Monday, November 12, 2012

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -3

भाग-२ से आगे....

इन सब परिस्थितियों में राजपूत के नेतृत्व का प्रश्न एक अत्यंत ही जटिल समस्या है| इस कमी की पूर्ति सफलता के प्रथम सोपान की प्राप्ति है| सफल नेतृत्व की कसौटी के विषय में इसी पुस्तक में आगे विचार किया गया है, अतएव यहाँ अब दूसरी आंतरिक कमजोरियों की और ध्यान देना आवश्यक है|

राजपूतों के सामाजिक ढांचे की बनावट में एक मूलभूत कमजोरी रह गई, जिसके कारण एक राष्ट्र की सब विशेषताएँ होते हुए भी उन्होंने एक राष्ट्र के रूप में साम्राज्य-स्थापना का प्रयास मध्यकाल और मध्यकाल में कभी नहीं किया| यह मूलभूत कमजोरी थी उपजातियों (Clans) और उनके वंशानुगत नेताओं (राजाओं) को अधिक महत्व देना| राठौड, चौहान, सिसोदिया, कछवाह आदि खांपें अपने वंशानुगत नेताओं के नेतृत्व में परस्पर में लड़ती रही जिससे राजपूत राष्ट्र के जीवन-तंतु कालांतर में शिथिल पड़ मुर्झा गए| एक राष्ट्र, एक नेता के स्थान के स्थान पर अनेक उपजातियां, अनेक नेता होने के कारण उनके राजनैतिक स्वार्थों में भी अनेकता उत्पन्न हो गई, जिसके परिणाम स्वरुप एक ध्येय के स्थान पर परस्पर विरोधी अनेकों क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति का प्रयास होने लगा| इसी ध्येय और एक नेतृत्व के आभाव में, उच्चकोटि की वीतरा और त्याग के होते हुए भी राजपूत अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर सके|

अनेक सामानांतर नेतृत्वों में कोई भी कूटनीतिक अथवा राजनैतिक चाल सफल नहीं हो सकती, न किसी भी प्रकार का समझौता अथवा संधि ही की जा सकती है और न सामान्य ध्येय की पूर्ति ही संभव है| राजपूतों में आज भी राजनीति और कूटनीति का आभाव नहीं है पर उनका नेतृत्व कई स्थानों और टुकड़ों में बंटा हुआ है, इसीलिए उनका कोई भी कूटनीतिक कार्य सफल नहीं हो सकता| हमें अब इन उपजातियों की श्रेष्ठता के स्थान पर सम्पूर्ण राजपूत-राष्ट्र की श्रेष्ठता को आगे लाना है| वैवाहिक संबंधों के अतिरिक्त अब राठौड़, चौहान, कछवाह, सिसोदिया आदि के रूप में न सोचकर केवल एक महान राजपूत जाति के रूप में ही सोचना चाहिए| और विभिन्न वंशानुगत नेतृत्वों के स्थान पर सिद्धांतों और योग्यता के आधार पर केवल एक ही नेतृत्व स्वीकार करना चाहिए| एक नेता, एक ध्येय, एक राष्ट्र, एक जाति की उदात्त और सात्विक भावना ही हमें ऊपर उठा सकती है| उपजातियों और नेतृत्व के आधार पर राजपूत राष्ट्र को विभाजित करने वाले सब तत्वों और प्रयासों का सतर्कता और दृढ़ता-पूर्वक विरोध होना चाहिए|

राजपूतों की इस आंतरिक कमजोरी का कारण उनकी अहम्प्रधान मनोवृति रही है| यह अहं व्यक्तिगत बड़प्पन की भावना से लगातार कुलगत और स्वजातीय बड़प्पन की विकृत भावना तक पहुँच गया| इसी व्यक्तिगत अहं के कारण राजपूत जाति में सामाजिक अनुशासन और दृष्टिकोण का अभाव रहा है| सौभाग्य की बात यह रही कि यह मनोवृति अधिकतर बड़े जागीरदारों और अमीर वर्ग में ही रही है| इसी मनोवृति के कारण जागीरदारों का नि:स्वार्थ और वास्तविक संगठन कभी हो नहीं सकता| इस कुलगत अहं का आधार कुछ ऐतिहासिक और अर्ध-ऐतिहासिक धारणाएं और बहुत कुछ ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति अज्ञानता तथा घटनाचक्र को समझने की अक्षमता रही है| इस कुल अथवा वंश की श्रेष्ठता का मिथ्याभिमान होने के कारण सब राजपूत राज्य एक ध्वज के नीचे संगठित होकर सामूहिक रूप में किसी भी नीति का अनुसरण नहीं कर सके| चापलूसों और कई स्वार्थी कवियों ने भी इसी कुल-श्रेष्ठता के मिथ्याभिमा बहुत कुछ उकसाया है| अपने आश्रय दाताओं के कुलों को सर्वश्रेष्ठ तथा दूसरे राजपूतों के कुलों को निम्नतर और हल्का बताकर पृथकतामूलक भावनाओं को प्रोत्साहन देना एक जघन्य सामाजिक अपराध है| अब समय आ गया है कि राजपूतों में इस प्रकार की पृथकता और वैमनस्यमूलक भावनाओं का सर्वथा अंत होना चाहिए और इस व्यक्तिगत और कुलगत अहं को स्वाभिमान की सात्विक भावना में बदल देना चाहिए|

राजपूतों की अहं-प्रधान मनोवृति उनके कई चारित्रिक दुर्गुणों के लिए उतरदायी है| इस मनोवृति का निकटतम सम्बन्ध स्वार्थ की मनोवृति से है| दोनों मनोवृतियों के संयोग के कारण कई प्रकार के पतनकारी दुर्गुणों का व्यक्ति में जन्म होता है| इसी प्रकार का एक दुर्गुण है तमोगुणी व्यक्तिवाद| यह तमोगुणी व्यक्तिवाद लगभग एक हजार वर्ष से राजपूत चरित्र को कुलषित करता आया है| इसी तमोगुणी व्यक्तिवाद-प्रधान दृष्टिकोण के कारण एक राजपूत अपने क्षुद्र-स्वार्थों की पूर्ति के लिए दूसरे राजपूत का गला काटने के लिए तैयार हो जाता है| यही नहीं, वह शत्रुओं के हाथों की कठपुतली बनकर, स्वजाति, स्वधर्म, स्वराष्ट्र को पराजित, अपमानित और परतंत्र करने को सक्रीय योग देता है| मध्य युग में इस तमोगुणी व्यक्तिवाद का और भी विकास हुआ है| मुसलमानों की लक्ष्यपूर्ति में साधन बनकर जिन अधम राजपूतों ने स्वधर्म, स्वजाति और स्वराष्ट्र के साथ विश्वासघात किया, उनके कारण समस्त राजपूत जाति के उज्जवल भाल पर कालिमा का अमिट कलंक लग गया| आज भी इस प्रकार के नारकीय कीड़ों की राजपूत समाज में कमी नहीं है जो विरोधियों के हाथों में खिलौना बनकर अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति हेतु सद्प्रयत्नों का विरोध करते है| न केवल वे विरोध ही करते है पर पंच-मार्गी बनकर राजपूत जाति की कमजोरियों और विवशताओं का भी निर्लज्जतापूर्वक विरोधियों के समक्ष उद्घाटन करते है तथा अपनी सेवाओं को राजपूतों को कुचलने के लिए अर्पण करते है| इस युग में नाना प्रकार के प्रलोभनों तथा चरित्र निर्माण की शिक्षा और संस्कारों के अभाव के कारण यह प्रकृति और भी अधिक बढती हुई दिखाई दे रही है|

संगठित राजपूत शक्ति सदैव से ही अजेय है मेरा तो यह दृढ विश्वास है कि आज भी वह अजेय है| पर इस शक्ति को घर का भेदी राजपूत ही तोड़ सकता है| भूतकाल में भी ऐसा ही हुआ, और वर्तमान में भी ऐसा ही होगा| आज एक राजपूत अन्य किसी भी राजपूत के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता है; एक राजपूत द्वारा राजपूतों की कितनी ही हानि कराई जा सकती है| मेरा तो विश्वास है कि राजपूतों की हानि राजपूतों की सहायता और सहयोग के बिना हो ही नहीं सकती| एक अंग्रेज, अंग्रेज जाति के स्वार्थों के विरुद्ध कभी भी प्रयुक्त नहीं किया जा सकता| यही दशा मुसलमानों और अन्य संसार की जीवित जातियों की है पर यह कितने आश्चर्य और लज्जा की बात है कि राजपूत अपने जातिय हितों और आदर्शों के विरुद्ध प्रयुक्त किया जा सकता है| ऐसे ही व्यक्ति स्वार्थ और क्षुद्राकांक्षाओं के वशीभूत होकर राजपूत-राष्ट्र और जाति में सदैव फूट की स्थिति बनाये रखते है|

स्वजाति, स्वधर्म और स्वराष्ट्र के विरुद्ध विरोधी शक्तियों का साधन बनकर कार्य करना उतना ही नीचता और पाप-पूर्ण कार्य है जितना स्वयं अपनी माता के साथ व्यभिचार करना तथा उसे विरोधियों के हाथों में व्यभिचार के लिए सौंप देना| राजपूत जाति को इस प्रकार के अधम जाति-द्रोही और पापी व्यक्तियों को कभी भी क्षमा नहीं करना चाहिए| आवश्यकता इस बात की है कि राजपूत चरित्र के इस कालिमामय अंश तमोगुणी व्यक्तिवाद को संस्कारों द्वारा सतोगुणी जातिय-भाव में बदला जाय|

जिस प्रकार व्यक्तिगत और वंशानुगत श्रेष्ठता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ उसी भांति वर्तमान युग में राज्य अथवा स्थानगत श्रेष्ठता की भावना भी दिखाई देने लग गई है| अमुक राज्य के व्यक्ति श्रेष्ठ और अमुक राज्य के निकृष्ट, अमुक स्थान के व्यक्ति वीर और अमुक स्थान के कायर होते है, आदि क्षेत्रीय-श्रेष्ठता की मिथ्या भावना के कारण भी संगठन को धक्का पहुंचने की सम्भावना है| इस प्रकार की विषैली भावना का शीघ्र ही परित्याग आवश्यक है|

क्रमश:.................

Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -2

भाग- १ से आगे.....

राजपूत जाति अपने रूढ़िवादी संस्कारों के करण इन्हीं राजाओं को अपना स्वामी और नेता समझती रही| उसने स्वतंत्र रूप से सोचने और कार्य करने की शक्ति को एकदम कुंठित कर दिया| किन्हीं विशेष परिस्थितियों में व्यवहृत और लाभदायक स्वामी-भक्ति की ओट लेकर राजपूत जाति राजाओं की अन्धानुगामी बनी रही| जिस प्रकार राजा लोग अंग्रेज प्रभु शक्ति के प्रति नमनशील होकर उसके उद्देश्य-साधन के लिए औजार बने रहे, उसी प्रकार राजपूत भी राजाओं के की स्वामी-भक्ति विश्वासपात्र बनकर उनके इशारों पर नाचते रहे| इसका वास्तविक अर्थ यह है कि वे जाने या अनजाने में राजाओं के प्रभु अंग्रेजों की नीति को दृढ और कार्य रूप में परिणित करने के साधन बने रहे| न उन्होंने तेजी से घटित होने वाली अंतर्राष्ट्रीय घटना-चक्र को समझा और न देश की राजनैतिक और सामाजिक क्रांति के प्रति जागरूक रहकर ही यथासमय कोई कार्य किया| केवल विदेशी शक्ति के क्रीत दास बनकर कार्य करते रहना राजपूत नेतृत्व और जाति दोनों के लिए आज कितनी लज्जा की बात हो गई है|

राजाओं के पश्चात द्वितीय श्रेणी का नेतृत्व जागीरदारों और अमीरों के हाथों में रहा| यह नेतृत्व भी सीमित और परिस्थिति सापेक्ष रहा| जिन कुसंस्कारों और दुर्गणों के शिकार राजा लोग थे उन्हीं दुर्गुणों का शिकार यह सामंत-वर्ग रहा और है| जिस प्रकार अंग्रेज राजाओं और सामंतों से, राजा लोग सामंतों और उनके द्वारा साधारण राजपूत और अन्य प्रजा-जनों से तथाकथित प्रभु-भक्ति की आशा रखते थे, इसी भांति यह जागीरदार वर्ग भी साधारण राजपूत और उनके द्वारा अन्य वर्गों से स्वामी-भक्ति की आशा रखता था| इस प्रकार भोले राजपूत समाज के ऊपर न मालूम इन प्रभुओं की कितनी परतें थी| राजपूतों की इस स्वामी-भक्ति रूपी संस्कार जन्य दुर्बलता के कारण योग्यता और दूरदर्शिता को लेकर झोंपडियों से आगे बढ़ने वाले नेतृत्व के लिए मार्ग एकदम अवरुद्ध रहा है| यह राजपूत स्वाभाव की विशेषता है कि राजाओं, जागीरदारों अथवा विदेशियों तक के नेतृत्व को तो स्वीकार कर लेता है पर आर्थिक दृष्टि अपने समान अथवा निम्न श्रेणी से विकसित होने वाले नेतृत्व को स्वीकार नहीं करता| परिणाम यह होता है कि इस समाज को सदैव अयोग्य नेतृत्व ही मिलता है|

जिस द्वितीय श्रेणी के जागीरदारी नेतृत्व की ऊपर चर्चा की जा चुकी है वह कई दृष्टियों से राजाओं के नेतृत्व से भी कहीं अधिक अयोग्य, सीमित और अल्पदर्शी रहा है| वास्तविकता तो यह है कि निहित स्वार्थप्रधान व्यक्तियों का नेतृत्व सदैव परिस्थिति सापेक्ष रहता है| अपने निहित स्वार्थों की अक्षुणता और सुरक्षा के लिए उन्हें सदैव प्रभु-शक्ति को प्रसन्न रखना पड़ता है| अतएव इस प्रकार का नेतृत्व स्वतंत्र और साहसी कदापि नहीं हो सकता| जागीरदार-वर्ग निहित स्वार्थ प्रधान होने के कारण समाज को साहसी और योग्य नेतृत्व दे ही नहीं सकता| ऐसा नेतृत्व अधिकांशत: विश्वासघाती और अवसरवादी होता है| इस कमी के अतिरिक्त अब तक का जागीरदारी नेतृत्व अहंभाव, स्वार्थी, भीरु, असहिष्णु एवं एकांकी रहा है|
अपने विभिन्न स्वार्थों की पूर्ति के लिए आज अधिकांश अमीर जागीरदार शेष राजपूत समाज की पीठ में छुरा भौंक कर तथा उद्देश्य के प्रति विश्वासघात करके सम्पूर्ण राजपूत जाति की पीठ में छुरा भौंक कर तथा उसके उद्देश्य के प्रति विश्वासघात करके सम्पूर्ण राजपूत जाति के प्रति आततायी सत्तारूढ़ दल में जाकर मिल गएँ है| उन्होंने राजपूत संगठन में कठिनता से पाटी जाने वाली दरारें उत्पन्न कर दी है| वे आज अपनी शक्ति, साधनों और दौड़ धूप द्वारा विरोधियों को मजबूत और स्वजनों को कुचलने में तल्लीन है| राजपूत संगठन में वे आज सबसे अधिक बाधक और घातक है| इस प्रकार स्वार्थी, नीच, जाति-द्रोही और अवसरवादी लोगों को मार्ग में से हटाकर आगे बढ़ने के लिए विशेष प्रयत्न और सूझ की आवश्यकता है| उन्हें रूपांतरित होना पड़ेगा नहीं तो उनके प्रभाव को समूल नष्ट करके उनके महत्त्व को ही समाप्त करना पड़ेगा| कहने की आवश्यकता नहीं है कि इसी प्रकार के नेतृत्व के पंजे में फंसने के कारण आज राजपूत जाति की यह अधोगति हुई है|

राजपूत जाति का तीसरे प्रकार का नेतृत्व मध्यवर्गीय शिक्षित लोगों का कहा जा सकता है| इस प्रकार के नेतृत्व में भी मोटे रूप से दो त्रुटियाँ है| प्रथम तो यह कि अभावग्रस्त परिस्थितियों में शिक्षित और पोषित होने के कारण ये लोग कालांतर में धनोपार्जन के पीछे इतनी बुरी तरह से पड़ जाते है कि जिससे उनका दृष्टिकोण एकदम व्यक्तिवादी और एकांकी बन जाता है| उचित नैतिक-शिक्षा और समाज-चरित्र के आभाव में इस प्रकार के व्यक्तियों के पग-पग पर पथभ्रष्ट होने अवसरवादी बनने के अवसर बने ही रहें है| ऐसे व्यक्ति अनुकूल अवसर आते ही समाज की पीठ में छुरा भौंक कर व्यक्तिगत स्वार्थ-पूर्ति की और उन्मुख हो सकते है| दूसरा आज का अधिकांश शिक्षित वर्ग असामाजिक दृष्टिकोण को लिए हुए है| वह आज स्वयं के लिए जीता, कमाता और कार्य करता है| इस प्रकार के स्वजीवी और व्यक्ति प्रधान मनोवृति वाले व्यक्तियों से नेतृत्व किसी भी दशा में नहीं हो सकता| समाज को ऐसे नेतृत्व से भी सावधान रहना चाहिए|

जो शिक्षित वर्ग अपने त्यागमय संस्कारों के कारण सामाजिक दृष्टिकोण को आगे लेकर बढ़ना चाहता है उसके मार्ग में दो कठिनाइयाँ विशेष रूप से आती है; साधन-विहीनता और राजपूत जाति की संस्कारजन्य दुर्बलताएँ| समाज के उचित पथ-प्रदर्शन के लिए योग्यता के बाद दूसरी शर्त यह है कि पथ-प्रदर्शक स्वयं आर्थिक दृष्टि से स्वावलंबी हो| आर्थिक परावलम्बन आत्म-लघुत्व की हीन भावना के साथ परिस्थिति-सापेक्षता को भी जन्म देता है| योग्य नेतृत्व के लिए ये दोनों ही परिस्थितियां घातक है| यदि पहले आर्थिक स्वावलम्बन का प्रयास किया जाता है तो उसकी कोई निश्चित अवधि नहीं है| साथ के साथ भावुक और स्वाभिमानी व्यक्ति समाज की दुर्दशा को देखते हुए निस्पृह होकर धनोपार्जन में नहीं लग सकता| यदि बिना आर्थिक स्वावलम्बन के कार्य किया जाता है तो कई प्रकार की व्यक्तिगत और कौटुम्बिक कठिनाइयों से साक्षात्कार करना पड़ता है| दूसरी व्यावहारिक कठिनाई यह है कि एक साधारण श्रेणी के राजपूत के नेतृत्व को अधिकांश जागीरदार और संपन्न श्रेणी के व्यक्ति मिथ्याभिमान के कारण स्वीकार नहीं करते| वे अपने प्रभाव को समाज में सुस्थिर रखने के लिए कभी स्वयं और कभी विरोधियों के हाथों का खिलौना बनकर सदैव षड्यंत्र करते रहते है| इस प्रकार के षड्यंत्रों से समाज के स्वस्थ जीवन और उसकी प्रगति में बाधाएं उपस्थित हो जाती है और समाज के सामने अनिर्णायक दुविधामुलक परिस्थिति उत्पन्न हो जाती है|

क्रमश:...............

Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

Friday, November 2, 2012

राजपूत और भविष्य : अंतरावलोकन -1

राजपूत जाति के पतन के कारणों पर एक पक्षीय विचार हम गत अध्याय में कर चुकें है| विपक्षी हमारे विनाश के लिए कितने उतरदायी है और हम स्वयं अपने विनाश के लिए कितने उत्तरदायी है, समस्या के इन दोनों पहलुओं पर सम्यक रीती के विचार करने पर ही हम अपने पतन के वास्तविक कारणों को समझने में पूर्ण समर्थ हो सकेंगे| वास्तव में विपक्षी शक्तियां वहीँ प्रहार करती है जहाँ कंजोरी पहले से विधमान होती है| कमजोरी पर किया गया प्रहार ही मनोवांछित फलदायी होता है| इसके विपरीत, जहाँ कोई कमजोरी ही नहीं होती वहां विरोधी शक्ति का प्रहार व्यर्थ हो जाता है| हमारे विरोधियों को प्राप्त सफलता ही हमारी स्वयं की अपूर्णताओं और कमजोरियों का ठोस और प्रत्यक्ष प्रमाण है| वास्तव में किसी राष्ट, समाज अथवा जाति के पतन के कारण उनके स्वयं के भीतर ही निहित होते है| विरोधी तो केवल उन्हीं कारणों का लाभ मात्र उठाते है| बाहरी शक्ति किसी भी अन्य शक्ति का नाश नहीं कर सकती| वह तो केवल उस नाश के लिए निमित्त मात्र बनती है| अत: हमें पतन के कारणों को ढूंढने के लिए केवल विरोधियों को ही न कोसना चाहिये, वरन स्वयं अन्तरावलोकन और आत्म-निरिक्षण करके समझना चाहिये कि हमारी वे कौन-सी आंतरिक कमजोरियां है, जिनके कारण हमें पतन का महा-विषैला फल आज चखना पड़ रहा है|

राजपूत जाति की प्रथम और मुख्य आंतरिक कमजोरी उसका अब तक का अयोग्य और अदूरदर्शी नेतृत्व रहा है| योग्य नेतृत्व के स्वरूप और गुणों पर हम एक पृथक अध्याय में चर्चा करेंगे| यहाँ तो केवल राजपूत समाज के वर्तमान नेतृत्व की प्रकृति और स्वरूप का ही विश्लेषण किया जायेगा|

राजपूतों की समाज-व्यवस्था में संसार की अन्य वीर जातियों की समाज-व्यवस्था की भांति एकचालकानुवर्तित की मान्यता आदि काल से चली आ रही है| राजतंत्र एकवंशानुगत अधिकार होने के कारण राजपूत जाति का नेतृत्व भी वंशानुगत हो गया| इस प्रकार का नेतृत्व अन्य नेतृत्वों की अपेक्षा अधिक शक्ति-संपन्न, कार्य-कुशल, व्यावहारिक, स्वाभाविक और समर्थ हो सकता है पर इसके वंशानुगत होने के कारण उसमें मूलभूत कमजोरियां उत्पन्न हो जाती है| यह आवश्यक नहीं कि एक योग्य राजा का लड़का भी योग्य ही हो| इस प्रकार का वंशानुगत नेतृत्व योग्यता आदि वास्तविक गुणों पर आधारित न रह कर केवल सामाजिक रुढ़िवादी और जन्म पर आधारित रहता है| राजपूत जाति के अब तक राजनैतिक सामाजिक आदि सभी प्रकार के नेता राजा लोग रहते आये है| इस प्रकार का नेतृत्व सदैव परिस्थिति सापेक्ष रहता आया है| दैवयोग से यदि राजा योग्य,साहसी और दूरदर्शी हुआ तो समाज उन्नत हो गया और यदि राजा इन गुणों से शून्य हुआ तो समाज गड्ढे में गिर गया| दुर्भाग्य से गत सात सौ वर्षों के इतिहास में महाराणा सांगा के अतिरिक्त और कोई राजपूत राजा इतना योग्य, दूरदर्शी और प्रभावशाली नहीं हुआ जो बिखरी हुई राजपूत शक्ति को बटोर कर एक ध्वज के नीचे ला सकता था| राजपूत जाति में एक महान जाति के सब गुण होते हुए भी केवल राजाओं की मुर्खता, अदुरदर्शिता, भीरुता, स्वार्थ और अहंप्रधान मनोवृति के कारण मुसलमान काल में राजपूत शक्ति छिन्न-भिन्न होकर या तो परस्पर लड़ती रही या शत्रुओं के उद्देश्य साधन बनती रही| राजपूत जाति मध्ययुग में सबसे अधिक लड़ी, सबसे अधिक कटी-मरी, सबसे अधिक उसने त्याग और बलिदान किया पर तो भी गुलाम ही बनी रही| क्यों ? राजाओं के असामाजिक दृष्टिकोण, अभिमान और अयोग्य नेतृत्व के कारण|

राजाओं का यह नेतृत्व अंग्रेजी काल में आते आते सर्वथा निरर्थक, अयोग्य और प्रदर्शन की वस्तु मात्र रहा गया| राजपूतों की उपयोगिता नष्ट करने और उन्हें प्रभावहीन बनाने के लिए अंग्रेजों ने अपनी कुटनीतिक चाल से सर्वप्रथम हिन्दू-समाज के इसी परंपरागत नेतृत्व को निष्प्रभ और खोखला बनाना आरम्भ किया| राजकुमारों के शिक्षण के लिए पृथक शिक्षण संस्थायें खोली गई| उन शिक्षण संस्थाओं के शिक्षण और वातावरण ने हिन्दू समाज के उन स्वाभाविक नेताओं में ऐसे संस्कारों का बीजारोपण किया जो क्रत्रिमता, अहंभाव, दासता, परावलंबन, भीरुता एवं विलासिता आदि दुर्गुणों से ओतप्रेत थे| इन शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा, भाषा, व्यवहार आदि का तो बेढंगा अनुकरण कराया जाता, पर अंग्रेजों की चारित्रिक विशेषताओं, उनके जातिय गुणों और बौद्धिक धरातल तक पहुँचने का कभी भी अभ्यास नहीं कराया जाता| दूसरी और भारतीय जन-जीवन, दर्शन, समस्याओं और परम्पराओं से ये विद्यार्थी कोसों दूर रखे जाते थे| इस प्रकार उनकी शिक्षा और संस्कारों से भारतीय और पाश्चात्य दोनों ही प्रकार की मौलिकताओं और विशेषताओं को सावधानी पूर्वक दूर रखा जाता| एक सुन्दर और विशिष्ट गुणयुक्त पृष्ठ-भूमि सहित ये बालक उन संस्थाओं में प्रवेश करते और जब वहां से शिक्षित होकर निकलते तब राष्ट्रिय और सामाजिक जीवन में कहीं भी फीट न होने वाले केवल आवारा मात्र बनकर आते| सदैव चापलूस समुदाय से घिरे रहने और शिकार, राग-रंग आदि में मस्त रहने के कारण ये जन-जीवन से शैने: शैने: दूर हटते गए| दूसरी और शासन की समस्त व्यावहारिक और वास्तविक जिम्मेदारी अंग्रेजों के हाथों में आ चुकी थी|

अतएव ये हमारे वंशानुगत नेता राजा-महाराजा उपयोगिता विहीन होकर कोतल घोड़ों की भांति सदैव प्रदर्शन की वस्तु मात्र बने रहे| अंग्रेजों ने इनके अहं को तृप्त करने के लिए अंग्रेजी वर्णमाला के सभी अक्षर उनके नामों के आगे उपाधियों के रूप में लगा दिए और तोपों से सलामी की प्रथा प्रचलित कर दी| फिर क्या था, हमारे ये स्वाभाविक नेता अंग्रेज प्रभु-शक्ति के गुणगान करके, वेश्याओं और चापलूसों को दान देकर और छिप-छिप कर वन्य पशुओं का आखेट करके अपने क्षत्रियत्व को सार्थक करने के मिथ्या स्वप्नों में झूमते रहे| हुआ वाही जो अंग्रेज चाहते थे| जिस समय देश के सच्चे नेतृत्व की आवश्यकता थी उस वक्त हमारे जन्मजात नेता राजा लोग अंग्रेज प्रभु-शक्ति को प्रसन्न करने में दिन-रात एक करते रहे| परिणाम यह हुआ कि देश का राजनैतिक नेतृत्व राजपूतों के हाथों से खिसक कर निम्न श्रेणी के बुद्धिजीवी तत्वों के हाथों में चला गया|

क्रमश:................


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,antravalokan, sw.aayuvan singh shekhawat

Thursday, November 1, 2012

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -8

भाग सात से आगे.... जब सामाजिक ढांचा विश्रंखलित और अस्त व्यस्त हो जायेगा तब अब तक के समस्त रीती-रिवाज, रहन-सहन, व्यवहार आदि के तरीकों में भी आमूल परिवर्तन आ जायेगा| सामाजिक आदर्श और मान्यताएं बदलकर नवीन प्रकारों को जन्म देंगी| सामाजिक ढांचे का यह परिवर्तन अनियंत्रित परिस्थितियों के हाथों में होगा| इस प्रकार अनियंत्रित परिस्थितियों और तत्वों द्वारा लाया गया वह विवशतापूर्ण और बलात परिवर्तन निश्चित उद्देश्य सहित की गयी सामाजिक क्रांति का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता| इस परिवर्तन के उपरांत निर्मित होने वाला समाज निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सर्वथा अयोग्य और पंगु होगा| समाज के इन्हीं आदर्शों और मान्यताओं के व्यवाहारिक स्वरूप द्वारा संस्कृति निर्मित होती है, अतएव राजपूत समाज का भौतिक और व्यवाहारिक ढांचा एकदम बदल जायेगा| प्राचीन संस्कृति समाप्त होगी और नवीन संस्कृति का कालांतर में विकास होगा| यह नव-विकसित संस्कृति कैसी भी भी क्यों न हो पर वह राजपूत संस्कृति कदापि नहीं होगी| एक और तो राजपूत संस्कृति की यह अधोगति ऊपर वर्णित आर्थिक और राजनैतिक कारणों से स्वत: होगी, दूसरी और सप्रयास इस संस्कृति को विकृत और नष्ट करने की योजना काम लाई जायेगी| परिणाम यह होगा कि भविष्य में राजपूत संस्कृति नाम की पृथक अस्तित्ववान वस्तु शेष न रहेगी|

इन सप्रयास कार्यों में प्रथम श्रेणी में वे कार्य आते है जो हिंदी-संस्कृति के मूल पर आघात करके उसे समाप्त करने जा रहे है| आज सुधारवाद की ओट में हिंदी-समाज व्यवस्था, संस्कारों और आदर्शों को प्रभावित करने वाले कानून हिन्दू-समाज के आधारभूत सिद्धांतों को समाप्त करने वाली है| जब हिन्दू-संस्कृति ही इस प्रकार से विकृत और कुरूप हो जायेगी तब राजपूत संस्कृति के बचने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि राजपूत संस्कृति तो महान हिन्दू संस्कृति का ही एक विशिष्ट और विकसित अंग मात्र है| हिंदी समाज के सामाजिक ढांचे की विश्रंखलता में राजपूत समाज के ढांचे की विश्रंखलता उसी प्रकार अन्तर्निहित है जिस प्रकार मूल के विनाश में सम्पूर्ण वृक्ष का विनाश| दूसरी और हिन्दू-संस्कृति के अंतर्गत राजपूत संस्कृति, साहित्य, कला आदि की जो विशिष्टताएँ है उनको यह बुद्धिजीवी-वर्ग योजना-बढ कार्यक्रम बनाकर समाप्त कर रहा है| प्रचार और प्रकाशनों द्वारा इतिहास के उन स्थलों पर जहाँ राजपूतों को महत्ता मिलती है, या तो पर्दा डाल दिया जाता है, या उन्हें तोड़-मरोड़ और विकृत करके पाठकों के सामने रखा जाता है| राजपूतों के महान ऐतिहासिक कार्यों को सामंतशाही के कारनामें बताकर उनके प्रति लोगों में घृणा उत्पन्न कराई जाती है| राजपूत चरित्र की कालिमा को अतिरंजित करके चित्रित किया जाता है| यह सब इसलिए कि देश के युवकों और बच्चों के अपरिपक्व मस्तिष्कों में इस संस्क्तिती की श्रेष्ठता के प्रति सम्मान और श्रद्धा से संस्कार जमने न पायें|

पर आज इस बुद्धिजीवी-वर्ग का सबसे बड़ा अपराध उसके वे समस्त कार्य है जो राजपूतों को नैतिक पतन के गड्ढे में डालने के लिए किये जा रहे है| एक और उनकी पैतृक सम्पत्ति पर प्रहार किया गया है, दूसरी और उनके तथाकथित नेताओं द्वारा राजपूत जाति को अपनी कार्यसिद्धि के लिए साधन रूप में प्रयुक्त करने का प्रयास किया जा रहा है| राजपूत जाति के कतिपय अवसरवादी नीच और घृणित व्यक्तियों को नाना-प्रकार के प्रलोभन देकर उनके द्वारा जाति की पीठ में छुरा भौंकने का कार्य कराया जा रहा है| एक और इन फूट के कीटाणुओं को हर प्रकार से प्रोत्साहन दिया जा रहा है तथा दूसरी और जो व्यक्ति विरोधियों के इन नीच और कमीने हथकंडों से सावधान है तथा जनता को सचेत करते रहना चाहते है, उनका हर प्रकार से उत्पीड़न किया जाता है| यह स्थिति केवल राजस्थान की ही नहीं है, वरन सौराष्ट्र, मध्यभारत आदि स्थानों पर भी है| अब तक शांति और व्यवस्था बनाये रखने तथा डाकुओं के दमन के नाम पर पुलिस द्वारा जो नृशंस अत्याचार राजपूतों पर कराये गए है, उनकी कहानी अत्यंत दुखद और लम्बी है | राजपूतों का सामाजिक और व्यक्तिगत अपमान करना, उनमें फूट डालकर उनका राजनैतिक शोषण करना आदि आज दैनिक जीवन की साधारण घटनाएँ बन गयी है| इन बुद्धिजीवी तत्वों द्वारा गांवों की निम्न जातियों में राजपूतों के प्रति घृणा और प्रतिशोध की भावना जागृत करने के कारण आज अल्पसंख्यक राजपूतों का स्वाभिमान और सम्मान के साथ गांवों में रहना दुष्कर हो गया है|

एक और तो राजनैतिक प्रभुत्व समाप्त हो जाने के कारण मनोवैज्ञानिक रूप से राजपूत जाति का वैसे ही आत्म-पतन हुआ है, दूसरी और इस प्रकार के सप्रयास किये जाने वाले कार्यों के कारण इस पतन की रात-दिन वृद्धि होती जा रही है| आज सबसे बड़ी और प्राथमिक आवश्यकता यही है कि राजपूत समाज के नैतिक-स्तर को और अधिक गिरने से बचाया जाय| इस प्रकार आज भारत की सम्पूर्ण राजपूत जाति राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक आदि सभी क्षेत्रों में मौत के मुंह में प्रवेश कर गयी है और उसने सत्तालोलुप बुद्धिजीवियों की प्रभुत्व-स्थापन की चिर-अभिलाषा की पूर्ति के लिए मनोवांछित अवसर प्रस्तुत कर दिया है| यदि इस समय समयानुकूल भागीरथ प्रयत्न द्वारा शीघ्र ही योजनाबद्ध रूप से कुछ नहीं किया गया तो राजपूत जाति, इतिहास, साहित्य, कला, संस्थाएं, परम्पराएं, संस्कृति आदि भावी युग में विगत इतिहास की केवल सामग्री मात्र बन कर रह जायेगी| सूर्य और चन्द्र वंश का गौरव राख के सूक्षम कणों में परिवर्तित होकर अस्तित्वहीन निराकार स्मृति मात्र बन कर रह जावेगा और भावी पीढियां अपने पूर्वजों की वंशावली बताने में लज्जित और असमर्थ होंगी|

"राजपूत और भविष्य" पुस्तक का "मौत के मुंह में" अध्याय समाप्त|




Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -7

भाग छ: से आगे... मध्यम-वर्ग का जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा साधन कृषि था| महाजनों से ऋण लेकर और अपनी औरतों के जेवर तक बेच कर इस वर्ग के अधिकाँश लोगों ने अपनी भूमि पर कुए,तलब आदि बनवाये थे| इस प्रकार कृषि की भूमि पर उत्पादन बढाने के लिए सुधार कर वे अपनी भूमि कृषकों को जोतने के लिए लिए दिया करते थे| भूमि-सुधार और कास्तकारों के हितों के संरक्षण की ओट लेकर, सैकड़ों वर्षों से चले आ रहे उनके पैतृक और परम्परा अधिकारों को,एक ही रात में कानून बनाकर,अन्य वर्गों के हितों में हस्तांतरित कर दिया गया| केवल राजस्थान में ही हजारों ऐसे मध्यमवर्गीय राजपूत परिवार होंगे जिनके पास खेती करने को आज दो-चार बीघा जमीन भी शेष नहीं बची है| परम्परा से चले आ रहे भूस्वामी आज अपने ही घरों में किस प्रकार भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में आने को बाध्य कर दिए गए है,यह सामजिक अन्याय का एसा ज्वलंत उदहारण है जो अन्य सभ्य कही जाने वाली व्यवस्था में मिलना दुर्लभ है| जिन गांवों को बसाने और जिनकी रक्षा करने पूर्वजों की कई पीढियां बलिदान हो गई उन्ही राजपूतों को आज अपने वे गाँव छोड़ने के लिए विवश किया जा रहा है | उन गाँवों के साथ उनका एतिहासिक और रागात्मक सम्बन्ध है, इसका भी ध्यान न रखकर उन्हें एक अपरिचित और भयपूर्ण वातावरण में जाकर बसने के लिए कहा जाता है| क्या यही न्याय है? नहीं,यह राजपूत जाती को नष्ट करने की दुर्नितिपूर्ण योजना का एक रचनात्मक पहलु मात्र है|

राजपूत समाज का गरीब वर्ग कृषि, नौकरी और अन्य पारिश्रमिक कार्यों द्वारा अपना जीवनयापन करता आया है| इसी वर्ग की राजपूत समाज में बहुसंख्य है| यह वर्ग पहले से ही गरीब और अभावग्रस्त था| अतेव उसके पास कोई भी ऐसी वास्तु नहीं थी जो प्रत्यक्ष छीनी जा सके| जागीरी प्रथा के उन्मूलन के कारण अब इस वर्ग को भूमि का पूरा लगान देना पड़ेगा| दूसरी और अशिक्षित और पक्षपात के कारण नौकरिया मिलना वैसे भी बंद हो गया है, अतएव इस वर्ग की आर्थिक दशा भी हीन से हीनतर हुई है| इस प्रकार समस्त राजपूत जाति की आर्थिक दशा बहुत गिर चुकी है |
राज्यों के विसर्जन और जागीरी-प्रथा के उन्मूलन का प्रत्यक्ष प्रभाव राजपूतों के सामजिक ढाँचे पर भी पड़ना आवश्यक है| इससे लगभग सभी सामजिक परम्पराएँ और सांस्कृतिक मान्यताएं समाप्त हो जायेगी| कोई बता सकता है कि जागीरी-उन्मुलानके पश्चात उन निराश्रित विधवाओं की क्या दशा होगी; उन निःसंतान बूढ़े स्त्री-पुरुषों की क्या दशा होगी जिन्होंने अब तक रूढ़ीवश या अन्य कारणों से शारीरिक श्रम बिलकुल नहीं किया है? सिद्धांत इन प्रश्नों के कई उअत्तर हो सकते है पर व्यावहारिक दृष्टि से अनैतिक तथा नीच कर्म अपनाने के अतिरिक्त इन समस्याओं का कोई भी वर्तमान स्तिथि में अन्य समाधान नही है|

इन सब परिवर्तनों का अर्थ सभी वर्गों को आर्थिक उन्नति का सामान अवसर और अधिकार देना कदापि नै,पर इन सब परिवर्तनों का प्रत्यक्षत; एक ही अर्थ है और वह यह है कि वैधानिक और क़ानूनी तरीकों की आड़ लेकर राजपूतों को किस प्रकार अधिक से अधिक निराश्रित और आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाया जाय| राजपूतों से संबंध रखने वाली प्रत्येक समस्या का समाधान नकारात्मक रूप से खोजा जाता रहा है| राजस्थान में “राजपूतों को अधिक से अधिक हानि कैसे पहुंचाई जाय” सिद्धांत-वाक्य को ध्यान में रखकर प्रत्येक कार्य किया जा रहा है|

इन राजनैतिक और आर्थिक परिवर्तनों का राजपूतों के विभिन्न वर्गों में विभिन्न परिणाम होंगे| अमीर वर्ग में कुसंस्कारों तथा शहरी जीवन के कारण भीषण अनैतिकता का प्रचार होगा| अपनी व्यवसायिक पृथकता तथा पारिवारिक भ्रष्टाचार के कारण इस वर्ग के कई परिवार कालांतर में गांवों में बसने वाले विशुद्ध राजपूत परिवारों से पृथक होकर एक नए वर्णसंकर वर्ग को जन्म देंगे| कह नहीं सकते कि कालांतर में यह वर्ग राजपूत होकर जाति से कितना दूर जाकर गिरेगा| इसी प्रकार अति निम्न-वर्ग भी अपने पैतृक स्थानों को छोड़कर जीविकोपार्जन के साधनों की खोज में इधर उधर बिखर कर तथा देश के अन्य श्रमिक-वर्ग के साथ मिलकर शेष राजपूत समाज से पृथक हो जायेगा| कुछ लोग व्यापारी बन जायेंगे, कुछ जरायम पेशा और कुछ कलाल-कसाई आदि नीच कर्म-कर्ता| धंधों और व्यवसायों के आधार पर ही पारस्परिक वैवाहिक संबंध आदि होंगे| इस प्रकार आज की यह राजपूत जाति व्यवसायों के आधार पर इन वर्गों के राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक उद्देश्य और कार्यक्रम होंगे और उन्हीं उद्देश्यों और कार्यक्रमों की समानता के आधार पर देश के अन्य वर्गों के साथ उनका भाग्य जुड़ जायेगा| राजपूत समाज व्यवस्था की यह भावी पर वास्तविक कल्पना कितनी भयावह है|

क्रमश:....


Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है|
rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat

राजपूत और भविष्य : मौत के मुंह में -6

भाग पांच से आगे .....देशी राज्यों की इस प्रकार की समाप्ति के रूप में बुद्धिजीवी नेताओं के शब्दों में राष्ट्र की एकता पूर्ण हुई,इतिहासज्ञों के विचारों में वह एक रक्तहीन राज्य-क्रान्ति थी;-देश के अनुत्तरदायी विध्वंसक तत्वों की वाणी में वह बर्बर सामंतीय युग की स्वाभाविक इतिश्री थी और राजपूतों की दृष्टि में,उनके पूर्वजों द्वारा रक्त और श्रम-जल से सिंचित उन पैतृक,परम्परागत और सामजिक राज्यों का अंतिम रूप से विसर्जन था जिनके साथ उनका हृदय,मस्तिष्क और मानस का गूढतम रागात्मक और विचारात्मक सम्बन्ध जुड़ा हुआ था |
वे राज्य राजपूतों की सामजिक सम्पति थे और राजाओं को अपनी मधुर इच्छा मात्र पर उनको समाप्त करने का नैतिक और वैधानिक अधिकार न था| पर सब कुछ हो गया और किसी ने औचित्य को ध्यान में रखते हुए एक शब्द तक न कहा| सत्य और अहिंसा के पुजारी उस समय कदाचित पहली बार अपने नग्न रूप में सामने आये,पर किसका साहस था जो उनकी उस नग्नता को चुनौती देता!

इस प्रकार राज्यों के समाप्त करने के उपरान्त राजपूतों की जागीरों जैसी अन्य राजनैतिक इकाइयों को भी क़ानून आदि बना कर आसानी से समाप्त कर दिया गया| यह ही नहीं,गरीब राजपूतों से उनके जीवन-यापन का एकमात्र साधन भूमि को छीन कर उन्हें अपने ही घर में दर-दर का बिखारी बना दिया| राजपूतों के राजनैतिक प्रभुत्व की समाप्ति का सूत्रपात राज्यों की समाप्ति से समाप्ति से प्रारंभ होकर जागीरों और भू-स्वामित्व की समाप्ति तक पूर्ण हो गया| अब ये अपने ही घर में शासक,स्वामी से दास, स्वावलंबी से परावलम्बी और सम्मानित से अपमानित हो गए| इस प्रकार राजपूतों के प्रभाव को समाप्त करने की पहली और मुख्या शर्त तो पूरी हुई| पर प्रजातंत्र वाद में आर्थिक सबलता पुनः राजनैतिक प्रभुत्व को जन्म दे सकती है,अतएव राजपूतों को आर्थिक दृष्टि से पंगु बनाना भी उनके भावी प्रभाव के प्रसार को रोकने के लिए उतना ही आवश्यक था जितना कि उनके राजनैतिक प्रभुत्व को समाप्त करना| हम ऊपर देख चुके है कि राजपूतों के राज्यों,जागीरो आदि की समाप्ति आर्थिक पतन के रूप में भी हुई है | करोड़ों रुपयों की पैतृक और परम्परागत सम्पति किसी न किसी बहाने के रूप में ली गई और प्रतिफल में निजी-व्यय,क्षति-पूर्ति आदि के रूप में जो कुछ भी दिया गया है अथवा दिया जाने वाला है वह अपेक्षाकृत एकदम नगण्य तथा राजनैतिक दृष्टि से राजपूतों के लिए अत्यंत ही घातक एवं पतंदाई सिद्ध होने वाली वस्तु है|

आर्थिक दृष्टि से हम राजपूत समाज के तीन विभाग कर सकते है-अमीर-वर्ग,गरीब-वर्ग या बड़ी-बड़ी जागीरें| इस वर्ग के अधिकांश दूरदर्शी व्यक्तियों ने गत वर्षों में पर्याप्त धन एकत्रित कर लिया है | इस धन को व्यवसाय आदि में लगाकर्र तथा अन्य नवीन अर्थ-उत्पादक साधनों को अपनाकर वे आर्थिक दृष्टि से आज भी पूर्ण सबल और समर्थ है|निजी व्यय और क्षति-पूर्ती के रूप में भी इन्हें कुछ रकम प्रति वर्ष मिल ही जाती है,अतएव इस समस्त परिवर्तन के कारण उनकी स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया है| अब इस अमीर-वर्ग ने अपने हितों और स्वार्थों को भारत के पूंजीपति बनियों के हितों और स्वार्थों के साथ एकाकार कर लिया है| अब न केवल आर्थिक दृष्टि से ही वरन राजनैतिक दृष्टि से भी बनियों और अमीर राजपूतों के स्वार्थ एक हो गए है | यही कारण है कि इस वर्ग में अब अधिकाधिक बनिया-वृति पनप रही है और यह बनियाँ वृत्ति न केवल क्षात्र-धर्म के मूल सिद्धांतों के अपितु राजपूतों के वर्तमान राजनैतिक,आर्थिक और सम्माजिक हितों के भी विरुद्ध पड़ती है|यही कारण है कि इस वर्ग के अधिकांश पूंजीपति लोग अपने अन्य भाइयों की आर्थिक अधोगति की और बिलकुल संवेदनशील न होकर उनके विरोधियों की शक्ति और सामर्थ्य बढाने में लगे हुए है| जिन राजपूतों के रक्त और पसीने के कारण वे अब तक श्रीमान बने रहे,अब अवसर पाकर वे उन्ही के विरोधियों से मिलकर उन्हें समूल नष्ट करने पर तुले हुए है|

मध्यम-वर्ग में राजपूत समाज का बुद्धिजीवी-वर्ग,नौकरीपेशा-वर्ग और छोटे जागीरदार आते है| वास्तव में यही वर्ग राजपूत समाज का मक्खन कहा सकता है| स्वयम परिश्रमी और उद्यम करके जीविकोपार्जन करते रहने के कारण यह वर्ग आर्थिक दृष्टि से काफी सबल और प्रभावशाली रहता आया है| इस वर्ग के जीविकोपार्जन के मुख्य दो साधन है-भूमि और नौकरी| जागीरों की समाप्ति से भूमि से प्राप्त आय का बहुत बड़ा अंश तो इनके हाथ से चला ही गया,अब इस वर्ग के पास नौकरी और कृषि-कर्म ये दो ही साधन जीवनयापन के रह गए है| कांग्रेसी बुद्धिजीवी वर्ग के कोप का आर्थिक दृष्टि से यही वर्ग सबसे अधिक भाजन बना है| इस वर्ग के अधिकांश लोग जब रियासती सेनाओं,ब्रिटिश सेनाओं और अन्य विभागों में नौकरियां करते समय अपने घरों से दूर रहते थे तब उनकी कृषि की जमीन को गाँव के अन्य कृषक जोतते और बोते थे| और उन्हें निर्धारित राशि अनाज अथवा रोकड़ के रूप में देते थे| जब देशी रियासतों का संघों आदि में विलीनीकरण हुआ तब सबसे पहले इन्ही हजारों नवयुवकों को सेना से निकला गया| उनका एकमात्र दोष था तो केवल यह है कि उन्होंने राजपूत समाज में जन्म लिया था| शासन के प्रत्येक क्षेत्र में राजपूत कर्मचारियों के साथ सौतेली माँ का सा व्यवहार किया जाने लगा| जब में जयपुर की सड़कों पर घूमते हुए,शिक्षित बेकार राजपूत नवयुवकों से उनकी नौकरी के विषय में पूछता हूँ तब तक गहरा निश्वास छोड़ते हुवे वे उत्तर देते है-"इस समय राजपूतों को नौकरी कहाँ?" और किसी राजपूत कर्मचारी से उसकी तरक्की के विषय में बात चीत करें तो वहां भी यही उत्तर मिलेगा, "राजपूत होने के कारण मेरा चान्स मार दिया गया|"

इस प्रकार इस मध्यम-वर्ग के जीविकोपार्जन का मुख्य सहारा नौकरी अब केवल भाग्य और चान्स का प्रश्न बनकर रह गया|

क्रमश: ....



Note : सन् 1957 में स्व.श्री आयुवानसिंह जी ने उस समय की सामाजिक,राजनैतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए "राजपूत और भविष्य" नामक पुस्तक लिखी थी| उपरोक्त अंश उसी पुस्तक के है| rajput or bhavishy,maut ke munh me, sw.aayuvan singh shekhawat