Saturday, October 29, 2011

मेरी साधना -18

- ओ देवी! सिंह-वाहिनी, असुर-संहारिणी, शुम्भ-निशुम्भ-निपातिनी, चक्र-धारिणी, रक्त-बीज-नाशिनी तेरा यह रौद्र रूप शत शत कोटि बार वन्दनीय है| समस्त विश्व का धारण और संहार करने वाला तेरा यह प्रचंड चंडी रूप स्तुत्य है| तू जीवन का जीवन, प्राणों की प्राण, आत्मा की आत्मा है| विश्व के कण-कण में तेरी सत्ता व्याप्त है| तो तू कहाँ है और कहाँ नहीं?

- तू इतनी प्रचंड रूपा, क्रूर-कर्मा, क्षमा-सिंधु और दयामयी है| क्यों न हो, जग जननी जो ठहरी| समस्त-विश्व की श्रद्धा और भक्ति का आलम्बन और वात्सल्य का आश्रय, भिन्नता में अभिन्नता को धारण किये हुए, अनेक-रूपा होते हुए भी एक-रूपा, तू सिंह पर आरूढ़ कितनी शोभायमान हो रही है| शक्ति, शील और सौन्दर्य के अनुपम सामंजस्यपूर्ण इस रूप का मेरे मन-मंदिर में निवास हो! देवी प्रार्थना है!

-मुझे संतोष नहीं है केवल तेरे गुण-गान करने में- यह तो वृद्ध अपंगो का काम है| मुझे मान्य नहीं है तेरा स्वरुप-शब्द चित्रण; यह तो कवियों के मष्तिष्क का व्यायाम है| मैं स्वीकार नहीं करता केवल तेरी व्याख्या और लीला-वर्णन को- यह खाली बैठों की निष्क्रियता है| तेरा केवल मानसिक चिंतन भी एकांकी और अपूर्ण है| मैं तो मन, वचन और कर्म में तेरी शक्ति का आव्हान करता हूँ| शरीर,मस्तिष्क और आत्मा में तेरा साक्षात् निवास चाहता हूँ| बोल स्वीकार है माँ ?

- माँ! शक्ति के क्षेत्र में तेरी सर्वोतमता की परम्परा को मैं जीवित रखना चाहता हूँ| एक अजेय और अखंड शक्ति का निर्माण मेरे जीवन का परम लक्ष्य है| यह कैसे होगा माँ ? मेरे अकेले के शक्ति-संपन्न होने होने से ? नहीं| समाज के प्रत्येक घटक को समान रूप से शक्ति-शाली बना कर सांघिक शक्ति का निर्माण करने से| तो इसके लिए जीवनव्यापी और जीवनपर्यन्त साधना की आवश्यकता होगी| कैसे प्रारंभ करूं इस साधना को मैं??

2 comments:

  1. स्व.आयुवान सिंह जी को बारम्बार नमस्कार ...

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  2. I want to read books what written by aayuvan singh , how it possible piz reply

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