होकर धनोपार्जन में नहीं लग सकता| यदि बिना आर्थिक स्वावलम्बन के कार्य किया जाता है तो कई प्रकार की व्यक्तिगत और कौटुम्बिक कठिनाइयों से साक्षात्कार करना पड़ता है| दूसरी व्यावहारिक कठिनाई यह है कि एक साधारण श्रेणी के राजपूत के नेतृत्व को अधिकांश जागीरदार और संपन्न श्रेणी के व्यक्ति मिथ्याभिमान के कारण स्वीकार नहीं करते| वे अपने प्रभाव को समाज में सुस्थिर रखने के लिए कभी स्वयं और कभी विरोधियों के हाथों का खिलौना बनकर सदैव षड्यंत्र करते रहते है| इस प्रकार के षड्यंत्रों से समाज के स्वस्थ जीवन और उसकी प्रगति में बाधाएं उपस्थित हो जाती है और समाज के सामने अनिर्णायक दुविधामुलक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है|

क्रमश:...............

Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

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