Thursday, November 1, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -8

भाग सात से आगे.... जब सामाजिक ढांचा विश्रंखलित और अस्त व्यस्त हो जायेगा तब अब तक के समस्त रीती-रिवाज, रहन-सहन, व्यवहार आदि के तरीकों में भी आमूल परिवर्तन आ जायेगा| सामाजिक आदर्श और मान्यताएं बदलकर नवीन प्रकारों को जन्म देंगी| सामाजिक ढांचे का यह परिवर्तन अनियंत्रित परिस्थितियों के हाथों में होगा| इस प्रकार अनियंत्रित परिस्थितियों और तत्वों द्वारा लाया गया वह विवशतापूर्ण और बलात परिवर्तन निश्चित उद्देश्य सहित की गयी सामाजिक क्रांति का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता| इस परिवर्तन के उपरांत निर्मित होने वाला समाज निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वथा अयोग्य और पंगु होगा| समाज के इन्हीं आदर्शों और मान्यताओं के व्यवाहारिक स्वरूप द्वारा संस्कृति निर्मित होती है, अतएव राजपूत समाज का भौतिक और व्यवाहारिक ढांचा एकदम बदल जायेगा| प्राचीन संस्कृति समाप्त होगी और नवीन संस्कृति का कालांतर में विकास होगा| यह नव-विकसित संस्कृति कैसी भी भी क्यों न हो पर वह राजपूत संस्कृति कदापि नहीं होगी| एक और तो राजपूत संस्कृति की यह अधोगति ऊपर वर्णित आर्थिक और राजनैतिक कारणों से स्वत: होगी, दूसरी और सप्रयास इस संस्कृति को विकृत और नष्ट करने की योजना काम लाई जायेगी| परिणाम यह होगा कि भविष्य में राजपूत संस्कृति नाम की पृथक अस्तित्ववान वस्तु शेष न रहेगी|

इन सप्रयास कार्यों में प्रथम श्रेणी में वे कार्य आते है जो हिंदी-संस्कृति के मूल पर आघात करके उसे समाप्त करने जा रहे है| आज सुधारवाद की ओट में हिंदी-समाज व्यवस्था, संस्कारों और आदर्शों को प्रभावित करने वाले कानून हिन्दू-समाज के आधारभूत सिद्धांतों को समाप्त करने वाली है| जब हिन्दू-संस्कृति ही इस प्रकार से विकृत और कुरूप हो जायेगी तब राजपूत संस्कृति के बचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि राजपूत संस्कृति तो महान हिन्दू संस्कृति का ही एक विशिष्ट और विकसित अंग मात्र है| हिंदी समाज के सामाजिक ढांचे की विश्रंखलता में राजपूत समाज के ढांचे की विश्रंखलता उसी प्रकार अन्तर्निहित है जिस प्रकार मूल के विनाश में सम्पूर्ण वृक्ष का विनाश| दूसरी और हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत राजपूत संस्कृति, साहित्य, कला आदि की जो विशिष्टताएँ है उनको यह बुद्धिजीवी-वर्ग योजना-बढ कार्यक्रम बनाकर समाप्त कर रहा है| प्रचार और प्रकाशनों द्वारा इतिहास के उन स्थलों पर जहाँ राजपूतों को महत्ता मिलती है, या तो पर्दा डाल दिया जाता है, या उन्हें तोड़-मरोड़ और विकृत करके पाठकों के सामने रखा जाता है| राजपूतों के महान ऐतिहासिक कार्यों को सामंतशाही के कारनामें बताकर उनके प्रति लोगों में घृणा उत्पन्न कराई जाती है| राजपूत चरित्र की कालिमा को अतिरंजित करके चित्रित किया जाता है| यह सब इसलिए कि देश के युवकों और बच्चों के अपरिपक्व मस्तिष्कों में इस संस्क्तिती की श्रेष्ठता के प्रति सम्मान और श्रद्धा से संस्कार जमने न पायें|

पर आज इस बुद्धिजीवी-वर्ग का सबसे बड़ा अपराध उसके वे समस्त कार्य है जो राजपूतों को नैतिक पतन के गड्ढे में डालने के लिए किये जा रहे है| एक और उनकी पैतृक सम्पत्ति पर प्रहार किया गया है, दूसरी और उनके तथाकथित नेताओं द्वारा राजपूत जाति को अपनी कार्यसिद्धि के लिए साधन रूप में प्रयुक्त करने का प्रयास किया जा रहा है| राजपूत जाति के कतिपय अवसरवादी नीच और घृणित व्यक्तियों को नाना-प्रकार के प्रलोभन देकर उनके द्वारा जाति की पीठ में छुरा भौंकने का कार्य कराया जा रहा है| एक और इन फूट के कीटाणुओं को हर प्रकार से प्रोत्साहन दिया जा रहा है तथा दूसरी और जो व्यक्ति विरोधियों के इन नीच और कमीने हथकंडों से सावधान है तथा जनता को सचेत करते रहना चाहते है, उनका हर प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है| यह स्थिति केवल राजस्थान की ही नहीं है, वरन सौराष्ट्र, मध्यभारत आदि स्थानों पर भी है| अब तक शांति और व्यवस्था बनाये रखने तथा डाकुओं के दमन के नाम पर पुलिस द्वारा जो नृशंस अत्याचार राजपूतों पर कराये गए है, उनकी कहानी अत्यंत दुखद और लम्बी है | राजपूतों का सामाजिक और व्यक्तिगत अपमान करना, उनमें फूट डालकर उनका राजनैतिक शोषण करना आदि आज दैनिक जीवन की साधारण घटनाएँ बन गयी है| इन बुद्धिजीवी तत्वों द्वारा गांवों की निम्न जातियों में राजपूतों के प्रति घृणा और प्रतिशोध की भावना जागृत करने के कारण आज अल्पसंख्यक राजपूतों का स्वाभिमान और सम्मान के साथ गांवों में रहना दुष्कर हो गया है|

एक और तो राजनैतिक प्रभुत्व समाप्त हो जाने के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से राजपूत जाति का वैसे ही आत्म-पतन हुआ है, दूसरी और इस प्रकार के सप्रयास किये जाने वाले कार्यों के कारण इस पतन की रात-दिन वृद्धि होती जा रही है| आज सबसे बड़ी और प्राथमिक आवश्यकता यही है कि राजपूत समाज के नैतिक-स्तर को और अधिक गिरने से बचाया जाय| इस प्रकार आज भारत की सम्पूर्ण राजपूत जाति राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक आदि सभी क्षेत्रों में मौत के मुंह में प्रवेश कर गयी है और उसने सत्तालोलुप बुद्धिजीवियों की प्रभुत्व-स्थापन की चिर-अभिलाषा की पूर्ति के लिए मनोवांछित अवसर प्रस्तुत कर दिया है| यदि इस समय समयानुकूल भागीरथ प्रयत्न द्वारा शीघ्र ही योजनाबद्ध रूप से कुछ नहीं किया गया तो राजपूत जाति, इतिहास, साहित्य, कला, संस्थाएं, परम्पराएं, संस्कृति आदि भावी युग में विगत इतिहास की केवल सामग्री मात्र बन कर रह जायेगी| सूर्य और चन्द्र वंश का गौरव राख के सूक्षम कणों में परिवर्तित होकर अस्तित्वहीन निराकार स्मृति मात्र बन कर रह जावेगा और भावी पीढियां अपने पूर्वजों की वंशावली बताने में लज्जित और असमर्थ होंगी|

"राजपूत और भविष्य" पुस्तक का "मौत के मुंह में" अध्याय समाप्त|




Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

1 comment:

  1. १९५७ मांय लिख्योड़ौ एक एक सबद अक्षरस: साच साबत हुयौ. दिन दिन राजपुत (राजस्थानी) संस्कृती रौ पतन हुवै है... म्हें धकला भाग तौ नीं बांच्या पण इण भाग सूं अंदाजौ लगा सकूं. धकला भाग बांचण वास्तै घणी उतावळ लागै है अर बेगा ईं बांच’र दूजी टिपां मांडूला.

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